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गोचरचर्या सूत्र
८६ बलि प्राभृतिका
देवता आदि के लिए पूजाथं तैयार किया हुआ भोजन बलि कहलाता है । वह भिक्षा में नहीं ग्रहण करना चाहिए। यदि ग्रहण करले तो दोष होता है। अथवा साधू को दान देने से पहले दाता द्वारा सर्वप्रथम आवश्यक बलिकम करने के लिए बलि को चारों दिशाओं में फेककर अथवा अग्नि में डाल कर पश्चात् जो भिक्षा दी जाती है, वह बलि प्रामृतिका है। ऐसा करने से साधु के निमित्त से अग्नि आदि जीवों की विराधना का दोष होता है। स्थापना प्राभृतिका
साधु के उद्देश्य से पहले से रक्खा हुअा भोजन लेना, स्थापना प्राभृतिका दोष है। अथवा अन्य भित्तुओं के लिए अलग निकालकर रक्खे हुए भोजन में से भिक्षा लेना, स्थापना प्राभृतिका दोष होता है । ऐसा करने से अन्तराय दोष लगता है । शङ्कित
आहार लेते समय यदि भोजन के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार के श्राधाकर्मादि दोत्र की आशंका हो तो वह अाहार कदापि न लेना चाहिए। भले ही दोष का एकान्ततः निश्चय न हो, केवल दोष की संभावना ही हो, तब भी अाहार लेना शास्त्र में वर्जित है। साधना मार्ग में जरा-सी आशंका की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती । दोष की आशंका रहते हुए भी त्राहार ग्रहण कर लेना, बहुत बड़ी मानसिक दुर्बलता एवं श्रासक्ति का सूचक है। सहसाकार
प्रत्येक कार्य विवेक और विचार पूर्वक होना चाहिए | शीघ्रता में कार्य करना, क्या लौकिक और क्या लोकोत्तर, दोनों ही दृष्टियों से अहितकर है । शीघ्रता करने से कार्य के गुण-दोष की ओर कुछ भी लक्ष्य नहीं रहता ! शीघ्रता मनुष्य हृदय के हलकेपन एवं छिछलेपन को प्रकट करती
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