________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
श्रमण-सूत्र
यदि यतना है तो धर्म है, धर्म की रक्षा है, तप है, सब प्रकार का सुख तथा आनन्द है। यतना पूर्वक उचित प्रवृत्ति के क्षेत्र में पाप का प्रवेश नहीं है । एक जैनाचार्य कहता है:
जयणेह धम्म-जणणी,
जयणा धम्मस्स पालिणी चेव । तव - बुढिकरी जयणा,
एगंत - सुहावहा जयणा ॥ -~-यतना धर्म की जननी है, और यतना ही धर्म का रक्षण करने वाली है। यतना से तप की अभिवृद्धि होती है और वह एकान्त रूप में सुखावह = सुख देने वाली है ।
अत्र प्रश्न यह है कि जब साधु गमन करता है, तब अप्रमत्त भाव के कारण उसे पाप तो लगता नहीं है, फिर वह ईर्यापथिक क्रिया का प्रतिक्रममा क्यों करता है ? प्रस्तुत ऐपिथिक प्रतिक्रमण-पाट की क्या अावश्यकता है?
समाधान है कि साधारण मनुष्य प्राखिर मनुष्य है, भूल का पुतला है । यह कितनी ही क्यों न सावधानी रक्खे, आखिर कभी न कभी लक्ष्यच्युत हो ही जाता है। जबतक मनुष्य पूर्ण सर्वज्ञ-पद का अधिकारी नहीं हो जाता, तबतक वह आध्यात्मिक उत्थान के पथ पर अग्रसर होता हुआ, पूरी-पूरी सावधानी से कदम रखता हुआ भी, कभी छोटी-मोटी स्खलनाएँ कर ही बैठता है। छमस्थ अवस्था में 'मैं पूर्ण शुद्ध हूँ' यह दावा करना सर्वथा अज्ञानता पूर्ण है, धृष्टता का सूचक है । __ अतएव जानते या अजानते जो भी दूषण लगे, उन सबका प्रतिक्रमण करना और भविष्य में अधिकाधिक सावधानी से रहकर पापों से बचे रहने का दृढ़ सकल्प रखना, प्रत्येक संयमी मुमुक्षु का श्रावश्यक कर्तव्य है। दोषों को स्वीकार कर लेना, अपने से पीड़ा पाए जीवों से
For Private And Personal