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गोचरचर्या-सूत्र
७७
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लन स
पाहुडियाए = भिक्षा से
पारिट्ठावणियाए = पारिष्ठापनिका ठवणा = स्थापना की पाहुडियाए भिक्षा से
श्रोहासण = उत्तम वस्तु माँग कर संकिए =शंकित पाहार लेने से ।
भिक्खाए - भिक्षा लेने से सहसागारे शीघ्रता में लेने से
जं (और) जो श्रणेसणाए -विना एषणा के
उग्गमेण = श्राधाकर्मादि उद्गम लेने से
दोषों से पाणभोयणाए = प्राणी वाले भोजन
उपायण = उत्पादन दोषों से
एसणाए = एषणा के दोषों से घीयभोयणाए = बीज वाले भोजन
श्रमरिसुद्ध-अशुद्ध आहार
परिग्गहियं = ग्रहण किया हो हरियभोयणाए = हरित वाले
बा = तथा भोजन से
परिभुत्त =भोगा हो पच्छाकम्मियाए = पश्चात्कर्म से
जं = (और) जो भूल से लिया पुरेकम्मियाए = पुरःकर्म से
| জুম্মা ক্ষয় अदिछ - अदृष्ट वस्तु के
न-नहीं हडाए - लेने से
परिठवियं = परठा हो तो दग ससट्ठ जल से संसृष्ट
तस्स = उसका हडाए लेने से
दुकडं पाप रय संसठ्ठ २ रज से संसृष्ट
मि= मेरे लिए हडाए = लेने से
मिच्छा - मिथ्या हो पारिसाडणियाए = पारिशाटनिकासे
भोजन के लिए भी छूट हो गई। यह प्रवृत्ति दोष भी साधु के निमित्त से ही होता है। अतः अहिंसा की सूक्ष्म विचारणा के कारण इस प्रकार की भिक्षा जैन मुनि के लिए अग्राह्य है। ]
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