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काल-प्रतिलेखना-सूत्र
६६ मालूम होंगी, एक महान् दिव्य अलौकिक स्फूर्ति, तुम्हें प्रगति के पथ पर अग्रसर करती हुई प्राप्त होगी।
योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास भी स्वाध्याय के आदर्श पुजारी हैं। आप परमात्म-ज्योति के दर्शन पाने का साधन एकमात्र स्वाध्याय ही बतलाते हैं:स्वाध्यायाद् योगमासीत,
योगात्स्वाध्यायमामनेत् । स्वाध्याय-योगसंपत्त्या,
परमात्मा प्रकाशते. ॥
(योग० १ । २८-व्यासभाष्य ) __~'स्वाध्याय से ध्यान और ध्यान से स्वाध्याय की साधना होती है । जो साधक स्वाध्यायमूलक योग का अच्छी तरह अभ्यास कर लेता है, उसके सामने परमात्मा प्रकट हो जाता है ।
भगवान् महावीर तो स्वाध्याय के कट्टर पक्षपाती हैं । बारह प्रकार की तपः साधना में स्वाध्याय का स्थान भी रक्खा गया है और स्वाध्याय तप को बहुत ऊँचा अन्तरंग तप माना गया है । अपने अन्तिम प्रवचनस्वरूप वर्णन किए गए उत्तराध्ययन-सूत्र में आप बतलाते हैं कि-'समारणं नाणावरणिज्ज कम्म खवेह ।' 'स्वाध्याय करने से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होता है, ज्ञान का अलौकिक प्रकाश जगमगा उठता है।' श्राप देखते हैं --जीवन में जो भी दुःख है, अज्ञान-जन्य ही है । जितने भी पाप, जितनी भी बुराइयाँ हो रही हैं, सबके मूल में अज्ञान ही छुपा बैठा है । अस्तु, यदि अज्ञान का नाश हो जाय तो फिर किस चीज़ की कमी रह जाती है ! मनुष्य ने जहाँ ज्ञान, विवेक, विचार की शक्ति का प्रकाश पाया, वहाँ उसने संसार का समस्त ऐश्वर्य भर पाया।
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