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श्रमण सूत्र
अात्मारामजी महाराज इसका अर्थ करते हैं-'विना कारण श्राहार को परिष्ठापन करना = गेर देना ।' मालूम होता है-पूज्यश्री जी यहाँ परिष्ठापना समिति के भ्रम में हैं । परन्तु यह अर्थ उचित नहीं प्रतीत होता । यहाँ ये सब शब्द तृतीयान्त तथा सप्तम्यन्त हैं और इनका सम्बन्ध 'अपरिसुद्ध परिगहियं' से है । अतएव उक्त समग्र वाक्य समूह का अर्थ होता है-कपाटोद्घाटन पारिष्ठापनिका श्रादि दोषसहित भिक्षा के द्वारा जो अशुद्ध श्राहार ग्रहण किया हो तो वह पाप मिथ्या हो । अब आप देख सकते हैं कि परिठापना समिति का यहाँ 'परिगृहीतं' के साथ कैसे श्रन्वय हो सकता है ? परिठापना समिति का काल तो परिगृहीतं = ग्रहण करने के बाद भुक्त शेष को डालते समय होता है ? अतएव प्राचार्य नमि यहाँ पारिठापनिका शब्द का वही अर्थ करते हैं जो हमने शब्दार्थ और भावार्थ में किया है-'प्रदानभाजनगत द्रव्यान्तरोज्नर्लक्षणं परिठापनम्, तेन निवृत्ता पारिष्ठापनिका तया ।' अवभाषण भिक्षा
गृहस्थ के घर पहुँच कर साधू को केवल भोजन और पानरूप साधारण भिक्षा ही माँगनी चाहिए। यदि वहाँ किसी विशिष्ट वस्तु की माँग करता है तो वह दोष माना जाता है । साधू को केवल उदर-पूर्त्यर्थ ही भोजन लेना है, फिर वह भले ही साधारण हो या असाधारण । इस महान आदर्श को भूल कर यदि साधू सुन्दर पाहार की प्रवंचना में घरों में अच्छा भोजन माँगता फिरता है तो वह साधुत्व से भी गिरता है साथ ही धर्म की एवं श्रमण संघ की अवहेलना भी करता है। हाँ • अपवाद रूप में किसी विशेष कारण पर यदि कोई विशिष्ट वस्तु किसी परिचित घर से माँगी जाय तो फिर कोई दोष नहीं होता। उद्गम, उत्पादन, एषणा
गोचरचर्या में उपर्युक्त तीन शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । जबतक साधु उक्त तीनों शब्दों का वास्तविक परिचय न प्राप्त कर ले, तबतक गोचरचर्या की पूर्ण शुद्धि नहीं की जा सकती। एषणा समिति के तीन
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