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श्रमण-सूत्र
पात-क्रिया-इन पाँचों क्रियाओं के द्वारा जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
विवेचन कमबन्ध करने वाली चेष्टा, यहाँ क्रिया शब्द का.वाच्य श्रर्थ है । स्पष्ट भाषा में-'हिंसाप्रधान दुष्ट व्यापार-विशेष' को क्रिया कहते हैं । श्रागमसाहित्य में क्रियाओं का बहुत विस्तृत वर्णन है । विस्तार-पद्धति में क्रिया के २५ भेद माने गए हैं। परन्तु अन्य समस्त क्रियाओं का सूत्रोक्त पाँच क्रियाओं में ही अन्तर्भाव हो जाता है, अतः मूल क्रियाएँ पाँच ही मानी जाती हैं। कायिकी
काय के द्वारा होने वाली क्रिया, कायिकी कहलाती है । इसके तीन भेद माने गए हैं-मिथ्या दृष्टि और अविरत सम्यग-दृष्टि की क्रिया अविरत कायिकी होती है, प्रमत्त संयमी मुनि की क्रिया दुष्प्रणिहित कायिकी होती है, और अप्रमत संयमी की क्रिया सावद्ययोग से उपरत होने के कारण उपरत कायिकी होती है । प्राधिकरणिकी
जिसके द्वारा प्रात्मा नरक आदि दुर्गति का अधिकारी होता है, वह दुमंत्रादि का अनुठान-विशेष अथवा घातक शस्त्र प्रादि, अधिकरण कहलाता है । अधिकरण से निष्पन्न होने वाली क्रिया, प्राधिकरणिकी होती है। प्राद्वषिको ... प्रद्वष का अर्थ 'मत्सर, डाह, ईर्षा' होता है । यह अकुशल परिणाम कम-बन्ध का प्रबल कारण माना जाता है। अस्तु, जीव तथा अजीव किसी भी पदार्थ के प्रति द्वेषभाव रखना प्राषिकी क्रिया होती है। पारितापनिकी
ताडन श्रादि के द्वास दिया जाने वाला दुःख, परितापन कहलाता
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