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काम-गुण-सूत्र विवेचन
रस
काम का अर्थ है - ' विषयभोग' । काम के साधनों को रूप, आदि को –— कामगुण कहते हैं । कामगुण में गुण शब्द श्रेष्ठता का वाचक होकर केवल बन्धन हेतु वाचक है। काम के साधन शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श हैं, अतः ये सब काम गुणशब्दवाच्य हैं ।
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'कामगुण' शब्द के पीछे रहे हुए भाव की स्पष्टता के लिए ज़रा इस पर और विचार करलें । श्राचार्य हरिभद्र आवश्यक सूत्र पर की ruit fशष्यहिता टीका में कहते हैं कि संसारी जीवों के द्वारा शब्द, रूप आदि की कामना की जाती है, अतः वे काम कहलाते है और गुण का अर्थ है रस्सी । अस्तु, शब्दादि काम ही गुण रूप = बन्धन रूप होने से गुण हैं । शब्दादि कामों से बढ़कर संसारी जीव के लिए और कौन-सा बन्धन होगा ? सब जीव इसी बन्धन में बँधे पड़े हैं । 'काम्यन्त इति कामाः शब्दादयस्त एव स्व-स्वरूपगुणबन्धहेतुत्वाद् गुणा इति ।'
आचार्य हरिभद्र की भावना को स्पष्ट करते हुए मलधारगच्छीय श्राचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि 'तेषां शब्दादिकामानां स्वकीयं यत्स्वरूपं तदेव गुण इव गुणो - दवरकस्तेन यः प्राणिनां बन्धः--२ -सङ्गस्तद् हेतुत्वाद् गुणाः उच्यन्ते प्राणिनां बन्धहेतुत्वेन रज्जव इति यावत् । ' - हरिभद्रीयावश्यक वृत्ति टीप्पणक मानव जीवन में चारों ओर बन्धन का जाल बिछा हुआ है । कोई विरला सावधान साधक ही इस जाल को पार करके अपने लक्ष्य स्थान पर पहुँच सकता है । कहीं मनोहर सुरीले शब्दों का जाल है तो कहीं कर्कश कठोर उत्तेजक शब्दों का जाल है । कहीं नयन- विमोहक सुन्दर रूप का जाल बिछा है तो कहीं वभित्स भयानक कुरूप का जाल तना हुआ है । कहीं अगर, तगर, चन्दन, केशर कस्तूरी आदि की दिल खुश करने वाली सुगन्ध का जाल लगा हुआ है तो कहीं गंदी मोरी, कीचड़, सड़ते हुए तालाब आदि की वमन करा देने वाली दुर्गन्ध का जाल फँसाने को तैयार खड़ा है । कहीं सुन्दर सुगन्धित मधुर मिष्ठान्न
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