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कपाय- सूत्र
बिबेचन
'काय' शब्द दो शब्दों से मिलकर बना हैं। दो शब्द हैं - 'कष' और 'चाय' । कप का अर्थ संसार होता है, क्योंकि इसमें प्राणी विविध दुःखों के द्वारा कष्ट पाते हैं, पीड़ित होते हैं। देखिए-नमि-कृत व्युत्पत्ति'कथ्यते प्राणी विविधदुः खैरस्मिन्निति कषः संसारः । दूसरा शब्द 'आय' है जिसका अर्थ लाभ = प्राप्ति होता है । बहुव्रीहि समास के द्वारा दोनों शब्दों का सम्मिलित अर्थ होता है - जिनके द्वारा कप = संसार की प्राय = प्राप्ति हो, वे क्रोधादि चार कषाय-पदवाच्य हैं । 'कषः संसारस्तस्य आयो लाभो येभ्यस्ते कषायाः ।"
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कषायों का वेग वस्तुतः बहुत प्रबल है | जन्म-मरणरूप यह संसारवृक्ष कषायों के द्वारा ही हराभरा रहता है । यदि कषाय न हों तो जन्ममरण की परम्परा का विषवृक्ष स्वयं ही सूखकर नष्ट हो जाय । दशवैकालिक-सूत्र में श्राचार्य शय्यंभव ठीक ही कहते हैं कि 'अनिगृहीत कषाय पुनर्भव के मूल को सींचते रहते हैं, उसे शुष्क नहीं होने देते । ' 'सिचंति मूलाइ' पुशब्भवस्स ।'
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सूत्रकृतांग-सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पष्ठ अध्ययन में कषायों को अध्यात्म-दोष बतलाया है । कपाय प्रकट और अप्रकट दोनों ही तरह से आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप शुद्धस्वरूप को मलिन करते हैं, कर्म रंग से आत्मा को रँग देते हैं और चिरकाल के लिए श्रात्मा की सुख-शान्ति को छिन्न-भिन्न कर देते हैं । जो साधक इनकायों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वही सच्चा साधक है । कपायविजयी साधक न स्वयं पाप कर्म करता है, न दूसरों से करवाता है, और न करने वालों का अनुमोदन ही करता है अतएव वह दुःखों से सदा के लिए छुटकारा प्राप्त कर लेता है । कारण के अभाव में कार्य कैसे हो सकता हे ? कषाय ही तो कमों के उत्पादक हैं, और कर्मों से ही दुःख होता है। जब कषाय नहीं रहे तो कर्म नहीं, कर्म नहीं रहे तो दुःख नहीं रहा । कपायों की कमौत्पादकता के सम्बन्ध में श्राचार्य वीरसेन के