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व्यावहारिक-व्रज्या व्यावहारिक-वि० [सं०] साधारण जीवन, व्यवहार, व्यतिक्रम, क्रमभंग; अस्तध्यस्तता; अपराध; मृत्यु । कार्य-संबंधी; व्यवहार में आने लायक प्रचलित; वास्तविक व्युत्थान-पु० [सं०] सचेष्टता, सक्रियता; विरोधमें उठना; मिलनसार, मुकदमा-संबंधी । -ऋण-पु. व्यवसाय | (रिवोल्ट, अपराइजिंग) राजा या राज्यशासकके विरुद्ध आदिके लिए लिया हुआ ऋण ।
उठ खड़ा होना। व्यावृत-वि० [सं०] खुला हुआ, अनावृत; ढका हुआ, व्युत्पत्ति-स्त्री० [सं०] उत्पत्ति; मूल, उद्गम; शब्दका परदा किया हुआ; हटाया हुआ, पृथक् किया हुआ; अप- | | मूल रूप; बाद, विकास; दक्षता प्रगाढ पांडित्य ।-रहितवाद किया हुआ।
वि० जिसका मूल रूप अशात हो। व्यावृति-स्त्री० [सं०] आवृत करना, ढकना पृथक् करना, व्युत्पन्न-वि० [सं०] उत्पादित; मूल रूपसे बनाया हुआ; छाँटना; अनावृत करना (?) ।
जिसकी व्युत्पत्ति की गयी हो पूरा किया हुआ; पूर्ण पंडित । व्यावृत्त-वि० [सं०] हटा हुआ; अलग किया हुआ, छाँटा व्युत्पादक-वि० [सं०] उत्पन्न करनेवाला; शब्दकी हुआ; अविद्यमान; चक्कर खाया हुआ; परवेष्टित; विरता| व्युत्पत्ति करनेवाला। विभक्त भिन्न; तोड़ा-मरोड़ा हुआ; लौटा हुआ; असंगत; | व्युपदेश-पु० [सं०] बहाना, ठगी । मुक्त; गत, लुप्त पसंद किया हुआ घेरा हुआ; प्रशंसित । | व्यूढ-वि० [सं०] फैला हुआ; विकसित; दृढ़, व्यवस्थित व्यावृत्ति-स्त्री० [सं०] मुँह मोड़ना; घेरना; पीछेकी ओर व्यूहबद्ध जिसका स्थान परिवर्तित हो गया होविवाहित । लुढ़काना; घुमाना (नेत्रादि); आवृत्ति; छुटकारा, मुक्ति व्यूह-पु० [सं०] यथास्थान, विधिपूर्वक रखना; सैनिकोंको वंचित होना, छोड़ दिया जाना; हटाया जाना; भेद, युद्धभूमिमें यथोचित स्थान पर रखना; अलग करना, अंतर, पार्थक्य; स्पष्टता; भिन्नता; विराम, अंत; एक | विभाग करना; स्थान-परिवर्तन रचना, समूह; शरीर । प्रकारका यज्ञ; ढकना; प्रशंसा, स्तुति; खंडन; पसंद; -भंग,-भेद-पु० सैनिकोंका यथास्थान न रहना, अविद्यमानता।
सेनाका छिन्न-भिन्न होना। -रचना-स्त्री० सैनिकोंको व्यासंग-पु० [सं०] अत्यधिक आसक्ति; प्रबल इच्छा; यथास्थान रखना। भक्ति; अध्यवसायपूर्ण अध्ययन; मनोयोगः पार्थक्य, | व्यूहन-पु०[सं०] व्यूहकी रचना,सैनिकोंको विशेष स्थितिमें बिलगाव, घबड़ाहट; योग, जोड़ ।
रखना; शरीरके अंगोंकी बनावट; स्थानपरिवर्तन । व्यास-पु० [सं०] पार्थक्य अंगोंमें विभाग करना; समस्त व्यूहित-वि० [सं०] व्यूहबद्ध । पदके अंगोंको अलग-अलग करना; मिश्र पदार्थ आदिका व्योम(न्)-पु०[सं०] आकाश अवकाश; शरीरस्थ वायु । विश्लेषण चौड़ाई केंद्रसे होती हुई दोनों ओर परिधिपर | -केश,-केशी(शिन)-पु. शिव । -गंगा-स्त्री० समाप्त होनेवाली रेखा अथवा दूरी (डाइमीटर); आकाशगंगा । -ग,-गामी(मिन्)-वि० गगनचारी । विस्तार; विस्तृत विवरण; एक उच्चारण-दोष; संकलन पु०देवता आदि ।-गमनीविद्या-स्त्री०आकाशमें उड़नेकी करना; संकलनकर्ता एक मुनि, कृष्णद्वैपायन (ये सत्य- विद्या । -चर-वि० गगनचारी। पु० तारा इत्यादि । वतीके गर्भसे पराशरसे उत्पन्न हुए थे। पांडु, धृतराष्ट्र -चारी(रिन्)-वि० दे० 'व्योम-ग' । पु० पक्षी और विदुर नियोग द्वारा इन्हींसे उत्पन्न हुए. थे। इन्होंने देवता; संत; ब्राह्मण; आकाशीय पिंड। -पुष्प-पु. वेदोंका वर्तमान रूपमें संकलन किया और महाभारत, असंभव वस्तु ।-यान-पु० वायुयान, विमान ।-रत्नवेदांतसूत्र तथा १८ पुराणोंकी रचना की); रामायण, पु० सूर्य । -वर्म(न)-पु० आकाश-मार्ग -सरितामहाभारत आदिको कथाएँ लोगोंको सुनानेवाला ब्राह्मण, स्त्री० [हिं०] आकाशगंगा। -सरित्-स्त्री० आकाशकथावाचक । -कूट-पु० महाभारतमें आये हुए कूट- गंगा। -स्थली-स्त्री० पृथ्वी, भूमि । श्लोक वे कूट-श्लोक जो रामने माल्यवान् पर्वतपर रहते ब्रज-पु० [सं०] मार्ग, सड़क; गमन, भ्रमण; समूह, झुंड; समय मनबहलावके लिए रचे थे।-देव-पु० बादरायण, गोस्थान, गोष्ठ; मथुर।के पासका एक स्थान; गोपोंकी कृष्णद्वैपायन । -पूजा-स्त्री० गुरु और ध्यासकी पूजा बस्ती। -किशोर,-नाथ-पु० कृष्ण । -भाषा-स्त्री. जो आषाढ़ी पूर्णिमाको होती है। -माता (त),-सू- मथुरा आदिकी तरफ बोली जानेवाली एक बोली जो कई स्त्री० सत्यवती।
सौ वर्षों तक हिंदी काव्यकी मुख्य भाषा रही है। -भूव्यासक्त-वि० [सं०] अत्यधिक आसक्त संबद्ध संलग्न । वि० व्रजमें उत्पन्न । स्त्री व्रजमूमि । -मंडल-पु. व्रजध्यासार्द्ध-पु० [सं०] केंद्रसे परिधितककी दूरी।
का क्षेत्र । -मोहन,-राज,-वल्लभ-पु० कृष्ण । व्यासासन-पु० [सं०] कथावाचकका आसन ।
-युवती,-रामा -वधू-वनिता,-सुंदरी, -स्त्रीग्यासिद्ध-वि० [सं०] निषिद्ध वर्जित (माल)।
स्त्री० गोपिका। व्यासेध-पु० [सं०] निषेध; वर्जन रोक, प्रतिबंध । व्रजक-पु० [सं०] भ्रमण करनेवाला संन्यासी । व्याहत-वि० [सं०] चोट पहुँचाया हुआ; निवारिता | वजन-पु० [सं०] गमन, भ्रमण; देशत्याग । निषिद्ध व्यर्थ; परस्पर विरोधी ।
वजांगना-स्त्री० [सं०] ब्रजकी रहनेवाली स्त्री; गोपी । व्याहृति-स्त्री० [सं०] उक्ति कथन; भूः, भुवः आदि ब्रजेंद्र, ब्रजेश, ब्रजेश्वर-पु० [सं०] कृष्ण । सप्तलोकात्मक मंत्र (किसी-किसीके मतसे इसके आरंभिक व्रज्या-स्त्री० [सं०] भ्रमण गति; संन्यासीके रूपमें भ्रमण तीन मंत्र) जिनका जप संध्या करते समय किया जाता है। करना; कूच, आक्रमण; श्रेणी, वर्ग; वगीकरण; समूह व्युत्क्रम-पु० [सं०] सन्मार्गका त्याग; अतिक्रमणः | रंगभूमि।
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