________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
गोचरचर्या सूत्र मन सात्त्विक होता है, और तामसिक भोजन करने वाले का मन तामसिक । जो साधक अहिंसा एवं सत्य मार्ग का पथिक है; उसे विकारवर्द्धक उत्तेजक पदार्थों से सर्वथा अलग रहना चाहिए। यह भोजन की द्रव्य-शुद्धि है।
दूसरी ओर भोजन का न्याय प्राप्त होना भी आवश्यक है। किसी को पीड़ा पहुँचा कर अथवा असत्य आदि का प्रयोग करके प्राप्त हुश्रा भोजन, आत्मा को तेजस्वी नहीं बना सकता। तेजस्वी बनाना तो दूर, प्रत्युत आत्मा का पतन करता है और कभी-कभी तो मनुष्यता तक से शून्य बना देता है।
जैन संस्कृति में भोजन के ये दो ही प्रकार हैं, एक वह सात्त्विक होना चाहिए और दूसरे न्याय प्राप्त । एक तीसरा और विशेषण भी है, जो स्पृश्यास्पृश्य व्यवस्था के मानने वालों की ओर से लगाया जाता है । वह विशेषण है-भोजन, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि उच्च कुल का होना चाहिए; शूद्र और अन्त्यज आदि का नहीं। जैन धर्म के तीर्थकर उक्त तीसरे विशेषण में कोई सार नहीं देखते । मानव-मात्र की एक जाति है, उसमें ऊँच-नीच के भेद सर्वथा काल्पनिक हैं । केवल व्यापार-भेद, राष्ट्रभेद अथवा रंग-भेद से मानव जाति में भेदबुद्धि पैदा करना और उसके बल पर आपस में घृणा और द्वष की आग भड़काए रखना, संसार का सबसे भयंकर अपराध है । जैन-सूत्रों का श्राघोष है-'न दीसइ जाइविसेस कोइ'--'जन्म से जाति की कोई विशेषता नहीं देखी जातीउत्तराध्ययन । हम देखते हैं कि गौतम जैसे प्रतिष्ठित मुनि भी उत्तम, मध्यमऔर अधम तीनों कुलों में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं । यद्यपि पश्चात्कालीन टीकाकारों ने स्पृश्यास्पृश्यता के व्यामोह में पड़कर उत्तम मध्यमादि कुलों की व्याख्या, धनी और निधन के भेद पर की है, किन्तु यह व्याख्या स्पष्टतः मूल भावों का अनुसरण नहीं करती। मानवता के नाते केवल भोजन की स्वयं शुद्धता और न्याय प्राप्तता ही अपेक्षित है, फिर भले ही वह भोजन किसी का भी हो-ब्राण का हो अथवा शद्र का हो ।
For Private And Personal