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प्रस्तावना
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(६) संयमासंयमलब्धि में संयमासयम से गिरनेवाले देशसंयतका वर्णन इस प्रकार से
किया गया है
पृ० ६६३, सू० ३२. जदि संजमा संजमादो पडिव दिदू गुंजाए मिच्छत्तं गंतू तदो संजमासंजमं पडिवजह अंतोमुहुत्तेण वा विप्पकट्ठेय वा कालेय, तस्स वि संजमा संजमं पडिवज्जमाण्यस्स एदाणि चैव करणाणि कादव्वाणि ।
इन चूर्णिसूत्रों का मिलान कम्मपयडीचूर्णि से कीजिए -
पु
भो
देसविरतितो विरतीतो वा वि पडियो आभोएणं मिच्छत्तं गंतु पुणो देसविरतिं वा विरतिं वा पडिवज्जेति अंतोमुहुचेणं वा विगिट्ठेण वा काले तस्स पडिवज्जमाणस्स एयाणि चैव करणाणि गियमा काऊ पडिवज्जियन्त्रं ।
( उपशमनाकरण, पृ० २२ )
पाठकगण दोनोंकी समताका स्वयं अनुभव करेंगे। जो थोड़ासा भेद 'विरति' पदका है, उसका कारण यह है कि कम्मपयडी में देशविरति और सर्वविरतिका एक साथ वर्णन किया गया है, जब कि कसायपाहुडचूर्णि में ये दोनों अधिकार भिन्न-भिन्न हैं ।
(१०) चारित्रमोहकी उपशमना करनेके लिए वेदकसम्यग्दृष्टिको पहले अनन्तानुबन्धीकषायकी विसंयोजना करना आवश्यक है । इसका वर्णन कसायपाहुडचूर्णि में इस प्रकार किया गया है
पृ० ६७८, सू० ४. वेदयसम्माहट्टी प्रतारणुबंधी विसंजोएदू कसा उवसामेदुं णो उट्ठादि । ५ सो ताव पुव्वमेव श्रताणुबंधी विसंजोएदि । ६. तदो ताणुबंधी विसंजोएंतस्स जाणि करणाणि ताणि सव्वाणि परूवेयव्वाणि ।
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अब इसी बातको कम्मपयडी चूर्णिमें किस प्रकार कहा गया है सो उसे भी देखिए - चरित्तुवसमणं काउंकामो जति वेयगसम्मद्दिट्ठी तो पुवं अताणुबंधियो नियमा विसंजोएति । एएण कारणेण विरयागं अगंताणुबंधिविसंजोयणा भन्नति । ( कम्मप० उपश० पृ० २३ )
यहां यह बात ध्यान में रखनेके योग्य है कि श्वे० आचार्य चारित्रमोहकी उपशमना करनेवालेके लिए अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना आवश्यक नहीं समझते हैं, तव कम्मपयडीचूर्णि और कसायपाहुडचूर्णिकार दोनों इस विषय में एक मत हैं और उनकी यह मान्यता दि० मान्यता के सर्वथा अनुरूप ही है ।
(११) दर्शनमोहक्षपणाके प्रस्थापक जीवके अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करने के प्रथम समयकी क्रियाओंका वर्णन कसायपाहुडचूर्णिमें इस प्रकार किया गया है
पृ० ६४६, सू० ४०. पढमसमय- प्रणिय ट्टिकरणपविट्ठस्स अपुत्रं द्विदिखंडयमपुव्वमणुभागखडयमपुव्वो द्विदिवधो, तहा चेव गुणसेढी । ४१. ऋणिय ट्टिकरणस्स