Book Title: Gyan Shabdakosh
Author(s): Gyanmandal Limited
Publisher: Gyanmandal Limited

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Page 997
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुचील-खिसना ९८८ कुचील*-वि० मैला, गंदा-'बसन कुचील, चिहुर लपटाने, | लड़कीके संबंधमें प्रयुक्त) । मु०-भंग करना-किसी देह पीतांबर बरनी'-सूर । लड़की या अक्षतयोनि महिलासे प्रथम बार समागम करना। कुजा -पु० पुरवा, मिट्टीका प्याला जैसा पात्र (कबीर), क्रम*-पु० कर्दम, कीचड़ कष्ट, विपत्ति । दे० मूलमें। क्रीत*-स्त्री० कीर्ति, यश-'ही कहा कही सूरके प्रभुकी कुटनई।-स्त्री० कुटनपन, कुटनीका कार्य । निगम कहत जाकी क्रीत'-सूर । कुटवारी-पु० गाँवका चौकीदार, (कोट्टपाल, कोतवाल), क्रीलना-अ० क्रि० क्रीड़ा करना। गोड़इत । क्रीला*-स्त्री० क्रीड़ा-'जा बनमें क्रीला करी, दाझत है कुटवाल*-पु० कोट्टपाल, कोतवाल । बन सोइ'-साखी। कुडिया*-स्त्री० टोपी। क्षुरी-स्त्री० [सं०] छुरी, क्षुरिका । कुढ-स्त्री० कुढ़न, खीझ । कुत्ता-पु० खटका (तालेका कुत्ता)। खंगार-पु० एक जाति । कुपचा-पु० अपच, अजीर्ण । खगोरिया-स्त्री० (दरिद्र ग्रामीणोंके पहननेकी) चाँदीकी कुबील*-वि० ऊबड़-खाबड़, ऊँचा-नीचा-'राज पंथते हँसुली। टारि बतावत उरझ कुबील कुपैंडो'-सूर। खंडरू-पु० फर्शपर बिछानेका कपड़ा, जाजिम । कुम्हडा-पु. कुम्हड़ा-'सूरजदास समाय कहाँ लौं अजके खंडवर्षा-स्त्री० [सं०] वह वर्षा जो नगरादिके एक भागमें बदन कुम्हैडा'-सूर। हो, दूसरेमें न हो।। कुरुखि-स्त्री० तिरछी चितवन, कटाक्ष-'बार बार अवलोकि खंडहला-पु० दे० 'खंडहर'। कुरुखियन कपट नेह मन हरत हमारे'-सूर । खखरियाज-स्त्री० एक नमकीन पकवान जो पापड़ जैसा कुरुरना*-अ० कि० पक्षियोंका बोलना-'मोरे अँगनवाँ | होता है। चननकर गछिया ताहि चढ़ काग कुरुरयेरे'-विद्या। खखेना-सक्रि० दे० 'खखेटना'। कुलंगा-स्त्री० छलांग। खगमगी*-स्त्री० धंसन । कुलरा*-पु० कुटुंब, परिवार-'यो संसार सकल जग झूठो, । खजमजाना-अ० क्रि० (तबीयतका) कुछ अस्त-व्यस्त-सा झूठा कुलरा नाती'-मीरा। होना, अस्वस्थता जैसी प्रतीति होना। कुलाच-स्त्री० कलैया, सिर नीचे, पाँव ऊपर कर उलट | खबरनवीस-पु० [फा०] समाचार लिखनेवाला कर्मचारी । जाना-'नटिनी कुलाचें खाने लगो'-मृगः । खब्तुलहवास-वि० (ऐ बसेंटमाइंडेड) जिसके होश हवास कुलिया-स्त्री० तंग गली, कोलिया। ठिकाने न होजिसका ध्यान किसी दूसरी ओर हो। कुलिस*-पु० वज्रः हीरा । खर-वि० खरा, ज्यादा सिंका हुआ (सेंवरका उलटा)। कल्ला-पु. एक तरहको ऊँची या कटोरानुमा टोपी खरहरी-वि० स्त्री० (खाट) जिसपर कोई कपड़ा आदि न (शेखर०)। बिछाया गया हो ('निखहर')-'नींद न जाने खरहरी कुल्हरा-पु० लकड़ी काटने, फाइनेका औजार, कुल्हाड़ा, | खाट'। हाँगा । खरी*-वि० स्त्री० उत्कट-'खरी अभिलापनि सुजान पिय कुल्ही -स्त्री० छोटा कुरुहाड़ा, टाँगी । भेटिहौँ'-धन० दे० मूलमें । कुसर*-स्त्री० दे० 'कुशल'। खल नायक-पु० [सं०] (विलेन) नाटक या उपन्यासके कुपरात*-स्त्री० 'कुसलात' । मुख्य नायकका वह प्रतिद्वंद्वी जो उसकी लक्ष्य प्राप्तिमें कुसी -स्त्री० खुशी, आनंद (मीरा) । बाधाएँ उपस्थित करता रहता है और जो दुष्प्रवृत्तियोंकुह*-पु० अंधकार । का प्रतीक होता है। कुहकुहाना-अ० क्रि० कोयलका बोलना, कूकना-'कुहकु-| खाँदा-पु. पदचिह्न, जानवरके खुर आदिके निशान हाय आये बसंत ऋतु अंत मिलै कुल अपने जाय'-सूर। 'जानवरोंके खाँद तो मिलते हैं, पर दिखलाई पूँछतक कूकस-पु० भूसी-'कूकसके कूटे कहूँ निकसत कन है' | नहीं पड़ती'-मृग०। सुंद। खाकसाही*-स्त्री० काली राख, छार (भू०)। केशकर्तनालय-पु० [सं०] (हेयर कटिंग हाउस) सिरके खाद्यनलिका-स्त्री० [सं०] (एलिमेंटरी कैनाल) दे० बाल कटवानेकी दुकान । 'पोषिका'। कैदु*-अ० कदाचित् । खिंड जानाt-अ० कि० छितरा जाना, बिखर जाना; बह कोकहर-पु० चंद्रमा। जाना। कोथली*-स्त्री० कोठरी। खिआला-पु० हँसी, मजाक, खियाल । कोग्दार-वि० किनारदार नुकीला। खियरानि*-स्त्री० खेदभरी स्थिति। कोरिया*-स्त्री० झोपड़ी-'+दि फिरे घर कोउ न बतावै खिलवती*-पु० घनिष्ठ मित्र। स्वपच कोरिया लों-सूर; दे० मूलमें। खिवना*-अ० क्रि० चमकना-'बिजुरी-सी खिवै इकलौ कोरी-स्त्री० कोड़ी, बीसका समूह । छतियाँ'-घन। कौमार्य-पु० [सं०] कौमार, कुँवारापन; (प्रायः अविवाहित | खिसना-अ० कि० टपक पड़ना; खिसक जाना, चला For Private and Personal Use Only

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