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गोचरचर्या सूत्र
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यदि श्राचार्यों की परंपरा के अनुसार यहाँ वही अर्थ उचित है, जो हमने शब्दार्थ तथा भावार्थ में प्रकट किया है । विकृत दधि तथा श्रोदन श्रादि भोजन में जो यदा-कदा रसज प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, उनकी विराधना जिस भिक्षा में होती है, वह भिक्षा प्राणभोजना कहलाती है । एक साधारण-सा प्रश्न यहाँ उठ सकता है । वह यह कि मूल शब्द में प्राणी नहीं, प्राण शब्द है, उसका अर्थ प्राणी किस प्रकार किया जा सकता है ? उत्तर में कहना है कि अर्शाद्यच् प्रत्यय के द्वारा 'प्राणा अस्थ सन्तीति प्राण:' इस प्रकार प्राणों वाला प्राणी भी प्राण शब्द वाच्य हो जाता है | पथक आलोचना सूत्र में 'पाणक्कमणे' का अर्थ मी उक्त रीति से प्राणियों पर आक्रमण करना होता है । द्वादशावर्तं वन्दन सूत्र इच्छामि खमासमणों में 'कोहाए' आदि चार शब्द भी अर्शाद्यच् के द्वारा ही सिद्ध होते हैं । 'कोहाए' = 'क्रोधया' का अर्थ होता है'arastr स्तीति क्रोधा, तथा क्रोधवत्या क्रोधानुगतया ।' जो आशातना क्रोध से युक्त हो वह क्रोवा कहलाती है । श्रागम में इस भाँति शव प्रत्यय का प्रयोग विपुल परिमाण में हुआ है । अतएव पाणभोणा में भी पारण = प्राण शब्द प्राणी का वाचक ही माना जाता है।
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अदृष्टाहृता
गृहस्थ के घर पर पहुँच कर, साधू को जो भी वस्तु लेनी हो, वह स्वयं जहाँ रक्खी हो, अपनी आँखों से देखकर
लेनी चाहिए । यदि
कोठे श्रादि में रक्खी हुई वस्तु, विना देखे ही हुई ले ली जाती है तो वह ग्राहृत दोष से ग्राह्य होती है । इस दोषोल्लेख के अन्तर में वस्तु न मालूम किस सचित्त वस्तु पर रक्खी हुई हो ? अतः उसके लेने में जीवविराधना दोष लगता है ।
पारिष्ठापनिका
परिष्ठापन से होने वाली भिक्षा, परिष्ठापनिका कहलाती है। पूज्यश्री
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गृहस्थ के
दूषित होने
यह भाव है
द्वारा लाई
के कारण
कि — देय