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श्रमण-सूत्र
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उच्चावच-भाव से इधर-उधर सतत दोलायमान रहती है; उसी
प्रकार
मनुष्य के मन में भी कामनाओं की अनन्त तरंगे तूफान मचाए रहती हैं। किसी बंबई कलकत्ते जैसे विशाल शहर के चौराहे पर खड़े हो जाइए, कामना-समुद्र का प्रत्यन्न हो जायगा। हजारों नरमुण्ड पूर्व से पश्चिम, पश्चिम से पूर्व, दक्षिण से उत्तर, उत्तर से दक्षिण आ जा रहे हैं। सबकी अपनी-अपनी एक धुन है, अपनी-अपनी एक कल्पना है। कौन इस नर मुण्डों के समुद्र को इधर से उधर, उधर से इधर प्रवाहित कर रहा है ? उत्तर है - 'कामना' । ये रेले' इतनी तेज रोज क्यों दौड़ाई जा रही हैं ? ये भीमकाय जलयान समुद्र का वक्षःस्थल चीरते हुए क्यों चीखे मार रहे हैं ? ये वायुयान क्यों इतनी शीघ्रता से आकाश में दौड़ाये जा रहे हैं ? कहना पड़ेगा, 'कामना के लिए कामनाओं के कारण आज, आज क्या अनादि से संसार में भयंकर उथल-पुथल मच रही है । 'इच्छाहु श्रागा ससमा प्रांतिया ।' 'कामानां हृदये वासः, संसार इति कीर्तितः ।'
परन्तु प्रश्न है - मनुष्य को कामनाओं से क्या मिला ? सुख ? सुख नहीं, दुःख ही मिला है । आज तक कोई भी मनुष्य, अपनी कामनात्रों के अनुसार सुख नहीं पा सका । रंक को भी देखा है, राजा को भी, सभी इच्छापूर्ति के अभाव में व्याकुल हैं। मनुष्य नाम धारी जीव, अपनी शानों की अवधि का पार पाले, यह सर्वथा असम्भव है । और जब तक कामनाओं की पूर्ति न हो जाय, तच तक शान्ति कहाँ ? सुख कहाँ ? श्रतएव हमारे वीतराग महापुरुषों ने कामनाओं की पूर्ति में नहीं, कामनाओं के नियंत्रण में ही, सन्तोष में ही सुख माना है। कामनात्रों के सम्बन्ध में किसी न किसी मर्यादा का आश्रय लिए बिना काम चल ही नहीं सकता । शास्त्रीय परिभाषा में इसी का नाम संयम है । 'स' + यम अर्थात् सावधानी के साथ भली भाँति इच्छात्रों का नियमन करना । संयम मनुष्यता की कसौटी है । जिसमें जितना अधिक संयम, उसमें उतनी ही अधिक मनुष्यता ।
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