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आदराञ्जलि
एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी
रत्नत्रयात्मक श्रमण-धर्म की आराधना समीचीन देव, शास्त्र व गुरु-इन तीन आलम्बनों पर आधारित है। समस्त श्रमणसंध में आचार्यों को एक ऐसे उज्ज्वल लोकानुग्रहकारी व्यक्तित्व के रूप में माना गया है जिसमें देव, शास्त्र एवं गुरु इन तीनों का अद्भुत समन्वय होता है। परमेष्ठी देवों में परिगणित होने से आचार्य देवकोटि में तो हैं ही, आचार-शिक्षक के रूप में वे साधुओं आदि के लिए गुरु तुल्य भी हैं। साथ ही आगमचक्षु साधुओं के नायक होने तथा भावश्रुत (सद्ज्ञान) की मूर्ति होने के कारण वे शास्त्रवत् प्रमाणभूत भी होते हैं । आचार्य एक ऐसे स्नेहपूरित दीपक होते हैं, जो स्वयं प्रकाशित होने के साथ-साथ दूसरों को भी ज्ञान-प्रकाश देकर प्रकाशित कर देते हैं-"दीवसमा आयरिया अप्पं च परं च दीवंति"-आ० नि०-गाथा-८
परमपूज्य प्रातःस्मरणीय आचार्यप्रवर श्री देशभूषण जी महाराज वास्तव में आचार्यरल हैं। दिगम्बर मुनित्व की परम्परा को आपश्री ने अत्यन्त सबल आधार प्रदान किया है जो सर्वदा अविस्मरणीय रहेगा। आपश्री ने मुझे अपनी चरण-छाया में मुनिदीक्षा (२५-७-६३) प्रदान की थी और उज्ज्वल आचार-निष्ठा का पाठ भी पड़ाया था। मैं उनके द्वारा किये गये उपकारों को कभी भुला नहीं सकूगा।
जैन दिगम्बर अहिंसा धर्म की पताका फहराने के लिए आपश्री ने समस्त देश की पद-यात्रा की, अनेक शास्त्र-रत्नों की रचना की, अनेकानेक तीर्थों का उद्धार किया, अनेक जिन-मन्दिरों का निर्माण किया और मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की। ये सब कार्य आपश्री में विद्यमान अपूर्व श्रद्धा, ज्ञान व चारित्रनिष्ठा के ज्वलन्त प्रमाण हैं, जिन पर प्रकाश डालना मेरे लिए सूर्य को दीपक दिखाने जैसा कार्य होगा । आज भी आप इस वृद्ध अवस्था में जिस उत्साह के साथ जिन-धर्म के प्रचार-प्रसार में तथा श्रमण-संघ के अभ्युदय में संलग्न हैं, वह किसी से छिपा नहीं है। आचार्यश्री का भावी जीवन इसी प्रकार यशस्वी व कीर्तिमान, पावन एवं लोकोपकारी बने-इस भावना के साथ मैं अपनी विनीत आदराञ्जलि उनके श्री चरण-कमलों में समर्पित करता हूँ। त्रिबार नमोऽस्तु ।
--0-- एक निश्छल व्यक्तित्व
युवाचार्य महाप्रज्ञ मुनि श्री नथमल जी देशभूषण जी महाराज कत त्व-सम्मन्न आचार्य हैं। उनकी सक्रियता निरन्तर गतिशील है। इसका मूल कारण है उनकी सरलता । दिल्ली में दरियागंज के अहिंसा मन्दिर में तीन आचार्यों का मिलन हो रहा था-आचार्य श्री तुलसी जी, आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी और आचार्य श्री देशभूषण जी। वार्ता का विषय था-'संवत्सरी' ।
संवत्सरी की एकता सब जैनों का चिर-पालित स्वप्न है। उस स्वप्न को साकार करने का पहला प्रयत्न हो रहा था। तीन दिन तक वार्तालाप चला। वार्ता के अन्त में सबने सार्थकता का अनुभव किया। सार्थकता का बिंदु था-भाद्र शुक्ला पंचमी का दिन संवत्सरी का दिन हो सकता है। वह दिन श्वेतांबर समाज के पर्व का अन्तिम दिन और दिगम्बर समाज के दशलाक्षणिक पर्व का पहला दिन है। दोनों समाज उस दिन को सामूहिक रूप से मनाएँ और अनन्त चतुर्दशी को भी दोनों समाज मनाएं। इस सहमति में आचार्य देशभूषग जो को उदारता, सरलता और सहजता देखने को मिली । वह आज भी स्मृतिपटल पर अंकित है। यद्यपि वातालाप का निष्कर्ष अभी क्रियान्वित नहीं हो सका है पर जब कभी यह क्रियान्वित होगा तो उसको पृष्ठभूमि में आचार्यत्रयो का निष्कर्ष अपने जीवित अस्तित्व को प्रमाणित करेगा।
आचार्यरल श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पंप
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