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श्रमण-सूत्र
एक प्रश्न
सूत्रों में दिवाशयन अर्थात् दिन में सोने का निषेध किया गया है । जब दिन में सोना ही नहीं है; तब साधू को इस सम्बन्ध में दैवसिक अतिचार कैसे लग सकता है ? प्रश्न ठीक है । अब जरा उत्तर पर भी विचार कीजिए । जैनधर्म स्याद्वादमय धर्म है। यहाँ एकान्त निषेध अथवा एकान्त विधान, किसी सिद्धान्त का नहीं है । उत्सर्ग
और अपवाद का चक्र बराबर चलता रहता है । अस्तु, दिवाशयन का निषध श्रौत्सर्गिक है और कारणवश उसका विधान प्रापवादिक है । विहारयात्रा की थकावट से तथा अन्य किसी कारण से अपवाद के रूप में यदि कभी दिन में सोना पड़े तो अल्प ही सोना चाहिए । यह नहीं कि अपवाद का आश्रय लेकर सर्वथा ही सयम-सीमा का अतिक्रमण कर दिया जाय ! इसी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर सूत्रकार ने प्रस्तुत शयनातिचार-प्रतिक्रमण-सूत्र का दैवसिक प्रतिक्रमण में भी विधान किया है । वस्तुतः उत्सर्गदृष्टि से यह सूत्र, रात्रि प्रतिक्रमण का माना जाता है।
प्रस्तुत शय्या सूत्रका, जब भी साधक सोकर उठे, अवश्य पढ़ने का विधान है। और शय्या-सूत्र पढ़ने के बाद किसी सम्प्रदाय में एक लोगस्स का तो किसी में चार लोगस्स पढ़ने की परम्परा है ।
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