Book Title: Gyan Shabdakosh
Author(s): Gyanmandal Limited
Publisher: Gyanmandal Limited
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ढ
ढरकहाँ* - वि० ढरक जानेवाला, अनुकूल - 'ढरको हैं देखि विवस बकि परी मौन' - घन० । ढरहरा* - वि० अनुकूल, द्रवीभूत- 'कहा कहौं कृपाकी दरनि ढरहरे हौं' - घन० ।
ढलवारि* स्त्री० हँसी-ठट्ठा । ढाठी - स्त्री० 'ढट्ठी' ।
ढिल्ली*-स्त्री० दिल्ली नामकी प्राचीन नगरी । - वै-पु०
दिल्लीपति ।
ढौरी* - स्त्री० ढंग, ढब - 'गौरी गाय ढौरी सों बुलावें गौरी
गायको - घन० ।
ढौली* - स्त्री० दे० 'ढौरी' ।
ढिल्लेस * - पु० दिल्लीश्वर, दिल्लीपति ।
ढी + स्त्री० (नदी, नालोंका ) ऊँचा किनारा ।
बैँक - पु० दे० 'झोझ' ।
|
ढेलेबाज - पु० ढेला फेंककर मारनेवाला; ढेलेसे निशाना मारनेवाला ।
तुबक* - स्त्री० दे० 'तुपक' (तोप) ।
तुल्ल* - वि० तुल्य, बराबर । तुसाडाँ* - सर्व० तुम्हारा ।
तूल-तूफान - पु० हो-हल्ला उत्पात । तृकुटी * - स्त्री० दे० 'त्रिकुटी' | तेली+ - स्त्री० पेउसी (बुंदेल०) । तैडा* - सर्व० तेरा ।
तबलावादक - पु० तबला बजानेकी कला जाननेवाला, तबलिया, तबलची ।
ਰ
तंत्रवाद्य - पु० [सं०] वीणा, सारंगी आदि तारवाले बाजे, तोन* - पु० तूण, तूणीर । तंतुवाद्य ।
त्रसरैनि* - स्त्री० दे० ' त्रसरेणु' |
तँवारा* - पु० दे० 'तँवारी' ।
त्रिवृता - स्त्री० [सं०] एक लता, निसोथ, त्रिवृत् ।
तखड़ी, तखरिया - स्त्री० तराजू ।
थ
ततूरी + - स्त्री० पैरों में तप्त भूमिके स्पर्श या गरम धूल लग जानेके कारण होनेवाली तापकी अनुभूति - 'मजदूर लू और ततूरी में काम कर रहे थे' - मृग० । (संस्कृत 'ततुरि'
= अग्नि 1)
सनजेब - पु० दे० ' तंजेब' |
तबलावादन - पु० तबला बजानेका कार्य या कला ।
तबेली* - स्त्री० दे० 'तलबेली' |
तयना* - स० क्रि० तपाना, संतप्त करना - 'आनंद घन जग सुनस छाइकै पतित पपीहै निपट न तैयै' । तरेड़-स्त्री० दरार-‘आत्मविश्वास में संदेह की तरेड़ डाल दी' - जिंदगी० ।
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ढरकहाँ - दच्छिनता
तिमिर* - पु० तैमूर - 'तिमिर-बंस- हर अरुनकर आयो सजनी भोर' - भू० ।
तिलक - पु० [सं०] किसी ग्रंथपर लिखी गयी टीका या भाष्य - 'स्वतंत्र ग्रंथ नहीं, टीकापर टीका, तिलकपर तिलक, लिखे जा रहे थे' - हजारीप्र० ।
तिलोनी * - वि० स्त्री० फुलेल से सुगंधित - 'अंग अति लोनी लसै ललित तिलोनी सारी' - घन० ।
तिस* - स्त्री० तृष्णा, लालसा; प्रेम- 'तिस उपजावति प्यासहि नासि' - घन० ।
ती* - अ० क्रि० थी- 'बिरंचि बिचारि कै जाति रची ती'घन० ।
तुजनूँ *
* - सर्व० तुझको ।
तरेरना* - स० क्रि० थपेड़ा देना - 'उपावकी नाव तरेरति तोरति' - घन० ।
थंभा* - पु० दे० 'थंभ' |
थरसना* - अ० क्रि० त्रस्त होना, थहरना - 'आवरी बावरी है धरसै' - घन० ।
थाँवरा* - पु० दे० 'थाँवला' (थाला ) ।
था कि * - स्त्री० थकावट, क्लांति - 'कबीर हरिरस यों पिया, बाकी रही न थाकि' - साखी ।
थावरा* - पु० थाला ।
थुथराई* - स्त्री० थोड़ा होना, कम पड़ना - ' जान मद्दागरु-गुन मैं घन आनँद हेरि रह्यौ थुथर । ई' - घन० । थुथराना * - अ० क्रि० थोड़ा होना, कम पड़ना । थूमा-पु० लकड़ीका अनगढ़ खभा, टेक । थेगली * - स्त्री० कंथा; दे० 'थिंगली' ।
द
दंगह* - वि० दंग करनेवाला, अद्भुत (रासो) । दंतचिकित्सक - पु० [सं०] ( डेंटिस्ट) दाँतोंकी चिकित्सा करनेवाला तथा हिलते, टूटे दाँत उखाड़ने, नकली दाँत लगानेवाला ।
व्याकुलता - 'परम मरम
तवा - पु० छातीके बचावका साधन जो तवेके आकारका होता है - 'योधा झिलमटोप और तवे चढ़ाये हुए थे' - मृग० । तापतौटी* - स्त्री० तापजन्य अपरस तापतौटीके' - घन० । तामियाँ - वि० ताँबे जैसा, लाल, तामड़ा । तारक - पु० [सं०] छपाईमें तारे जैसा चिह्न (*); दे० मूलमें ।
तारा* - पु० ताला - 'टरें टारै नहीं तारे कहूँ सु लगे मनमोहन-मोहके तारे' - घन० दे० मूल में | तिगलिया + - पु० वह स्थान जहाँ तीन रास्ते या तीन दच्छिनता* - स्त्री० दक्षिणता, अपनी सभी नायिकाओंसे गलियाँ आकर मिलती हों, तिराहा ।
समान प्रेम रखनेका गुण ।
दंतचिकित्सा - स्त्री० [सं०] (डेंटिस्ट्री) दाँतों की दवा करनेकी विद्या या कला ।
दईजार - वि० (दैव द्वारा जलाया हुआ), अभागा, शैतान (स्त्रियों द्वारा गालीके रूपमें प्रयुक्त - 'सबेरे ही दईजारी मशीनों को देखने निकली' - अमर०) ।
दगाती* - वि० दगाबाज- 'छल बल करि नहिं काहू पकरत दौरि दगाती' - घन० ।
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