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ध्यान-सूत्र
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धर्म ध्यान
श्रुत एवं चारित्र की साधना को धर्म कहते हैं । अस्तु, जो चिन्तन, मनन धर्म के सम्बन्ध में किया जाता है वह धम' ध्यान कहलाता है ।
और भी अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो सूत्रार्थ की साधना करना, महाव्रतों को धारण करना, बन्ध और मोक्ष के हेतुत्रों का विचार करना, पाँच इन्द्रियों के विषय से निवृत्त होना, प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव रखना; इत्यादि शुभ लक्ष्यों पर मन का एकाग्र होना धर्म ध्यान होता है । शुक्ल ध्यान
कम मल को शोधन करने वाला तथा शुच - शोक को दूर करने वाला ध्यान, शुक्ल ध्यान होता है । 'शोधयत्यष्ट प्रकारकर्ममनं शुचं वा क्लमयतीति शुक्रम्'-प्राचार्य नमि । धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान का साधक है । शुक्ल ध्यान में पहुँच कर मन पूर्ण एकाग्र, स्थिर, निश्चल एवं निस्पन्द हो जाता है । साधक के सामने कितने ही क्यों न सुन्दर प्रलोभन हों, शरीर को तिल-तिल करने वाले कैसे ही क्यों न छेदन-भेदन हों, शुक्ल ध्यान के द्वारा स्थिर हुया अचंचल चित्त लेशमात्र भी चलायमान नहीं होता । शुक्ल ध्यान की उत्कृष्टता, केवलज्ञान उत्पन्न करने वाली है और केवल ज्ञान की प्राप्ति सदा के लिए जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ाने वाली है।
श्रात ग्रादि चारों ही ध्यानों का स्वरूप संक्षेप-भाषा में स्मृतिस्थ रह सके, इसके लिए, हम यहाँ एक प्राचीन गाथा उद्धृत करते हैं । यह गाथा प्राचार्य जिनदास महत्तर ने आवश्यक चूणि के प्रतिक्रमणाध्ययन में इसी प्रसंग पर 'उक्तच' के रूप में उद्धृत की है । गाथा प्राकृत और संस्कृत भाषा में सम्मिश्रित है और बड़ी ही सुन्दर है। 'हिंसाणुरंजितं रौद्र,
अट्ट कामाणुरंजितं ।
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