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कचुल-केश -छन्द-पु० वह छन्द जिसके चरणोंकी मात्राएँ बराबर जो पुराणों के अनुसार सहिकेय राक्षसका कबंध है और न हों, रबर छंद ।
जिसका सिर राहु हुआ; पुच्छल तारा; श्रेष्ठ ('रघुकुल. कैचुल-स्त्री० दे० 'केचुली।
केतु'); चमक किरण । कचुली-स्त्री० साँपकी त्वचा जो जाड़ेमें सूखकर अपने आप केतुमान(मत्)-वि० [सं०] ध्वजयुक्त चिह्वयुक्त तेजस्वी । खोलकी शकलमें गिर जाती है। मु०-झाड़ना-साँपका केतो*-वि० 'कितना' । केंचुली छोड़ना। -बदलना-केंचुली झाड़ना; वेशभूषा केदार-पु० [सं०] धानका खेत; कियारी; थाला; हिमालयबदलना।
की एक चोटी। -नाथ-पु० केदार पर्वतपर प्रतिष्ठित केंदु-पु० [सं०] तेंदूका पेड़।
एक शिवलिंग। कदू-पु० दे० 'केंदु'।
केदारा-पु० एक राग। केंद्र-पु० [सं०] वृत्तका मध्य विदु जहाँसे परिधिको प्रत्येक केन-पु० [सं०] ११ प्रधान उपनिषदों से एक । विंदुकी दूरी एक ही हो (सेंटर); नाभि, मध्यवती स्थान; | केना*-पु० अनाज देकर खरीदी जानेवाली चीज । मुख्य स्थान; किसी वस्तुके उत्पादन, वितरण, प्रसारका केम, कैम-पु० कदंब । . स्थान, 'सेंटर'; जन्मकुंडली में लग्नका तथा चौथा, केयर-पु० [सं०] बिजायठ, भुजबंद; एक रतिबंध । सातवाँ और दसवाँ स्थान । -ग,-गामी (मिन्)-वि० केर*-प्र० का; के । पु० केला । केंद्रकी ओर जानेवाला ।-स्थ-वि० केंद्र स्थित । केरल-पु० [सं०] आधुनिक भलावार । केंद्रापसारी (रिन)-वि० [सं०] केंद्रसे दर जानेकी | केरा*-प० केला।। प्रवृत्तिवाला । -शक्तियाँ-स्त्री० (सेंट्रिफ्यूगल फोर्सेज )| केराना-पु० दे० 'किराना। केंद्रसे दूर हटानेवाली शक्तियाँ ।
| केराव -पु० मटरकी जातिका एक कदन्न । केंद्राभिमुख-वि० [सं०] केंद्र की ओर जानेकी प्रवृत्तिवाला । | केरि*-प्र० की । स्त्री० केलि । केंद्राभिसारी (रिन्), केंद्रोन्मुख-वि० [सं०] केंद्रकी | केरी*-प्र० की।
ओर जानेवाला । -शक्तियाँ-स्त्री० (सेंट्रिपेटल फोर्सेज) केला-पु० एक प्रसिद्ध फलवृक्ष, कदली; उसका फल । केंद्र की ओर ले जानेवाली शक्तियाँ।
केलि-स्त्री० [सं०] क्रीड़ा; कामक्रीड़ा, रति; हंसी-मजाक केंद्रित-वि० [सं०] केंद्र में स्थित स्थानविशेषमें एकत्रीभूत ।। धरती। -कला-स्त्री० केलि-कुशलता; कामकला; सरकेंद्रीकरण-पु० [सं०] केंद्रित करना, एक जगह लाना; स्वतीकी वीणा। -गृह,-निकेतन,-मंदिर-सदनजमा करना; एक हाथमें, एक व्यवस्थामें लाना ।
पु० रतिगृह; क्रीड़ागृह । केंद्रीभूत-वि० [सं०] 'कोदित' ।
केवका-पु. प्रसूताको दिया जानेवाला मसाला । केंद्रीय-वि० [सं०] केंद्र-संबंधी; केंद्रमें स्थित; मुख्य । | केवट-पु० कैवर्त, मलाह । -आवास-मंडल-पु० ( सेंट्रल हाउसिंग बोर्ड ) नये-नये | केवटी-स्त्री० दो या अधिक प्रकारकी दालें मिलकर पकायी आवासों (धरों)का निर्माण कराने के लिए स्थापित केंद्रीय हुई दाल । संस्था। -करण-५० (सेंट्रलाइ दोशन) एक स्थान या केवडई-पु० एक तरहका रंग जो केवड़ेके रंगसे मिलता केंद्रपर लाना, पद्रित करना, जमा करना; एक हाथमें, है। वि० केवड़ेके रंगका । एक व्यवस्था लाना।
केवडा-५० एक पौधा जिसका फूल अपनी सुगंधके लिए के-प्र० 'का' विभक्तिका बटुव वन रूप ।। सर्व० कौन। प्रसिद्ध है, सफेद केतकी; उसका फूल या फूलका अर्क । केटा-सर्व० कोई।
केवराज-पु० दे० 'केवड़ा'। केउर*-पु० दे० 'केयूर' ।
केवल-वि० [सं०] असंग, अकेला; संपूर्ण शुद्ध; अमिश्र । केकड़ा-पु. एक गोलाकार क्षुद्र जलतु जिसके आठ टाँगे अ० सिर्फ, मात्र । होती है।
केवलात्मा(मन्)-पु० [सं०] ईश्वर; शुद्ध स्वभाववाला केकय-पु० [सं०] एक प्राचीन जनपद, आधुनिक कका | मनुष्य । (कश्मीर); उस देशका निवासी ।
केवली(लिन्)-पु० [सं०] केवल शानवाला, मुक्तिका केकयी-स्त्री० [सं०] भरतकी माता कैकयी।
अधिकारी साधु । केका-स्त्री० [सं०] भोरकी बोली।
केवाँच-स्त्री० दे० की च'। केकी (किन् )-पु० [सं०] भोर ।
केवा-पु० कमल-'भौर खोज जस पावै केवा'-५०%; केचित्-सर्व० [सं०] कोई कोई-कोई ।
केवड़ा; बहाना; संकोच । केड़ा-पु० कोपल, कल्ला; नवयुवक (ला)।
केवाड़-पु० दे० 'किवाड़' । केत-पु० [सं०] घर, स्थान; पताका; * केतकी। केश-पु० [सं०] सिरके बाल; बाल; घोड़े या सिंहकी गर. केतक-पु० [सं०] केवड़ा । * वि० कितना बहुत । दनपरके बाल; किरण; एक गंधद्रव्य; विष्णु; वरुण । -कर्म केतकी-स्त्री० [सं०] एक फूल, केवड़ा।
(न)-पु० बाल सँवारना, कंघी-चोटी; मुंडन ।-कलाप-- केतन-पु० [सं०] धर; स्थान; निमंत्रण पताका; चिह्न ।। पु० केश-राशि। -कीट-पु० जूं । -पाश-पु. केशकेता, केतिक*-वि० कितना।
समूह; लटकती हुई लटें ।-प्रसाधनी-स्त्री०,-मार्जककेतु-पु० [सं०] पताका चिह्न; सौर मंडलका नवाँ ग्रह पु० कंधी । -बंध-पु० जूड़ा बाँधनेका फीता आदि ।
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