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काल-प्रतिलेखना-सूत्र
६५
दुष्पमज्जणाए = दुष्प्रमार्जना से देवसिओ= दिवस सम्बन्धी अदक्कमे = अतिक्रम में अहयारोअतिचार-दोष वहक्कमे = व्यतिक्रम में कत्रो = किया हो अहयारे = अतिचार में
तस्स = उसका श्रणायारे -अनाचार में दुक्कड = पाप जो-जो
मि मेरे लिए मे- मैंने
मिच्छा = मिथ्या हो
भावार्थ स्वाध्याय तथा प्रतिलेखना सम्बन्धी प्रतिक्रमण करता हूँ । यदि प्रमादवश दिन और रात्रि के प्रथम तथा अन्तिम प्रहर-रूप चार' काल में स्वाध्याय न की हो, प्रातः तथा सन्ध्या दोनों काल में वस्त्र-पात्र श्रादि भाण्डोपकरण की प्रतिलेखना न की हो, अच्छी तरह प्रतिलेखना न की हो, प्रमार्जना न को हो, अच्छी तरह प्रमार्जना न की हो; फलस्वरूप अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार सम्बन्धी जो भी देवसिक अतिचार = दोष किया हो तो वह सब पाप मेरे लिए मिथ्या = निष्फल हो।
विवेचन संसार में काल की बड़ी महिमा है । जो मनुष्य, जो समाज, जो राष्ट्र समय का आदर करते हैं, उचित समय से लाभ उठाते हैं, वे अभ्युदय के गौरव-शिखर पर पहुँच कर संसार को चमत्कृत कर देते हैं । इस के विपरीत जो बालस्यवश समयानुकूल प्रवृत्ति न कर सकने के
१--'दिया पढमचरिमासु, रतिपि पढमचरिमासु च पोरसीसु सज्झायो अवस्स कातव्यो ।' इति जिनदासमहत्तराः ।
'चतुष्कालं-दिवसरजनी-प्रथम-चरमप्रहरेषु इत्यर्थः । इति प्राचार्य हरिभद्राः।
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