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काल-प्रतिलेखना-सूत्र
निष्कर्ष यह है कि-श्रात्मकल्याणकारी श्रेष्ठ पठन-पाठनरूप अध्ययन का नाम ही स्वाध्याय है।
स्थानांग-सूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि स्वाध्याय का अर्थ करते हैं-सुष्टु = भलीभाँति श्रा=मर्यादा के साथ अध्ययन करने का नाम स्वाध्याय है । 'सुष्टु पा = मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः'-स्था० २ ठा० २३० । __ वैदिक विद्वान् स्वाध्याय का अर्थ करते हैं—'स्वयमध्ययनम्'-किसी अन्य की सहायता के बिना स्वयं ही अध्ययन करना, अध्ययन किये हुए का मनन और निदिध्यासन करना। दूसरा अर्थ है-'स्वस्यात्मनोऽध्ययनम्'-अपने पापका अध्ययन करना और देखभाल करते रहना कि अपना जीवन ऊँचा उठ रहा है या नहीं ?
जैन शास्त्रकारों ने स्वाध्याय के पाँच भेद बतलाए हैं-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धमकथा ।
गुरुमुख से सूत्र पाठ लेकर, सूत्र जैसा हो वैसा ही उच्चारण करना, वाचना है । वाचना के द्वारा सूत्र के शब्द-शरीर की पूर्ण रूप से रक्षा की जाती है। अतएव हीनाक्षर, अत्यक्षर, पदहीन, घोष हीन आदि दोषों से बचने की सावधानी रखनी चाहिए ।
स्वाध्याय का दूसरा भेद पृच्छना है--सूत्र पर जितना भी अपने से हो सके तर्क-वितर्क, चिन्तन, मनन करना चाहिए और ऐसा करते हुए जहाँ भी शंका हो गुरुदेव से समाधान के लिए पूछना चाहिए । हृदय में उत्पन्न हुई शंका को शंका के रूप में ही रखना ठीक नहीं होता। .
सूत्रवाचना विस्मृत न हो जाय, एतदर्थं सूत्र की बार-बार गुणनिका = परिवर्तना करना, परिवर्तना है !
सूत्रवाचना के सम्बन्ध में तात्त्विक चिन्तन करना, अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय का महत्त्वपूर्ण अंग है। विना अनुप्रेक्षा के ज्ञान चमक ही नहीं सकता।
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