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भ्रमण-सूत्र
अहिंसा, सत्य श्रादि महावत रूप मूल गुणों में अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार के कारण मलिनता पाती है, अर्थात् चारित्र का मूल रूप दूषित हो जाता है परन्तु सर्वथा नष्ट नहीं होता, अतः उसकी शुद्धि
आलोचना एवं प्रतिक्रमण के द्वारा करने का विधान है। परन्तु यदि मूल गुणों में जान-बूझ कर अनाचार का दोष लग जाए तो चारित्र का मूल रूप ही नष्ट हो जाता है। अतः उक्त दोष की शुद्धि के लिए केवल अालोचना एवं प्रतिक्रमण ही काफी नहीं है, प्रत्युत कठोर प्रायश्चित्त लेने का अथवा कुछ विशेष दुःप्रसंगों पर नए सिरे से व्रत ग्रहण करने का विधान है। .. परन्तु उत्तर गुणों के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उत्तर गुणों में तो अतिक्रमादि चारों ही दोषों से चारित्र में मलिनता आती है, परन्तु पूर्णतः चारित्र-भंग नहीं होता । स्वाध्याय और प्रतिलेखना उत्तर गुण हैं । अतः प्रस्तुत काल प्रतिलेखना-सूत्र के द्वारा चारों ही दोषों का प्रतिक्रमण किया जाता है। - शास्त्रोक्त समय पर स्वाध्याय या प्रतिलेखना न करना, शास्त्र-निषिद्ध समय पर करना, स्वाध्याय एवं प्रतिलेखना पर श्रद्धा न करना, तथा इस सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना या उचित विधि से न करना, इत्यादि रूप में स्वाध्याय और प्रतिलेखना सम्बन्धी अतिचार दोष होते हैं।
यह काल-प्रतिलेखना सूत्र, स्वाध्याय तथा प्रतिलेखना करने के बाद भी पढ़ा जाता है।
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