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गुप्ति-सूत्र
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मन की रक्षा-वचनगुप्ति, वचन की रक्षा, कायगुप्ति-काय की रक्षा है । रक्षा का अर्थ नियंत्रण है प्राचार्य हरिभद्र के उल्लेखानुसार गुप्ति प्रवीचार
और अप्रवीचार उभय-रूपा होती है ; अतः अशुभयोग से निवृत्त होकर शुभयोग में प्रवृत्ति' करना, गुप्ति का स्पष्ट अर्थ है । अपने विशुद्ध आत्मतत्त्व की रक्षा के लिए अशुभ योगों को रोकना, गुप्ति का स्पष्टतर अर्थ है। श्रात्ममन्दिर में आने वाले कमरज को रोकना, गुप्ति का स्पष्टतम अर्थ है । मनोगुप्ति
अार्त तथा रौद्र ध्यान-विषयक मन से सरंभ, समारंभ तथा प्रारंभ सम्बन्धी संकल्प-विकल्प न करना; लोक-परलोक हितकारी धर्म ध्यान सम्बन्धी चिन्तन करना; मध्यस्थ-भाव रखना; मनोगुप्ति है। चचन-गुप्ति
वचन के सरंभ, समारंभ, प्रारंभ सम्बन्धी व्यापार को रोकना, विकथा न करना; झूठ न बोलना; निन्दा चुगली आदि न करना; मौन रहना; वचन गुप्ति है।
१-जबकि गुप्ति में भी अशुभ योग का निग्रह और शुभ योग का संग्रह, अर्थात् अशुभयोग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति होती है
और इसी प्रकार समिति में भी अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति होती है; फिर दोनों में भेद क्या रहा ? उत्तर है कि गुप्ति में असस्क्रिया का निषेध मुख्य है और समिति में सक्रिया का प्रवर्तन मुख्य है। गुप्ति अन्ततोगत्वा प्रवृत्ति रहित भी हो सकती है। परन्तु समिति कभी प्रवृत्ति-रहित नहीं हो सकती । वह प्रवीचार-प्रधान ही होती है । आवश्यक सूत्र की टीका में प्राचार्य हरिभद्र ने इसी सम्बन्ध में एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है'समिश्रो नियमा गुत्तो,
गुत्तो समियत्तणमि भइयव्वो। कुसल-वइमुदीरितो,
जं वयगुत्तो वि समिश्रो वि ॥,
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