Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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द्रव्यानुयोगी विद्वानों की बढ़ोतरी के साथ करणानुयोगी विद्वान् दुर्लभ हो रहे हैं। आपका तत्त्व-चिन्तन आपके ही अनुरूप था।
आपके साथ मेरी तत्त्वविचारणा शतशः हुई थी । आपका तत्त्वचिन्तन विद्वानों द्वारा अनुग्राह्य है। सरलभावना से सरलभाषा में श्रोताओं को शास्त्र का अमृतपान करा देना आपकी अनुपम शैली रही। वय के साथ ज्ञान की वृद्धि आप में उत्तरोत्तर हुई।
मैं जिन शास्त्र के आराधक स्व० मुख्तार सा० को अपनी हार्दिक विनयाञ्जलि अर्पित करता हूँ।
विशिष्ट मेधावी प्रज्ञातिशायी मुख्तार साहब .
* श्री मिश्रीलाल शाह जैन शास्त्री, हाल मु० बाड़ा-पद्मपुरा जयपुर (राज.)
श्री विद्वद्वर्य, सिद्धान्तविशेषज्ञ, महामना ब्र० रतनचन्दजी सा० जैन, मुख्तार, ( सहारनपुर ) एक महनीय व्यक्तित्व के धनी थे। श्री स्व० १०८ श्री शिवसागरजी व आचार्यकल्प १०८ श्रुतसागरजी महाराज के संघ के दर्शनार्थ लाडनू से जाते समय आपसे मेरा पर्याप्त सम्पर्क रहा। एवमेव आलाप-संलाप भी समय-समय पर होता रहता था। आप परम सैद्धान्तिक विद्वान् होते हुए भी चारित्रवान थे। विद्वत्ता के साथ चारित्र का मेल-जोल अपने आपमें अतिशय महान् समझा जाता रहा है। आप सौम्य प्रशान्त और मृदुभाषी थे । 'शंका-समाधान' प्रसंग में तो आपका नाम विशेष उल्लेखनीय है। त्यागीवर्ग एवं विद्वद्गण आपके इस तीक्ष्ण क्षयोपशम व प्रखर प्रतिभाशक्ति की आज भी सराहना करते हैं। आपकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि आप हरेक शंका का समाधान आगम प्रमाण पुरस्सर ग्रन्थ का अध्याय, श्लोक संख्या आदि का विवरण देते हुए करते थे, जिससे पाठक का मन निर्धान्त हो जाता था।
आपने तिलोयपण्णत्ति, गोम्मटसार, धवल, जयधवल, महाधवलादि ग्रन्थों का प्रौढ़ स्वाध्यायपूर्वक मनन किया था। चातुर्मासों में मुनिसंघों में आपकी उपस्थिति से जटिल गूढ़ शंकाओं का समाधान, संघस्थ साधू जनों की सरस वीतराग कथा में पारस्परिक उत्तर प्रत्युत्तर से हुआ करता था। आपके सम्पर्क से सभी को तत्त्व ज्ञान का लाभ मिलता था।
श्री १०८ आचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज व श्री १०८ अजितसागरजी महाराज बहुत व्युत्पन्न, मर्मज्ञ, श्रुतसेवी व श्रुताभ्यासी हैं, सतत श्रुताराधन में दत्तचित्त रहते हैं। मुख्तार सा० भी विशेषकर उक्त संघों में रहकर धर्मध्यान और विशिष्ट चारित्राराधन में अपना समय लगाते हुए परमशान्ति का अनुभव किया करते थे।
वर्षों तक जैन संसार को लाभ देकर मुख्तार सा० सन् १९८० में अपनी प्रज्ञाज्योति के साथ इस जगत से चल बसे। यदि यह प्रज्ञाज्योति और प्रज्वलित रहती तो हम अपने अज्ञान तिमिर का विशेष क्षय कर पाते। आपको शान्ति का लाभ हो। यही कामना है।
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