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গদ্য-শূর
भावार्थ गोचरचर्या रूप भिक्षाचर्या में, यदि ज्ञात अथवा अज्ञात किसी भी रूप में जो भी अतिचार = दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ = उस अतिचार से वापस लौटता हूँ। . [कौन से अतिचार ?] अधखुले किंवाड़ों को खोलना; कुत्त, बछड़े और बच्चों का संघटा स्पर्श करना; मण्डी प्राभृतिका अग्रपिण्ड लेना; बलिप्राभृतिका बलि कर्मार्थ तैयार किया हुआ भोजन लेना अथवा साधु के आने पर बलिकर्म करके दिया हुश्रा भोजन लेना । स्थापनाप्राभृतिका भित्तुओं को देने के उद्देश्य से अलग रक्खा हुआ भोजन लेना । शङ्कित= श्राधाकर्मादि दोषों की शंका वाला भोजन लेनाः सहसाकार शीघ्रता में पाहार लेना; विना एषणा-छानबीन किए लेना; प्राण भोजन-जिसमें कोई जीव पड़ाहो ऐसा भोजन लेना, बीज-भोजन-बीजों वाला भोजन लेना; हरितभोजन-सचित्त वनस्पति वाला भोजन लेना पश्चात्कर्म-साधु को श्राहार देने के बाद तदर्थ सचित्त जल से हाथ या पात्रों को धोने के कारण लगने वाला दोषः पुरःकर्म-साधु को श्राहार देने से पहले सचित्त जल से हाथ या पात्र के धोने से लगने वाला दोष, अदृष्टाहृत-बिना देखा भोजन लेना; उदक संमृष्टाहत-सचित्त जल के साथ स्पर्श वाली वस्तु लेना; रजःसंसृष्टाहत सचित्त रज से स्पृष्ट वस्तु लेना; पारिशाटनिका-देते समय मार्ग में गिरता-बिखरता हुआ पाने वाला भोजन लेना; पारिष्ठापनिका= ' आहार देने के पात्र में पहले से रहे हुए
१-कुछ अनुवादक पारिष्ठापनिका का 'परटने योग्य कालातीत अयोग्य वस्तु ग्रहण करना ।' अथवा 'साधु को बहराने के बाद उसी पात्र में रहे हुए शेष भोजन को जहाँ दाता द्वारा फेक देने की प्रथा हो, वहाँ अय. तना की सम्भावना होते हुए भी आहार ले लेना।' ऐसा अर्थ भी करते हैं।
परन्तु हमने जो अर्थ किया है, उस के लिए प्राचार्य जिनदास महत्तर का प्राचीन आधार है-'पारिठवणियाए तत्थ भायण असण किचि अासी, ताहे तं परिठवेतूण अण्ण देति ।' श्रावश्यक चूर्णि ।
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