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श्रमण-सूत्र
नं अन्नाणी कम्म,
खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहि । तं नाणो तिहिं गुत्तो, खवई उसासमित्तेण ॥ ११३ ।।
-संथारपइन्ना -'अज्ञानी साधक करोड़ों वर्षों की कठोर तपः साधना के द्वारा जितने कम नष्ट करता है; ज्ञानी साधक मन, वचन और शरीर को वश में करता हुआ उतने ही कर्म एक श्वास-भर में क्षय कर डालता है।'
स्वाध्याय वाणी की तपस्या है | इसके द्वारा हृदय का मल धुलकर साफ़ हो जाता है । स्वाध्याय अन्तः प्रेक्षण है। इसी के अभ्यास से बहुत से पुरुष श्रात्मोन्नति करते हुए महात्मा, परमात्मा हो गए हैं । अन्तर का ज्ञानदीपक विना स्वाध्याय के प्रज्ज्यलित हो ही नहीं सकता। __ यथाग्नि रुमध्यस्थो,
नोत्तिष्ठेन्मथनं विना। विना चाभ्यासयोगेन,
ज्ञानदीपस्तथा न हि ॥
. योग शिखोपनिषद् -'जैसे लकड़ी में रही हुई अग्नि मन्थन के विना प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञानदीपक, जो हमारे भीतर ही विद्यमान है, स्वाध्याय के अभ्यास के विना प्रदीप्त नहीं हो सकता।'
अब यह विचार करना है कि स्वाध्याय क्या वस्तु है ? स्वाध्याय शब्द के अनेक अर्थ हैं :
'अध्ययन अध्यायः, शोभनोऽध्यायः स्वाध्याय:-श्राव. ४ अ.। सु + अध्याय अर्थात् सुष्टु अध्याय - अध्ययन का नाम स्वाध्याय है।
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