________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
गोचरचर्या सूत्र
गोचर इव चर्यागोचर चर्या' - यह व्युत्पत्ति आचार्य हरिभद्र के द्वारा कथित है । इसका भावार्थ है- जिस प्रकार गाय वन में एक-एक घास का तिनका जड़ से न उखाड़ कर ऊपर से ही खाती हुई घूमती है, अपनी क्षुधा निवृत्ति कर लेती है और गोचर भूमि एवं वन की हरियाली को भी नष्ट नहीं करती है; उसी प्रकार मुनि भी किसी गृहस्थ को पीड़ा न देता हुआ थोड़ा थोड़ा भोजन ग्रहण करके अपनी क्षुधा निवृत्ति करता है । दशवैकालिक सूत्र में इसके लिए मधुकर = भ्रमर की उपमा दी है । भ्रमर भी फूलों को कुछ भी हानि पहुँचाए बिना थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है एवं उसी पर से ग्रात्म तृप्ति कर लेता है । भिक्षा चर्या
For Private And Personal
८७
भिक्षाचर्या का मूलार्थं भिक्षा के लिए चर्या होता है । अर्थात् भिक्षा के लिए भ्रमण करना । श्रावश्यक के टीकाकार श्री हरिभद्र तथा स्थानांग सूत्र के टीकाकार श्री अभयदेव ऐसा ही अर्थ करते हैं । परन्तु प्रतिक्रमण के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य तिलक यहाँ भिन्न अर्थ करते हैं और वह हृदय को लगता भी है। उनका कहना है- 'प्रथम गोचर चर्या में चर्या शब्दभ्रमणार्थक है और यहाँ भिक्षाचर्या में चर्या शब्द भुक्ति = भक्षण का वाचक है ।' अर्थ होगा- ' उपलब्ध भिक्षा का खाना' । भिक्षान्न खाते समय भोजन की निन्दा एवं एक भोजन को दूसरे भोजन में मिलाकर स्वादिष्ट बनाने से जो संयोजन आदि दोषों के प्रतिचार होते हैं, उनकी शुद्धि से तात्पर्य है । "श्राद्यचर्या शब्दो भ्रमणार्थः द्वितीयः पुनः भक्षणार्थः । भिक्षायाः चर्या = भुतिरित्यर्थः " - तिलकाचार्य । कपाटोद्घाटन
साधारण रूप से भी यदि घर के द्वार के किवाड़ बंद हों तो उन्हें खोल कर भोजन लेना दोष है; क्योंकि इससे बिना प्रमार्जन किए उद्घाटन के द्वारा जीव विराधना दोष की सम्भावना रहती है। तथा इस प्रकार आहार लेने से सभ्यता भी प्रतीत होती है । संभव है गृहस्थ घर के अंदर किसी विशेष व्यापार में संलग्न हो और साधु अचानक किवाड़