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श्रमण-सूत्र
बदलना भी हिंमा ही है ? यदि यह भी हिंसा ही है तो फिर दया और उपकार के लिए स्थान ही कहाँ रहेगा ?
उत्तर में निवेदन है कि मूल पाठ के स्थूल शब्दों पर दृष्टि न अटका कर भाव के गांभीर्य में उतरिए और शब्दों के पीछे रही हुई भाव की पृष्ठभूमि टटोलिए। हिंसा के भाव से, कमय के भाव से, निर्दयता के भाव से यदि किसी जीव को छा जाय अथवा बदला जाय, तब तो हिंसा होती है। परन्तु यदि दया के भाव से. रक्षा के भाव से किसी को छूना और अन्यत्र बदलना हो तो वह हिंसा नहीं है, अपितु संवर और निर्जरा रूप धर्म है। क्रिया के पीछे भाव को देखना श्रावश्यक है। अन्यथा विवेकहीनता और जड़ता का राज्य स्थापित हो जायगा । साधक कहीं का भी न रहेगा । यदि कोई चींटी आदि जीव साधु के पात्र में गिर जाय तो क्या उसे छूएँ नहीं ? और अन्यत्र सुरक्षित स्थान में बदले नहीं ? यदि ऐसा करें तो क्या हिंसा होगी ? आप उत्तर देंगे, नहीं होगी? क्यों नहीं ? तो श्राप फिर उत्तर देगे- क्योंकि कष्ट पहुँचाने का दुःसकल्प नहीं है, अपितु रक्षा करने का पवित्र संकल्प है। अस्तु इसी प्रकार जीव-दया के नाते जीवों को छूने और बदलने में रहे हुए अहिंसारहस्य को भी समझ लेना चाहिए । - प्रस्तुत सूत्र के मुख्य रूप से तीन भाग हैं । 'इच्छामि पडिक्कमिडं इरियावहियाए विराहणाए' यह प्रारंभ का सूत्र अाज्ञा सूत्र है। इसमें गुरुदेव से ऐपिथिक प्रतिक्रमण की श्राज्ञा ली जाती है। 'इच्छामि' शब्द से ध्वनित होता है कि साधक पर बाहर का कोई दबाव नहीं है, वह अपने आप ही आत्म-शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करना चाहता है
और इसके लिए गुरुदेव से आज्ञा माँग रहा है। प्रायश्चित्त और दण्ड में यही तो भेद है। प्रायश्चित में अपराधी की इच्छा स्वयं ही अपराध को स्वीकार करने और उसकी शुद्धि के लिए उचित प्रायश्चित लेने की होती है । दण्ड में इच्छा के लिए कोई स्थान नहीं है। वह तो बलात् लेना ही होगा। दण्ड में दबाव मुख्य है । अतः प्रायश्चित्त जहाँ अपराधी
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