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श्रमण-सूत्र द्वीन्द्रिय श्रादि-इन छहों प्रकार के जीव निकायों से अर्थात् इन जीवों की हिंसा करने से जो भी अतिचार लगा हो, उस का प्रति क्रमण करता हूँ।
विवेचन 'जीवनिकाय' शब्द, जीव और निकाय-इन दो शब्दों से बना है । जीव का अर्थ है-चैतन्य = अात्मा ओर निकाय का अर्थ है-राशि, अर्थात् समूह । जीवों की गशि को जीवनिकाय कहते हैं । पृथिवी, जल तेज, वायु, वनस्पति और त्रस-ये छह जीव निकाय हैं। इन्हें छह काय भी कहते हैं । शरीर नाम कम से होने वाली शरीर-रचना एवं वृद्धि को काय कहते हैं । 'चीयते इति कायः ।।
जिन जीवों का शरीर पृथिवी रूप है, वे पृथिवीकाय कहलाते हैं । जिन जीवों का शरीर जलरूप है, वे अकाय कहलाते हैं । जिन जीवों का शरीर अग्निरूप है, वे तेजस्काय कहलाते हैं । जिन जीवों का शरीर वायुरूप है, वे वायुकाय कहलाते हैं । जिन जीवों का शरीर वनस्पतिरूप है, वे वनस्पतिकाय कहलाते हैं । ये पाँच, स्थावरपद वाच्य हैं । इन को केवल स्पर्शन इन्द्रिय होती है। त्रसनामकम के उदय से गतिशील शरीर को धारण करने वाले द्वीन्द्रिय = कीडे श्रादि, त्रीन्द्रिय = यूका खटमल श्रादि, चतुरिन्द्रिय = मक्खी मच्छर श्रादि, और पंचेन्द्रिय = पशु पक्षी मानव आदि जीव सकाय कहलाते हैं। ____संसार में चारों ओर मत्स्यन्याय चल रहा है। छोटे जीवों की हिंसा, बड़े जीवों के द्वारा की जारही है । कहीं भी जीव का जीवन सुरक्षित नहीं है । नाना प्रकार के दुःस'कल्प में फँसकर प्राणी जीव-हिंसा में लगा हुआ है । प्राचारांग सूत्र के प्रथम श्रुत स्कंध और प्रथम अध्ययन में जीवहिंसा के छह कारण बतलाए हैं (१) जीवन निर्वाह के लिए, (२) लोगों से वीरता प्रादि की प्रशंसा पाने के लिए, (३) सम्मान पाने लिए; (४) अन्नपान आदि का सत्कार पाने के लिए (५। धर्म भ्रान्ति के कारण
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