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आध्यात्मिक आलोक साधारण उलझन का स्थान नहीं है। जाले की मकड़ी की तरह एक बार इसमें फंस जाने पर जल्दी निकलना भारी पड़ जाता है । भांति-भांति के मोह तन-मन को इस प्रकार घेर लेते हैं कि आत्म-साधना की ओर ध्यान ही नहीं जा पाता ।
साधक आनन्द के सामने भी ये सारे लुभावने आकर्षण थे , फिर भी उसने संयम का परित्याग नहीं किया और भोग के लिए कभी व्याकुल नहीं बना । वह दंपति सम्बन्ध को साधना में भी परस्पर के लिए सहायक मानता था | भोगों के बीच में रहकर भी वह जल में कमल-पत्र की तरह निर्लेप रहा । उसका लक्ष्य भोग से बदल कर योग बन गया था।
भगवान महावीर की सेवा में पहुँच कर आनन्द ने उनसे प्रार्थना की कि भगवन ! वे पुण्यशाली धन्य हैं, जो आपकी सेवा में पूर्ण त्याग की दीक्षा ग्रहण करते हैं, पर मेरी शक्ति नहीं है कि मैं इस समय सर्वथा आरंभ-परिग्रह का त्याग कर दूं। मैं आपकी सेवा में गृहस्थ के पांच मूल व्रत, तीन गुण-व्रत और चार शिक्षा-व्रत धारण करना चाहता हूँ | स्थूल हिंसा, बड़ा झूठ और बड़ी चोरी का त्याग एवं स्वदार संतोष की तरह पांचवें व्रत में उसने इच्छा का भी परिमाण किया ।
आनन्द की तरह प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन में संयम का अभ्यास करे और विषयराग को मर्यादित बनाए । कारण, बिना मर्यादित जीवन के मानव को शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती । तृष्णा की प्यास असीम होती है, यह बड़वानल की तरह कभी शान्त नहीं हो पाती । संसार की समस्त सम्पदा और भोग के साधन पाकर भी मनुष्य की इच्छा पूरी नहीं होती । क्योंकि शास्त्र में -'इच्छा हु आगास-समा अणतिया इच्छा को आकाश के समान अनन्त कहा है । लोक भाषा के किसी कवि ने ठीक कहा है
जो दस बीस पचास भए शत होय हजार तो लाख मंगेगी, कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य, धरापति होने की चाह जगेगी। स्वर्ग पाताल को राज मिले, तृष्णा तबहूं अति लाग लगेगी, "सुन्दर" एक संतोष विना शठ, तेरी तो भूख कभी न भगेगी ।।
एक बालक नगे बदन जन्म लेता है, धीरे-धीरे उसके पास दो चार रुपये जमा होते हैं और वह चाहता है कि इसी तरह कुछ आता रहे तो अच्छा । इस तरह लाखों अरबों की सम्पदा मिलने पर भी उसे संतोष तृप्ति और शान्ति नहीं मिलती, मन की भूख बढ़ती ही जाती है । इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि तृष्णा और लालसा को सीमित करो। यदि लोभवश इसे सीमित नहीं करोगे तो वह मन को सदा आफूल व्याकुल बनाए रखेगी।