Book Title: Gyan Shabdakosh
Author(s): Gyanmandal Limited
Publisher: Gyanmandal Limited
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कठण-कुची
कठण*-वि० कठिन, विकट-'लागी सो ही जाणै कठण | काई*-अ० काऊ, कभी-'सूरदास ऐसे अलि जगमें लगण दी पीर'-मीरा।
तिनकी गति नहि काई'-सूर । कठतार*-पु० दे० 'कठताल' ।
काछ*-अ० दे० 'काछे। कठप्रेम*-पु० प्रियके उदासीन रहने पर भी उससे किया कानीहौद-स्त्री० दे० 'कांजीहाउस' (पशु-वंदीगृह) । जानेवाला प्रेम-'नेह कथं सठनीर मर्थे हठक कठप्रेमको काफिर-पु० [अ०] मुसलिम धर्मको न माननेवाला दे. नेम निबाहै'-धन।
मूलमें। कत्तिन-स्त्री० सूत कातनेका काम करनेवाली स्त्री। कामदार+-पु० जायदादका प्रबंध करनेवाला अधिकारीकत्ती-पु० सूत कातनेवाला ।
'कामदाराँ तूं काम नहीं रे, मैं तो जाव करूँ दरबार' कथकाली, कथाकाली-स्त्री० नृत्यकी एक विशिष्ट शैली ।। -मीरा। कदन* -पु० कष्ट, पीड़ा-'अब पिय कपट न करियै हरियै | कामदुह*-वि० दे० 'कामदुघ' । कदनकों'-घन० दे० मूलमें।
कार्यवाही(हिन)-वि०, पु० [सं०] कार्यका भार उठानेकदी*-अ० कभी, कधी।
वाला। कदव-पु. कर्दम, कीचड़ ।
कार्याध्यक्ष-पु० [सं०] नगरपालिकाका वह प्रधानाधिकारी कनब्रत*-पु० कण चुननेकी आदत ।
जो प्रशासन-संबंधी कार्योंकी देख रेख करता है । कनय*-पु० कनिक, आटा दे० मूल में ।
काला कानून-पु. लोकमतके विरुद्ध बनाया गया कानून कनसुई-स्त्री० गोबरकी गौर फेंककर सगुन बिचारना। (ब्रिटिश शासनकालका आडिनैस) । कनौड़*-पु० संकोच ।
काली*-पु० कालिय नाग। कनौड़ना*-अ० क्रि० दबना-'काहूकी कानि कनौड़त कै काष्ठौषधि-स्त्री० [सं०] जड़ी-बूटी जो दवाके काममें को'-घन।
प्रयुक्त हो। कपित्थपत्रक-पु०, कपित्थपर्णी-स्त्री० [सं०] एक क्षुप, किंमति-स्त्री० दे० 'कीमत'।। स्वरसा।
किनर-मिन-स्त्री. नाक-भौं सिकोड़ने, हीला-हवाला कपोतनी*-स्त्री० कपोती, कबूतरी-'करमें बिकल कपोतनी, करनेका भाव या ध्वनि-'अन्न देनेमें वे किनर मिनर कर तरुपै बिकल कपोत'-'माधुरी' पत्रिका ।
रहे थे-मृग०। करछौंह-पु० हलका काला रंग।
किन्नर-पु० गाने-बजानेवाली एक जाति । करतली*-स्त्री० कैची, कतरनी-'निसि बासर मग कर- किमखाब-पु० 'कमख्वाब' । तली लिये काल कर वाहि । कागद सम भइ आयु तब, किरचा*-पु० दे० 'किरच' । छिन-छिन कतरत ताहि'-घवदास ।
किरना*-अ० क्रि० विमुख होना-'अब तो ऐसियै जिय करधौनी -स्त्री० दे० 'करधनी'।
आई प्रीतमके पनतें क्यों किरिहौं'-घन० कष्ट सहनाकरिहाँ, करिहाउँ*-स्त्री० कटि, कमर-'के गयी काटि | 'मन बुधि चित अहँकार एक तुम करहु कृपा कितहूँ न करेजनिक कतरे कतरे पतरे करिहाँकी'-पद्माकर-'नलिन | किरौं'-धन। खंड दुइ तस करिहाउँ'-५० ४०१ ।
किलपना-अ० क्रि० बिलख-बिलखकर रोना, विलाप करिहैयाँ*-स्त्री० दे० 'करिहाँ' (पूर्ण०)।
करना, हाय-हाय करना, छटपटाना, कलपना, भीतर करून*-वि० कर, कठोर, निष्ठुर ।
ही भीतर व्याकुल होना (अमर०)। कलमुंडी -स्त्री० कलैया (कलमुँडी खाकर-'गद्यभारती')। किलोर*-स्त्री०किलोल, कल्लोल, लहर । कलामुख-पु० चंद्रमा (दास०)।
किलोवाट-पु० [अं०] बिजलीका परिमाण जो १००० कलाही- स्त्री० कलाई, पहुँचेका निचला भाग।
वाटके बराबर होता है। कलोल-स्त्री० लहर, तरंग-'सूर यह सुख गोप-गोपी किल्विषी(पिन्)-वि० [सं०] पापी; दोषयुक्त । पियत अमृत कलोल'-सूर ।।
कीचर*-पु० दे० 'कीचड़'-आँखिन बरौनिनमें कीचर कल्लिय*-स्त्री० कली, पुष्पकलिका।
छपानो है'-बेनी। कल्लोलिनी-वि० स्त्री० [सं०] कलोल, क्रीड़ा करनेवाली, कीरतिदा*-स्त्री० यशोदा । कलकल ध्वनि करनेवाली-'इस प्यारी नदीकी कल्लोलिनी कुंजरमनि*-पु. गजमुक्ता-'कुंजरमनि कंठा कलित धारको अपने पास रक्खू'-मृग० ।
उरन्ह तुलसिका माल'-मीरा। कवनी-वि० कमनीय, सुंदर ।
कुंजा*-पु० क्रौंच पक्षी-'अंबर कुंजाँ कुरलियाँ गरज भरे कसीसना*-स० कि० खींचना-'साँस हिये न समाय सब ताल'-साखी।।
सकोचनि हाय इते पर बान कसीसत'-धन । कुंठा-स्त्री० चिद, क्रोध-'अपनी कुंठा उतार रही थी। कसुंभ*-पु० कुसुंभी रंग ।
कुंडलित-वि० [सं०] चक्करके रूपमें लपेटा हुआ। कांती-स्त्री० एक प्रकारका घटिया लोहा जिसमें मिट्टीकी कुकड़ी*-स्त्री० मुगी (कबीर); दे० मूलमें । मिलावट होती है, जो रेलिंग, कड़ाही आदि बनानेके कुचियाज-स्त्री० छोटी टिकिया; कम बढ़ायी हुई रोटी। काम आता है।
कुची -स्त्री० कूची, ब्रश; कुंजी-'शान कपाट कुची जनु काँवरी*-स्त्री० दे० 'कामरी'
| खोलत'-राम। १२-ख
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