Book Title: Gyan Shabdakosh
Author(s): Gyanmandal Limited
Publisher: Gyanmandal Limited
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अनसह
आदिका पालन न करना । अनसह* - वि० दे० 'अनसहत' । अनिमेखी* - अ० निरंतर ! अनिस* - अ० अनिश, लगातार, अहर्निश - 'कृस्नकथा आनंद-रसायन | गावत अनिस ब्यास द्वैपायन' - घन० । अनुपयोगिता - स्त्री० [सं०] उपयोगी न होना, निर र्थकता ।
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अनुबंध - पु० [सं०] (कंट्रैक्ट, कंट्रैक्टका फार्म) बंधनपत्र, शर्तनामा, - 'लेखकों और प्रकाशकों के बीच एक आदर्श अनुबंधका मसविदा प्रकाशित किया' - 'आज' । अनुमानतः ( तस् ) - अ० [सं०] अनुमानसे । अनुरणित - वि० [सं०] प्रतिध्वनित; झंकृत | अनेही * - वि० अस्नेही, जो स्नेह न करे । अनोट- पु० पैर के अँगूठेका एक आभूषण, अनवट । अनौँठा * - वि० अनूठा । [स्त्री० अनौठी ] । अपछरी* - स्त्री० अप्सरा, देवांगना ।
दरै न ढरै' - धन० ।
अपरस * - वि० अलिप्त, अनासक्त, दूर - 'अपरस रहत
• सनेह तगातें नाहिन मन अनुरागी' - सूर; नीरस ।
अभिनै* - पु० दे० 'अभिनय' ।
अभिरक्ष्य - पु० [सं०] (वार्ड) दे० 'प्रपन्न' | अमग्ग* - पु० अमार्ग, कुपथ ।
अमरभनित* - पु० देववाणी ।
अवगरा* - वि० सूझबूझवाला । अवगरी* - वि० स्त्री० बुद्धिमती ।
अपढार* - वि० बेढंगे तरहसे ढलनेवाला - 'अस जो अपठार अवगहना * - स० क्रि० थहाना |
अवधनरेश- पु० [सं०] दे० 'अवधेश' |
अमली - वि० दे० मूल में । मु० - जामा पहनाना - कार्यरूप देना, कार्यमे परिणत करना । अमिलताई * - स्त्री० अम्लता, खटाई, कपट, दूर-दूर रहने का स्वभाव - ' मिलत न क्यौं हूँ भरे रावरी अमिलताई '
अमूमन् - अ० अनुमानतः ; बहुत करके ।
अमेँड * - वि० मर्यादारहित ।
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अप्पान* पु० अपान, अपनापन, आत्मज्ञान ।
अफनाना - अ० क्रि० ऊब उठना, घबराना, साँस रुकने अवसरवादिता - स्त्री० [सं०] अवसर से लाभ उठानेकी
जैसा अनुभव होना; दे० मूलमें ।
अबर* - वि० अपर, अन्य ।
अमँडई * - स्त्री० शरारत ।
अमैदा* - वि० मर्यादा न माननेवाला - ' आपनो आनन जान अमै ड़े' - घन० ।
अरबरानि* - स्त्री० घबराहट, हड़बड़ी- 'लोचै वही मूरति
अरबरानि आवरे' - घन० । अरबीला * - वि० अड़ियल, अड़नेवाला - 'घूमत घुरत अरबीले न मुरत' - घन०; दे० मूलमें ।
अरीझना * - अ० क्रि० उलझना, बँध जाना ।
अरुड - वि० रुष्ट, जो रूठ गया हो ।
अरुणाभ - वि० [सं०] लाल आभायुक्त, लालिमा लिये
निहित हो ।
अर्द्धांगी (गिन् ) - पु० [सं०] पक्षाघातका रोगी, वह जिसे लकवा मार गया हो; दे० मूल में । अलकलड़ा* - वि० दे० 'अलकलड़ता' । अलल्ल* - पु० घोड़ा (रासो) । अलानाहक - अ० नाइक, व्यर्थं । अलेख* - पु० अदृश्य, निराकार ब्रह्म- 'भूल्यों कहा तू अलेखद्दि लेखि लै' - घन०; देवता- 'सितासित अरुनारे पानिपके राखिबेकौं तीरथके पति हैं अलेख लखि हारे हैं' - दास ।
हुए ।
अल* - वि० दे० 'अड़ियल' ।
अर्थ नर्भ - वि० [सं०] अर्थपूर्ण, जिसमें विशिष्ट अर्थ
अल्पजनतंत्र - पु० [सं०] थोडेसे लोगों द्वारा शासित राज्य । अल्लोल* - वि० लोल, चंचल ।
अवक्षयकोष - पु० [सं०] (डिप्रीशियेशन फंड) दे० 'मूल्यहास कोष' (घिसाई कोष) ।
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अवधारना - स० क्रि० दे० मूलमें; मानना - 'उपजे जाँ जिय दुष्टता सु असूया अवधारु' - भाव० । अवसन - वि० [सं०] वस्त्रहीन, विवस्त्र |
- घन० ।
अमीच * - अ० बिना मृत्युके ही- 'सुख या दुख-बीच अहप्पति* - पु० अधिपति, शेषनाग । अमीच मरै' - घन० ।
अहागति * - स्त्री० आनंदकी स्थिति ।
प्रवृत्ति ।
अशोक - पु० [सं०] माणिक्यका एक दोष, दे० 'लहसुन'। असरार- वि० बेहोश - 'केसो कहि कहि कृकिये ना सोइये असरार' - साखी /
असा डा* - सर्व० हमारा - 'आनंद जीवन ज्या न असाडी ज्यारिया' - धन० ।
असानूँ* - सर्व० हमको ।
असार* - पु० असवार, सवार ।
अस्तप्राय - वि० [सं०] डूबता हुआ; मरता हुआ - 'किनारेपर पड़े हुए अस्तप्राय सुअरको देखने लगा' - मृग० । अस्थि - वि० स्थिर ।
अहियान * - पु० शेषशायी विष्णु -पदी-स्त्री० (विष्णुके पदसे उद्भूत) गंगा - 'देवनदी अहियानपदी महिमान बदी स्तुति साखि बिसेखी' - धन० ।
अहुराना * - स० क्रि० खींच देना, हटा देना - 'फिरि फिरि पट तानें तक बहुरयों महुराऊँ' - घन० । अहुरि- बहुरि* -
* - अ० अहुर-बहुरकर, किसी प्रकार बचकर ।
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आ आंकिक - पु० [सं०] (स्टेटिशियन) सांख्यिक । आँस+ - स्त्री० मूछोंका आरंभिक रूप, रोमावलीकी हलकीसी रेखा, मस- 'अटल युवक था। आँसें भीग चुकी थीं' - मृग० ।
आँसना + - अ० क्रि० खटकना, गड़ना, चुभना । आँह* - अ० भरोसे - 'रह्यौ न काम कछू काहू सो पालत प्रान रावरी आह' - घन० ।

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