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श्रमण-सूत्र
के समय अधिक माँगने की प्रवृत्ति को रोकने और रस गुद्धता के भाक को कम करने के लिए है ।
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन नवम उद्दे शक में वर्णन आता है कि साधु को रूखा सूखा जैसा भी भोजन मिले वैसा खाना चाहिए। यह नहीं कि अच्छा अच्छा खा लिया और रूखा सूखा डाल दिया । यदि ऐसा किया जाय तो उसके लिए निशीथ सूत्र में दण्ड का विधान है । यह नियम भी भिक्षा की शुद्धि के लिए परमावश्यक है । अन्यथा ऐसा होता है कि विशिष्ट भोजन की तलाश मैं मनुष्य इधर-उधर देर तक माँगता रहता है और फिर अधिक संग्रह करने के बाद अच्छा अच्छा खाकर बुरा-बुरा फेक देता है ।
यह भी विधान है कि भिक्षा के लिए ताकि स्वादु भोजन मिले। मार्ग में बिना किसी अमीर गरीब के अनुसार जैसा भी सुन्दर अथवा
दशवैकालिक आदि सूत्रों में धनिक घरों की ही खोज में न रहे, चलते हुए जो भी घर आ जायँ सभी में भेद के जाना चाहिए और अपनी विधि के सुन्दर, किन्तु प्रकृति के अनुकूल भोजन मिले, ग्रहण करना चाहिए । भोजन के सम्बन्ध में स्वास्थ्य का ध्यान रखना तो श्रावश्यक है, किन्तु स्वाद का ध्यान कतई नहीं रखना चाहिए। भगवान महावीर ने प्रत्येक नियम, मानव जीवन की दुर्बलताओं को लक्ष्य में रखते हुए ऐसा बनाया है, जिससे भिक्षा में किसी भी प्रकार की दुर्बलता प्रवेश न कर सकें और भिक्षा का आदर्श कलंकित न हो सके ।
बृहत्कल्पभाग्य प्रथम उद्दे शक में भिक्षा के लिए जाने से पहले कायोत्सर्ग करने का विधान है । इस कायोत्सर्ग = ध्यान में विचारा जाता है कि आज मैंने कौन सा श्राचामल अथवा निर्विकृति का व्रत ले रक्खा है और उसके लिए कितना और कैसा भोजन आवश्यक है ? यह कायोत्सर्ग अपनी भूख की अन्तर्ध्वनि सुनने के लिए है, ताकि मर्यादित एवं आवश्यक भोजन ही लाया जाय, अमर्यादित तथा अनावश्यक नहीं |
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