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श्रमण-सूत्र
जब कि सूत्र - वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रक्षा के बाद तत्त्व का वास्तविक रूप सुदृढ़ हो जाय, तत्र जन कल्याण के लिए धर्मोपदेश करना धर्म कथा है ।
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भगवान् महावीर ने कितना अधिक सुन्दर वैज्ञानिक क्रम, स्वाध्याय का रक्खा है ? शास्त्रों के शब्द और अर्थ दोनों शरीरों की रक्षा के लिए कितनी सुन्दर योजना है ? यदि उपर्युक्त पद्धति से शास्त्रों का स्वाध्याय = अध्ययन किया जाय तो साधक अवश्य ही ज्ञान के क्षेत्र में अद्वितीय प्रकाश पा सकता है। कुछ भी अध्ययन न करके धर्म कथा के मञ्च पर पहुँचने वाले कथक्कड़ जरा इस और लक्ष्य दें कि धर्म कथा का नम्बर कौनसा है ?
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आजकल स्वाध्याय के नाम पर बिल्कुल अर्थहीन परंपरा चल रही है । ग्राज के स्वाध्यायी लोग, स्वाध्याय का अभिप्राय यही समझते हैं कि किसी धर्म पुस्तक का नित्य कुछ पाठ कर लेना, और बस ! न शुद्ध उच्चारण की ओर ध्यान दिया जाता है और न अर्थ का ही कुछ चिन्तन मनन होता है। स्वाध्याय के लिए केवल शास्त्र के शब्द-शरीर को स्पर्श कर लेने से ही काम नहीं चल सकता । यद्यपि शुद्ध उच्चारण मात्र से भी कुछ लाभ अवश्य होता है। क्योंकि शब्दों के उच्चारण से भी भावों का सन्दन तरंगित होता है और उसका जीवन पर प्रभाव पड़ता है । परन्तु हम पूरा लाभ तभी उठा सकेंगे, जब कि पाठ करते समय पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रक्षा का भी ध्यान रक्खे' ।
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स्वाध्याय में बल पैदा करने के लिए वर्तमान युग की भाषा में भी कुछ नियम ऐसे हैं, जिन पर विचार करने की आवश्यकता है । यदि अच्छी तरह से निम्नोक्त नियमों पर ध्यान दिया जाय तो स्वाध्याय का अपूर्व आनन्द प्राप्त हो सकता है ।
(१) एकाग्रता जब हम स्वाध्याय कर रहे हों तो हमारा ध्यान चारों ओर से हटकर पुस्तक के शब्दों और अर्थों की ओर ही होना चाहिए । इसके लिए आवश्यक है कि जो कुछ हम मुख से पाठ करें,
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