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श्रमण-सूत्र
से खाली कर ले; ताकि सुषुप्ति दशा में उचित निद्रा पाए, फलतः शरीर भलीभाँति निश्चेष्ट रह कर अपनी श्रान्ति मिटा सके एवं सयम क्षेत्र से बाहर शरीर और मन का विपर्यास भी न हो सके । सोने के लिए बड़ी सावधानी की आवश्यकता है; यदि अधिक चिन्तन के साथ कहें तो जागृत अवस्था की अपेक्षा भी स्वप्नावस्था में जागरूक रहने का अधिक महत्त्व है। प्रकामशय्या
'शय्या' शब्द शयनवाचक है और 'प्रकाम' अत्यन्त का सूचक है ; अतः प्रकाम शय्या का अर्थ होता है-अत्यन्त सोना, मर्यादा से अधिक सोना, चिरकाल तक सोना । यह, शब्दार्थ और भावार्थ में हम प्रकट कर पाए हैं। इसके अतिरिक्त 'प्रकाम शय्या' का एक अर्थ और भी है । उसमें 'शेरतेऽस्यामिति शय्या'-इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'शप्या' शब्द संथारे का, बिछोने का वाचक है, और 'प्रकाम' उत्कट अर्थ का वाचक है। इसका अर्थ होता है-'प्रमाण से बाहर बड़ी एवं गद्देदार कोमल गुदगुदी शय्या ।' यह शय्या साधु के कठोर एवं कर्मठ जीवन के लिए वर्जित है । साधु अाराम लेने के लिए नहीं सोता । प्रतिपल के विकट जीवन संग्राम में उसे कहाँ अाराम की फुर्सत है ? अतः अशक्य परिहार के नाते ही निद्रा लेनी होती है, आराम के लिए नहीं । यदि इस प्रकार की कोमल शय्या का उपभोग करेगा तो अधिक देर तक अालस्य में पड़ा रहेगा, ठीक समय पर जाग न सकेगा; फलतः स्वाध्याय
आदि धर्म क्रियाओं का भली-भाँति पालन न हो सकेगा। निकाम शय्या
प्रकाम शय्या का ही बार-बार सेवन करना, अथवा बार-बार अधिक काल तक सोते रहना. निकाम शय्या है। प्राचार्य हरिभद्र और नमि प्रकाम शय्या और निकाम शय्या के दोनों ही अर्थों का उल्लेख करते हैं । प्राचार्य जिनदास महत्तर का भी यही अभिमत है।
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