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श्रमण-सूत्र
शब्दार्थ
पडिकमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ साणा = कुत्तो गोयरचरियाए = गोचर-चर्या में वच्छा = बछड़े भिक्खायरियाए %3D भिक्षा-चर्या में ____दाग% बच्चों का
[ दोष कैसे लगे ?] संघट्टणाए = संघट्टा करने से उग्घाड = अधखुले
मडी= अग्रपिण्ड की कवाड - किवाड़ों को
पाहुडियाए = भिक्षा से उग्घाडणाए खोलने से बलि = बलिकर्म की
-'उग्घाडं नाम किंचि थगित' इति जिनदास महत्तराः । २-'मडीपाहुडिया नाम जाहे साधू श्रागतो ताए, म डीए अण्ण मि वा भायणे अग्ग-पिंड उक्कहिताण सेसाश्रो देति ।' इति जिनदास महत्तराः।
३-'बलि-पाहुडिया नाम अग्गिमि छुभति. चउद्दिसि वा अञ्चणितं करेति, ताहे साहुस्स देति ।' इति जिनदास महत्तराः ।
[ मण्डी प्राभृतिका और बलिप्राभृतिका के न लेने का यह अभिप्राय है-'प्राचीन काल में और बहुत से स्थानों में आजकल भी लोकमान्यता है कि जब तक तैयार किये हुए भोजन में से बलि के रूप में भोजन का कुछ अंश अलग निकाल कर नहीं रख दिया जाता, या दिशाओं में नहीं डाल दिया जाता या अग्नि में आहुत नहीं कर दिया जाता, तब तक वह भोजन श्रछता रहता है, फलतः उसे उपयोग में नहीं लाया जाता । बलि निकाल कर अलग न रक्खी हो और इतने में साधु पहुँच जाए तो गृहस्थ पहले दूसरे पात्र में बलि निकाल कर रख लेता है और फिर साधु को भोजन देना चाहता है। परन्तु यह भिक्षा प्रारम्भ का निमित्त होने से ग्राह्य नहीं है। दूसरीबात यह है कि जब तक बलि निकाली न थी, तब तक भोजन का उपयोग नहीं हो रहा था । अब साधु के निमित्त से बलि निकाल ली तो दूसरे लोगों के
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