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श्रमण-सूत्र अर्थ अभीष्ट नहीं है । जैनागमों में संज्ञा शब्द एक विशेष अर्थ के लिए भी रूढ है । मोहनीय और असाता वेदनीय कर्म के उदय से जब चेतना शक्ति विकारयुक्त हो जाती है, तब वह 'सज्ञा' पदवाच्य होती है । लोक भाषा में यदि आप सज्ञा का सीधा-सादा स्पष्ट अर्थ करना चाहें तो यह कर सकते हैं कि = 'कर्मोदय के प्राबल्य से होनेवाली अभिलाषा = इच्छा ।'
यह शब्द कहने के लिए तो बहुत साधारण है। साधारण संसारी जीव इच्छा को कोई महत्त्व नहीं देते । उन लोगों का कहना है कि'केवल इच्छा ही तो की है, और कुछ तो नहीं किया ? खाली इच्छा से क्या पाप होता है ?' परन्तु उन्हें याद रखना चाहिए कि संसार में इच्छा का मूल्य बहुत है। संकल्पों के ऊपर मनुष्य के उत्थान और पतन दोनों मार्गों का निर्माण होता है । सांसारिक भोगों की इच्छा करते रहने से अवश्य ही प्रात्मा का पतन होगा। मन का चित्र यदि गन्दा है तो उसका प्रतिबिम्ब अात्मा को दूषित किए. विना किसी भी हालत में नहीं रहेगा। साधक को मन के समुद्र में उठने वाली प्रत्येक वासनातरंगों को ध्यान में रखना चाहिए और उन्हें शान्त करने सम्बन्धी शास्त्रप्रतिपादित विधानों की जरा भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । आहार-संज्ञा
क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से आहार की आवश्यकता होती है। यह समान्यतः श्राहार संज्ञा है । क्षुधा की पूर्ति के लिए भोजन करना पाप नहीं है । परन्तु मनुष्य की मानसिक धारा जब पेट पर ही केन्द्रित हो जाती है, तव आहार सज्ञा अपनी मर्यादा को लाँघने लगती है और साधक के लिए घातक होने लगती है । मोह का आश्रय पाकर यह संज्ञा जब अधिक बल पकड़ लेती है, तब अधिक से अधिक सुन्दर स्वादु भोजन खाकर भी मनुष्य सन्तुष्ट नहीं होता । अग्नि के समान आहार के लिए, उसका हृदय धधकता ही रहता है । निरन्तर आहार का स्मरण करने एवं आहार कथा सुनने से श्राहार संझा एज्ज्वलित होती है ।
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