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श्रमण-सूत्र
प्रस्तुत सूत्र में पाँच महाव्रतों से प्रतिक्रमण नहीं किया गया है, प्रतिक्रमण किया गया है महाव्रतों में रागद्वेषादि के औदयिक भाव के कारण प्रमादवश लगे हुए दोषों से । यह ध्यान में रखिए, यहाँ हेत्वर्थक तृतीया है, पंचमी नहीं। हेत्वर्थक तृतीया का सम्बन्ध अतिचारों से किया जाता है और फिर अतिचारों का पडिक्कमामि एवं तस्स मिच्छा मि दुकडं से सम्बन्ध होता है। विशेष ज्ञातव्य
प्रस्तुत महाव्रत-सूत्र के पश्चात् प्रायः सभी प्राप्त प्रतियों और आवश्यक सूत्र के टीका-ग्रन्थों में समिति सूत्र का उल्लेख मिलता है। परन्तु श्राचार्य जिनदास महत्तर ने 'एस्थ के वि एणं पि पठन्ति' अर्थात् यहाँ कुछ श्राचार्य दूसरे पाठ भी पढ़ते हैं- इस प्रकार प्रकारान्तर के रूप में पाँच श्राश्रव द्वार, पाँच अनाव= संवर द्वार, और पाँच निर्जरा स्थान के प्रतिक्रमण का भी उल्लेख किया है। पाठकों की जानकारी के लिए हम उन सब पाठों को यहाँ उद्धृत कर रहे हैं___ "पडिकमामि पंचहिं पासवदारेहि, मिच्छत्त अविरति पमाद कसाय जोगेहिं ।
पंचहिँ श्रणासवदारेहि, सम्मत्त विरति अपमाद अकसायित्त अजोगित्तहिं।
पंचहिं निजर-ठाणेहि, नाण दंसण चरित्त तब संजमेहिं ।"
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