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श्रमण-सूत्र साधु का जीवन, त्याग वैराग्य का जीवन है। वह स्वयं सांसारिक कार्यों से सर्वथा अलग है । अतः वह स्वयं भोजन न बना कर भिक्षा पर ही जीवनयात्रा का निर्वाह करता है । साधु की भिन्ना, साधारण भिक्षुओं जैसी नहीं होती। उसने भिक्षा पर भी इतने बन्धन डाले हैं कि, इसका एक पृथक साहित्य ही बन गया है । जैन आगम साहित्य का अधिकांश भाग, जैन मुनि की गोचरचर्या के नियमोपनियमों से ही परिपूर्ण है। किसी को किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुँचाए बिना पूर्ण शुद्ध, सात्त्विक; उदर समाता भोजन लेना ही जैन भिक्षा का आदर्श है।
जैन भिक्षु के लिए नवकोटि परिशुद्ध आहार ग्रहण करने का विधान है । नव कोटि इस प्रकार है-न स्वयं पकाना, न अपने लिए दूसरों से कहकर पकवाना, न पकाते हुए का अनुमोदन करना; न खुद बना बनाया खरीदना, न अपने लिए खरीदवाना और न खरीदने वाले का अनुमोदन करना; न स्वयं किसी को पीड़ा देना, न दूसरे से पीड़ा दिलवाना, और न पीड़ा देने वाले का अनुमोदन करना । उक्त नवकोटि के लिए, देखिए स्थानांग सूत्र का नवम स्थान । ___ आप देख सकते हैं-कितनी अधिक सूक्ष्म अहिंसा की मर्यादा का ध्यान रक्खा गया है। भिक्षा के लिए न स्वयं किसी तरह की पीड़ा देना, न दूसरे से दिलवाना, और यदि कोई स्वयं ही साधु को भिक्षा दिलाने के उद्देश्य से किसी को पीड़ा देने लगे तो उसका भी अनुमोदन न करना। हृदय की विशाल कोमलता के लिए, एवं भिक्षा की पवित्रता के लिए केवल इतना सा ही अंश पर्याप्त है। ___ भगवती सूत्र के सातवें शतक के प्रथम उद्देश में भिक्षा के चार दोष बतलाए हैं—क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त ।
१-क्षेत्रातिकान्त दोष यह है कि सूर्योदय से पहले ही आहार ग्रहण कर लेना और सूर्योदय होते ही खालेना । साधु के लिए नियम है
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