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बन्धन -सूत्र
१११
निछावर किया हुआ है । अतएव जब शरीर और इन्द्रियों को अच्छी लगने वाली कोई इ श्रवस्था होती है तो उससे राग करता है और जब शरीर और इन्द्रियों को अच्छी न लगने वाली कोई विपरीत अनिष्ट अवस्था होती है तो उससे द्व ेष करता है । इस प्रकार कहीं राग तो कहीं द्वेषइन्हीं दुर्विकल्पों में मानव जीवन की अमूल्य घड़ियाँ बर्बाद होरही हैं । जब तक राग-द्व ेष की मलिनता है, तब तक चारित्र की शुद्धता किसी भी तरह महीं हो सकती । चारित्र की शुद्धता की क्या बात ? कभी-कभी राग-द्वेष का आधिक्य तो चरित्र को मूल से ही नष्ट कर डालता है । राग-द्व ेष की प्रवृत्ति चारित्र मोह के उदय से होती है, और चारित्र मोह संयमजीवन का दूध एवं घातक माना गया है ।
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यदि अन्तदृष्टि से देखा जाय तो राग-द्व ेष हमारे दुर्बल मन की ही कल्पनाएँ हैं । किसी वस्तु के साथ इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । " वस्तु अपने स्वरूप में न कोई अच्छी है और न कोई बुरी । मनुष्य की कल्पना ही उन्हें अच्छी-बुरी माने हुए है । उदाहरण के लिए निशानाथ चन्द्र को ही लीजिए । श्राकाशमण्डल में चन्द्रमा के उदय होते ही चकोर हर्षोन्मत्त हो जाता है तो चकवा चकवी शोक से व्याकुल हो उठते हैं । चन्द्रमा का उदय देखकर चोर दुःखित होता है तो साहूकार
१. 'न काम - भोगा समयं उवेन्ति,
न यावि भोगा विगहूं उवेन्ति । जे तप्पनोसी य परिग्गहीय सो तेसु मोहा विगई
उबेइ ॥
- उत्तराध्ययन सूत्र ३२ । १०१
-काम भोग अर्थात् सांसारिक पदार्थ अपने आप न तो किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में राग-द्व ेष रूप विकृति ही पैश करते हैं । परन्तु मनुष्य स्वयं ही उनके प्रति राग-द्वेष के नाना विकल्प बनाकर मोह से विकारग्रस्त हो जाता है ।
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