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नाहीं है, कर्म आच्छादित था सो प्रगट व्यक्तिरूप भया है । बहुरि कैसा है ? अन्य जो सर्वथा
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एकांतरूप कुनय ताकी पक्षताकरि अक्षुण्ण कहिये खंडया न जाय है निर्वाध है ।
भावार्थ – जिनदचन स्याद्वादरूप है । सो जहां दोय नयकै विषयका विरोध है, जैसे-सदूप
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होय सो असद्रूप न होय, एक होय सो अनेक न होय, नित्य होय सो अनित्य न होय, भेदरूप फ होय सो अभेदरूप न होय, शुद्ध होय सो अशुद्ध न होय इत्यादि नयनिके विषयनिवि विरोध 卐 है। तहां जिनवचन कथंचित् विवक्षात सत् असद्रूप, एक अनेकरूप, नित्य अनित्यरूप, भेद अभेदरूप शुद्ध अशुद्धरूप जैसें विद्यमान वस्तु है तेसें हिकरे विशेष पिरे है, झूठो कल्पना नाहीं करे 5 है । तातें द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोय नय प्रयोजन के बरातें शुद्ध द्रव्यार्थिक मुख्यकरी निश्चय कहे हैं । अर अशुद्ध द्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिककूं गौणकार व्यवहार कहे हैं। ऐसें जिनवचनविष 5 15 जे पुरुष रमे हैं ते इस शुद्ध आत्माकूं यथार्थ पावे हैं । अन्य सर्वथैकान्ती सांख्यादिक नाहीं पावे हैं। जातै सर्वथा एकान्तपक्षका वस्तु विषय नाहीं । एक धर्ममात्रही ग्रहणकर वस्तुकी असत्य कल्पना करे हैं । सो असत्यार्थही है, बाधासहित मिथ्यादृष्टि है ऐसें जानना । ऐसें बारह गाथामें पीठबन्ध है । आगें आर्य शुद्धनयकूं प्रधानकरि निश्arararaar स्वरूप कहे हैं । जातें 卐
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अशुद्धनय
जो व्यवहारनय ताकी प्रधानता में जीवादितत्त्वनिका श्रद्वानकूं सम्यक्व का है।
तहां तिनही जीवादिककं भूतार्थ जो शुद्धनय तिसकरि जाने सम्यक्त्व होय है ऐसें कहे हैं । तहां 卐 टीकाकार ताकी सूचनिकारूप तीन काव्य कहे हैं । तिनिमैं पहले काव्यमें कहे हैं जो व्यवहार
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5 नयकूं कथंचित् प्रयोजनवान् कह्या तौऊ यह कछू वस्तूभूत नाहीं है ।
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मालिनी छन्दः
व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलंबः ।
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तदपि परममर्थं चिचमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतां नैप किंचित् ॥ २ ॥
अर्थ — व्यवहारनय है सो यद्यपि इस पहिली पदवी जो शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति जेतें न होय
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