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श्री भावाति दिजैन सरस्वती भवन ऋषभदेव का प्रथम पुष्प
श्री प्राचीन पूजन संग्रह
रचयिता-विविध दिगम्बर जैनाचार्य
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मम्पादकःनैनर-न धर्मभूषण प्रतिष्ठावर्य पं. रामचन्द्र जैन
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प्रकाशक:सपस दि. नेन नरसिंहपुरा समाज गुजरान प्रान्त
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प्रथमावृत्ति ५००
और नि। सं० २४८६ कार्तिक शु. १ रविवार
मूल्य जिन पूजन
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विषय सूची
क्रमांक
११६ १३२
विषय जलयात्राविधि सकजो करण विधान समुचयपंच कल्याण लघु अभिषेक पठ ग्येष्ठ जिनवर पूजा देव पूजा शास्त्र पूजा गुरू पूजा सिद्ध पूजा विद्यमान बोस तीर्थर पूजा शीतल नाथ पूजा शांतिनाथ पूजा कलिकुएड पाश्वनाथ पूजा अधि मण्डल पूजा श्री सम्मेद शिस्त्रर पूजा षोडश कारण मावना पूजा दस लक्षणधर्म पूजा
पंच भेरु पूजा। पड़ पुष्पांजली पूजा अष्टन्हिका पूजा नन्दीश्वर द्वीप रत्नत्रय पूजा सप्त ऋषि पूजा अनन्त अब पूजा नहाभिषेक पाठ क्षेत्र पाल पूजा भैखाटक स्तोत्र रद्मावती देवी पूजा पंचपरमेष्ठी जयमाला शांतिपाठ ऋषभनाथ की आरती विसर्जन पाठ लधु होन (बज्ञ)
२०६
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२४
२५३ २५८ २६० २६२
६०
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॥१॥
प्रस्तावना
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देवाधि देव चरसे, परिचरणं सर्व दुःख निर्हरणम् । काम दुहि काम दाहिनी, परिचिनुया दाहतो नित्यम् ॥
तिनेन्द्र भगवान की पूजन करना प्रत्येक धक का दैनिक कर्तव्य है। न समाज को यह बनाने की प्रावश्यता !
"नहीं है कि जिनेन्द्र पूजा का क्या महल्य है। पूजन के द्वारा परिणामों की निर्मलता बढ़ती है एवं पाप दूर होते हैं । श्रावक के षटकर्म "देव पूजा गुरुपास्ति" में भी देव पूजा को प्रथम स्थान दिया गया है, अतः जिनेन्द्र भगवान पूजन करना प्रत्येक श्रात्रक का प्रधान दैनिक कर्तव्य है। पूजन करने का प्रमुख साधन पूजन की पुस्तके ही हैं। जैन समाज में पूजन की पुस्तकों की कमी नहीं है । परन्तु प्रस्तुत सग्रह का प्रकाशन कुछ विशेष कारणों को लेकर ही किया गया है। गुजरात प्रान्त में विशेष वर नरनिरा गद्दी के विद्वान भट्टारकों द्वारा रचित प्राचीन संस्कृत तध! प्राकृत भाषा की पूजाएँ पढ़ाने की परिपाटी है परन्तु अब तक इन पूजामों का प्रकाशन नहीं हुअा था।
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जब पूज्यवाद भट्टारक श्री १०८ श्री यशकीर्तिजी महाराज का चातुर्मास जहेर में था, श्री संघ नरसिंहपुरा केलरणो मण्डल के चन्दे के लिये श्रीमान जाति भूषण सेट चन्दुलाल करतूरचन्द शाह का आगमन हुश्रा था मन्दिरजी में हस्व-लिखित गुटकों से पूजन पढ़ाई जारही थी। पूजाएँ लिखित होने के कारण पठन-पाठन में कठिनाई होना एवं हस्त-लिखित प्राचीन गुदकों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण श्रीमान् सेठ चन्दुलाल कस्तूरचन्द शाह ने कहा कि उक्त पूजाएँ छप जायं तो इनका पठन-पाठन सर्व सुलभ हो जाय एवं प्राचीन पूजन साहित्य की सुरक्षा भी हो जाय ।
पूज्यपाद भट्टारक यशकीर्तिजी महाराज तथा हमारी भी बहुत समय से अभिलाषा थी कि यह संस्कृत पूजन सातिय से की गाने पूर्व मनायने अपने द.नाध्ययन के समय में से समय बचाकर रचा है, संभहीत कर प्रकाशित करें ताकि श्रद्धालु भक्तगण भक्ति रस से परिपूर्ण इन रचनाओं से लाभ उठावें । एवं गुजरात
प्रांत की समाज की काफी मांग थी 1 इस लिये हमने खास तौर से पं० चन्दनलालजी जैन साहित्य रत्न | ऋषभदेव को भेजकर जहेर अहमदाबाद कलोल नरोड़ा श्रामोद् सूरत शास्त्र भंडारों एवं भ. यशकी सरस्वती ।
भवन ऋषभदेव से पूजाओं की प्रति लिपि करवाई । प्रस्तुत संग्रह के सभी पाठ सोलहवीं सत्र६वीं सदी के विद्वान भट्टारकों तथा ब्रह्मचारियों द्वारा रचित्त हैं। पुरानी हस्त लिखित प्रतियां बहुत अशुद्ध रूपमें प्राप्त हुई थो । प्रस्तुत पाठक संशोधनमें- श्रीमान विद्वर्य पं. पन तालजी पार्श्वनाथजी शास्त्री शोलापुर विद्यालंकार पं० इन्द्रलालजी शास्त्री जयपुर, पं. महेन्द्रकुमारजी महेश ऋषभदेव का सहयोग रहा है। साथ ही मेरे अनन्य सहयोगी पं० धन्दनलालजी साहित्य रत्न ऋषभदेव का सम्पादन तथा संशोधन में महत्वपूर्ण योग रहा है। एवं पंगुलजारीलाल चौधरी शास्त्री प्र. शिक्षण संस्था, उदयपुर ने प्रूफ संशोधन में अच्छा सहयोग दिया है । इसके । लिये उक्त सभी विद्वानों का अत्यन्त आभारी हूँ। श्रीमान् मान्यवराति भूषा श्रीमंत सेठ चंदुलाल कस्तूरचन्द शाह कलोल ने प्रतिलिपि कराई का व्यय प्रदानकर इस कार्य के लिये मुझे उत्साहित किया इसके लिये उनकामी
भारी हूँ। प्रस्तुत संग्रह से साधारण पदालिया व्यक्ति भी लाभ उठा सके इसके लिये पूजन विधान में
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* १ ब्रमजिनदास ब्रह्म जिनदास का समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का अंतिमभाग रहा है। आप मूल संधी भ. सकलकीर्ति के शिध्य भ० भुवनकीर्ति के शिष्य थे। इनकी हिन्दी भाषा की पद्यमय रचनाओं में उद्यापन पुराण, ब्रतकथा, तया, पूजाओं की कई कृतिसं विद्यमान हैं लेकिन उनमें से मामूली पूजाएं तथा ब्रत कथाए ही प्रकाश में भाई है। उन्होंने वि० सं० १५७५ में हरिवंश पुराण की पद्यमय रचना कीथी आपकी रचनाओं की संख्या करीब ५० से कम नहीं होगी। इस संग्रह में आपकी कृति ज्येष्ठ जिनवर पूजा, प्रकाशित की गई है।
॥२ ब्रहम कृष्णदास ॥ भट्टारक संस्थान में : भट्टारकों के शिष्यों में से सुयोग्य शिष्य अथवा भावी भट्टारक को प्राचार्य विशेषण से सम्बोधित करने की प्रथाथा एवं तत्पश्चात् के शिष्यों को ब्रह्म (ब्रह्मचारी) इस विशेषण से सयोधित किया जाताथा व कृष्णदासी काष्ठा संघी दशा नरसिंहपुरा समाज का गद्दी के भ. त्रिभुवय कीर्ति के पट्टस्थ न. रत्न भूषण के शिष्यों मैंसे एक थे श्राप लोहारिया के निवासी श्रेष्ठी हप के पत्र थे आपकी माता का नाम बीरिका देवी था विक्रम सं. १६८१ में मुनि सुखत पुराण की रचना की थी, आपका समर विक्रम सं० १६४८ से १६८५ के करीब है। आपने १० अभ्रराज (नेवराज) से शिक्षण प्राप्त किया था ऐसा ज्ञात होता है जैसाकि आपने अपनी ज्येष्ठ जिनवर जयमाला में उल्लेख किया है कि " पदित राज अभ्रवच कलिया. । ये पंडित श्रभ्रराज भी इन्हीं प्रा कृष्ण के सथियों में से थे और संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे इनकी रधिः। एक कथा संग्रह भ० सुरेन्ट्रकोर्तिजी सोजित्रा के सरस्वती भवन में है जोकि संस्कृत में उत्तम रचना है 5. कृष्ण को यह जयमाल गुजरात, बागड़, नेवाड़ मालवा प्रतिमें अत्यधिक प्रसिद्ध है। पूजय के अलावा अभिषेक के समय
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में जस अनुमाता का अबुल का
में इस यमाला का पटुत अधित उपयोग होता है, इसका खास कारण इसकी पांडित्व पूर्ण भाषा एई सरल राग है।
॥ ३ भट्टारक राजकीति ॥
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श्राप ईडर की काष्ठासंघो गाड़ी के भट्टारक थे आपका समय विक्रम स. १६८१ से १६६७ तक का है इनके गुरु मा चन्द्रकीर्ति थे जिन्होंने संस्कृत में कई अथ लिखे है आपके शिव भ. लक्ष्मी सेन थे। भ. राजकीर्ति बहुत अल्प समय में ही स्वर्गशनी हो गये थे अतः ये विशेष कुछ भी नहीं कर पाये थे । भापकी कृति देवशास्त्र गुरम इस समय है ।
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॥ ४ भट्टारक उदयसेन ॥
श्राप भी काष्ठा संघो नरसिंहपुरा समाज को सूरत की गहरी के भट्टारक थे आपका सनय विक्रम संवत १५१. १६१५ तक का है आप भ० यशक ति के शिष्य थे जिन्होंने कि प्रवास तथा ऋषभदेव । केशरियाजी) में प्रतिष्ठाए की थीं । आप भ। संस्कृत भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। आपने भी कई प्रतिष्ठाए की थी आपके शिष्य म. त्रिभुवन कोलि थे। इस संग्रह में भापकी शास्त्र पूजा प्रकाशित हुई है।
५ कवि जीवनलाल ॥
कवि जीवनलाल के पिता का नाम वासुदेव था, जेमा कि आपने स्वयं गुरु जयमाला में लिखा है श्री वासुदेव तनयो कवि जीवनोऽ, आपका समय विक्रम सं० १७७५ से १८०० तक का है आप के जीवन चरित्र का निश्चित हाल मालुम नहीं हो सका है फिरभी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भाप गुजरात् प्रान्त के निवासी थे श्रापको जाति व्यास (बारोठ) है। भाएकी गुरु अयमाला मलावा बोर कोई कृति प्राप्त नहीं है।
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॥ ६ भट्टारक विश्वसेन ॥
काता संगीत की राहो के भट्टारक भुवन कति के शिष्य म. विश्वसेन हुए है आपका समय १७२५ से १५० तक का है आपके शिष्य भ० मझेचन्द्र थे तथा महीचन्द्र के शिष्य म. सुमांतकीर्ति थे। जो कि अत्यधिक प्रसिद्ध हुए हैं भ० सुमलिकीर्ति उद्भव विद्वान और परमतवादियों का मान मर्दन करने वाले थे। भविश्वसेन की सिद्ध जयमाला के अलावा और कोई कृति उपलब्ध नहीं हुई है एक भ० विश्वसेन ईटर को काष्ठा संघी गद्दी पर भी हुवे हैं, जिन का समय विक्रम सं०१४६. सेर तक का है जिन्होंने परणवती क्षेत्र पाल पूजा की रचना की है।
॥ ७ ब्रह्म चन्दसागर ॥ काष्ठा संघी सूरत की पारी के भ० जयकीर्ति के शिष्य थे। आपका समय १७०० से १७२. तक का है आपने भाषा में कई पूजार तथा राम याद की रचना को है। आपकी रचित शांतननाथ पूजा इस संग्रह में छपी है।
॥ ८ भट्टारक चन्दकीर्ति ॥ ईडर की काष्ठासंघी गद्दी के सुप्रसिद्ध भ० श्री भूषण के शिष्य भ. चन्द्रकीर्ति थे। आप हिन्दी के साथ २ सस्कृत तथा प्राकृतिक भाषा के भी अच्छे विद्वान थे। आपने संस्कृत में श्रादिपुराण पार्श्वनाथ पुराण उपासक,ध्ययन श्रावकाचार श्रादि अच्छे २ ग्रंथों की रचना की है ये ग्रंथ मा यकीर्ति सरस्वती भवन ऋषभदेव में उपलब्ध हये हैं इनकी टीका होने की खास आवश्यकता है। बहे शास्त्रों के अलावा कई बड़ी ३ पूजाए उधापनादी क भा आपन रचना की है। दुखः है कि अभी तक पापको कोई कृति प्रकाश में नहीं पाई है। आपकी रचित पंचमेरु पूजा तथा शांतिनाथ पूजा इस संग्रह में प्रकाशित की गई है।
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॥ ब्रह्म ज्ञान सागर ॥ ईडर को काष्टा बनछो गद्दी के न श्री भूपए के शिष्य वथा भर चंद्रकोर्स के साथ प्र. ज्ञान सागर थे। इनका समय विक्रम संवत १६६० के पास पास का है। ये संस्कृत हिन्दी तथा प्राकृत भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। इनके बनाये हुवे पूजाए' ब्र कथाए' उद्यापन पुराण तथा स्तनादि उपहब्ध है। दशलक्षण और सोलह कारणः की संस्कृत पूजाओं की रचन कापने हरे को है आपके भाषा के सबैये भी प्रकाशित हो चुके हैं जो कि प्रसिद्ध हा है।
॥१० भट्टारक इन्द मूषण ।। आपका समय विक्रम संवत १७.८ के आस पास का है आप इंदर की काष्ठासंघी गहरी के भ० लक्ष्मीसेन के शिष्य थे आपने भी कई प्रतिष्ठाए करवाई हैं। भापके शिष्य भ० सुरेन्द्रकीर्ति
जो कि अच्छे विद्वान और उस समय के सिद्ध भट्टारक थे ऋषभदेव (केशरियाजी) में आधकांश प्रतिमाओं को प्रतिष्ठा अपने ही कराई है। थापके शिष्य कृत्रि गोविन्द थे जोकि अच्छे दिन थे इन्होंने भी पद्मावती पूजा आदि कई पूजामों की रचना की है।
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* भट्टारक हेमचन्द्र *
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दिगम्बर सम्प्रदाय के काष्ठासंघ में रामसेनाचार्य की शिष्य परंपरा में अनेको भट्टारक हुए हैं। जिनमें से १०... वें पट्ट पर भट्टारक हेमचन्द्र हुए हैं। पवित्र तीर्थ भूमि केशरियाजी के पास स्थित टोकर गांव को भापका जन्म स्थान बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पाप बीसा नरसिंहपुरा जाति में उत्पन्न हुए थे। वि० स. १८४५ के करीब भनेमीसेन ने भापको शिष्य बनाया या। भट्टारक पद पर भासीन होने के बाद आपने अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठार कराई, तीर्थों की यात्रा को पर्थ समाज में धर्म प्रचार किया। आपके जीवन में दो महत्वपूर्ण उल्लेखनीय पर्य हुए हैं जो कि भधारकीय चमत्कारों को समीचीन मानने के लिये विवश करते हैं । खाधु में मन्दिर के पीछे एफ छुआ खुधाया गया था। जिसका पानी समित इससे लब लोग निराश हए और विचार करने लगे कि कुत्रा वापस पूर दिया जाय । तब महाराज श्री ने कहा किहमने तो श्रीजी के पूजन प्रक्षाल व पीने के उपयोग के लिये कुत्रा खुदवाचा था यदि पानी पीने के लिये उपयुक्त नहीं है तो दूसरे काममें तो आयगा ही इस पर किसीने कह दिया कि महाराज ऐसा था तो पहले ही स्थान का परिक्षण कर के कुप्रा खुदवाना था इस पर महारज श्री तत्काल बन्न जल का त्याग कर किसी साधना में लग गए। अनंतर मंदिर के पुजारी से वहां की पोई नदी का मोठा जल मंगवाकर उसे मंत्रित कर कुए में दलवा दिया और लोगों से कह दिया कि अब कल से कुए का पानी काम में लाया जाय। दूसरे दिन लोगों ने पानी को देखा तो पानी पदिया मंठा और हल्का हो गया था। इस चमत्कार की बात सारे गांवमें फैल गई और लोग भट्टारक हेमचन्द्र की प्रशसा करने लगे। इसी प्रकार दूसरा चमत्कार प्रतापगढ़ के पास ब्रह्मोत्तर (शांतिनाथ) में हुआ था वहां बीसा नरसिंह पुरा नाति के १०० घर थे। यहां की जातष्ठा के लिये उनके गाछ के भतारक जी नहीं था सके अतः
॥१२॥
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॥१३॥
उन्होंने भ० हेमचन्द्र को लिखा कि आप भी मेरे भाई ही हैं, मैं नहीं आ सकता हूँ अतः यह प्रतिष्ठा आप करा दें। श्री हेमचन्द्राचार्य ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया और प्रतिष्ठा के सर कार्य निर्विननया सम्पन्न कराये पर प्रतिमाज को वेदी में विर जमान करने का मौका आया रब मालूम हुआ कि प्रतिमाजी बड़ी है और द्वार छोटा है सब लोग विचार में पड़ गये कि प्रातमाजी को अन्दर कैसे लेजाया जाय समाज में चिन्ता की लहर छा गई उस समय एक श्रीवक ने कह दिया कि प्रतिष्ठाचार्य को प्रविष्टा कराने के पहले इसका विचार करना चहिये था इस पर महाराज श्री तीन दिन तक आहार जज्ञ का याग कर प्रतिमा के समक्ष ध्यानरक्ष बैठ गये । तीसरे दिन समज के मुखियाओं को बुला कर कहा कि उठायो प्रतिमाजी को अन्दर ले जायें। लोग विचार में पड़ गये कि छोटे द्वार में से प्रतिमाजी को कैसे अन्दर लेजाया आयगा महाराज श्री ने कहा कि आप लोग चिन्ता न करें सबठक होगा। लोगों ने प्रतिमाजी को पठाया तो प्रतिमा का वजन बहुत हल्का हो गया था और ज्योंही द्वार के पास पहुँचे कि प्रतिमा छोटी होकर वासानी से भन्दर चली गई और जाने के बाद फिर उतनी ही बड़ी हो गई ईस घटना को जान कर सारी समाज ने हेमचन्द्राचार्य की महती प्रसंशा की आज भी शांतीनाथ में उसी मंदिर में षही प्रतिमाजी विराजमान है सैंकड़ों यात्रा वहां की बन्दना करने जाते रहते है। सं १९१८ में खाधु में आपका स्वर्गवास हो गया आपके स्मारक के रुप में खांधु मंदिर जिस्मै दाहिनी तरफ छतरी बनी हुई है जिसमें आपके चरण प्रतिष्ठापित किये गये है आपके शिष्य पं. दौलतराम पं० पनालाल और पं0 गिरधारीलाल में से भापके आदेशानुसार आपके आदेशानुसार अापके पट्ट पर पं० गिरधारीलाल का भ० क्षेमकीर्ति के नाम से भट्टारक स्थापित किये थे।
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* भट्टारक क्षेमकीर्ति *
॥१४॥
भ० तेमकं किंजी को ५ वर्ष की उम्र में वि.सं. १९१० में भ. हेमचन्द्रजी ने शिष्य बनाये थे। आप जयपुर के निवासी खंडेलवाल जाति के पांड्या गोत्री थे श्रापका बचपन का नाम गिरधारीलाल था। विक्रम सं० १९२३ में नरोडा में सुरत निवासी श्रीमान् सेठ सोभागचन्द मेघराज ने बड़ा भारी उत्सव कर बड़े समारोहपूर्वक भ. हेमचन्द्र के पट्टपर स्थापित किये थे। आपने अपनी सच्चरित्रता के कारण सारी समाज में अच्छी ख्याति प्राप्त की थी।
श्रापको वाणी में कुछ ऐसी सिद्धी थी कि आपने कह दिया यह अमिर होता था। इस प्रकार अपने शुभाशिवदों से सैंकड़ों लोगों का उपकार किया था। अनेकों बार तीर्थ यात्रार की और अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठाए' कराई थी। उन दिनों १६३५ में केशरियाजी क्षेत्र में श्वेताम्बर समाज की ओर से ध्वजादरड कलश चढ़ाने के प्रयत्न किये जाने लगे थे। इस बात की जानकारी मिलते ही आपने इसका विरोध किया और इसके लिये भ. गुणचन्द्र, भ० कनक कीर्ति, मा धर्मकोति, भ. राजेन्द्र कति को सहल बल श्रामत्रित किये । सभी भट्टारक अपने शिष्यों व चपरासी आदि २०० व्यक्तियों को लेकर आये। उधर श्वेताम्बर साधु भी बड़ी संख्या में एकत्रित हुए थे। बाजार में ही भट्टारकों व श्वेताम्बर साधुओं के आपस में विसंबाद हो गया, विवाद बढ़ते बढ़ते मारामारी तक नौबत आगई। अंत में सब भट्टरक अपने शिष्यों सहित मदिर के समक्ष पंक्ति बद्ध खड़े हो गये और श्वेताम्बर को मदिर में जाने से रोक दिये और वजादण्ड कलश नही चढ़ाने दिये।
आपने अनेकों स्थानों पर नरसिंहपुरा समाध के जगहों की मध्यस्थता कर उनको मिटाया । विसं.
1॥१४॥
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१६७y मार्गशीर्ष शुक्ला ८ शुक्रवार को दिन में २ बजे प्रतापगढ़ में आपका स्वर्गवास हुआ। अपनी मृत्यु के दो घन्टे पूर्व पंचों की समक्षता में प्यारेलाल को अपने पार भ० यशक ति के नाम से स्थापित किये थे। आपका अन्तिम संस्करण घड़े समारोह पूर्वक किया गया था। करीव १०८०० दस हजार जनता ने शव यात्रा में भाग लिया था। तालाब के रास्ते पर जहां आपका अन्तिम संस्कार किया गया था श्रापका स्मारक बना हुअा है । आपने ऋषभदेव ( केशरियाजी) में एक मकान खरदा था भाज उसी स्थान पर म0 यशकीर्ति भवन बना हुआ है। अापके निम्न सुयोग्य शिष्य थे। १ पं० किसनलाल, २ पं० चिमनलान, ३६० मन्नानास, ४ पं० होरालाल,
५० प्यारेलाल, ६ पं. रामचन्द्र, पं. किशनलाल
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* भ० यशकीर्ति
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भ० यशकीतिजी महाराज का जन्म विक्रम सं० १९५१ में ठाकरडा (वागड़) निगमी अष्ठी उदयचन्द की पत्नी सुन्दर बाई के उदर से हुआ था। श्राप , नरसिंहपुरा जाति के पटनर (खड़ नर । नायक गोत्री थे। आपके ५ भाइयों में से ३ बड़े और एक थापसे छोटा या आपके 'काका पं० किशनलाल जो कि भाक्षेम कीर्तिजी महाराज के शिष्य थे अंधे हो गये थे अतः उन्होंने अपने भाई उदयचन्द मे एक पक्ष की मांग की 1 उदयचन्द ने कहा आप कहो उसको आपकी सेवा के लिये रखई । तब उन्होंने प्यारेलाल को मांग की मो सं० १६५७ में प्यारेलाल को भेंट कर दिया। प्यारेलाज बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि
और प्रतिभाशाली थे। अापका अध्ययन भ० तेमकीतिजी महाराज की संरक्षकता में ही हुआ था पाप १५ वर्ष की उम्र में ही शास्त्र सना में भाषण और भणमोपदेश द्वारा जनता को मुग्ध कर देते थे। प्राय
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१६॥
नेखन कला में भी बड़े प्रवीण थे और बड़े सुपर अक्षर लिखते थे। साथ ही आप यंत्र मंत्र वैधक ज्योतिप आदि में भी सिद्ध हस्त हो गये थे। आपके इन गुणों पर मुग्ध होकर विक्रम सं० १६०४ मार्ग शीर्ष शु. को भ० क्षेमकीर्तिजी महाराज ने अपने पट्टपर भ. यशकीर्ति के नाम से स्थापित किये थे
आपने भ. पदस्थ ग्रहण करने के बाद सर्व प्रथम गुजरात प्रान्त में भ्रमण कर अच्छा प्रभाव स्थापित किया उसके बाद १९८२ में अपने गुरु म. क्षेमकीर्तिजी के स्मारक (छतरी) की प्रतिष्ठा कराई जिसमें सभी प्रान्तों की नरसिंहपग समाज एकत्रित हुइ थी। और सब पंचोंने भ० यशकीर्ति महाराज को पछेबड़ी समर्पित की धीरे धीरे आपकी त्याग भावना बढ़ती गई । २५ वर्षो से चातुर्मास में एक ही पत्र का पाहार करते हैं। और १५ वर्षों से घृत का त्याग कर दिया है। श्राप भट्टारक पदस्थ पर होते हुए भी म्याना पालकी गद्दी तकिये छड़ी चवर पशु वाहन की सवारी आदि का सर्व था त्याग कर दिया है। आपको शान्त च गंभीर द्रा और आपका प्रभावक व्यक्तित्व प्रत्येक व्यक्ति के हृदय पर अपनी गहरी छाप डालता है। आपका उपदेश बड़ा हो प्रभावकारी होता है । साथ ही संगीत और सभी प्रकार के वाद्य बजाने में भी आप बड़े निपुण हैं आपने अपने जीवन में इतनी प्रतिष्टाए की हैं जितनी पहले के किसी भी भट्टारक ने नहीं की होगी। समाज में अनेकों स्थानों पर आपसी वैमनस्य थे उनको निपटाये । वि. सं. १६६५ में ऋषभदेव में चौ मंजिला भ० यशकीति भवन के नाम से भवन बनाया है जिसमें श्रौषधालय, चैत्यालय और सरस्वती भवन की स्थापना की है । सरस्वती भवन में हस्त लिखित व मुद्रित करोब ३००० प्रथों का संग्रह है। कई शास्त्र १३ वीं शताब्दी के लिखे हुए तक हैं। यशकीनि यम का उद्धघाटन समारोह बड़ी भूम धाम से किया गया था उस अवसर पर माई तक इन्द्रवज विधान कराया गस था । पूज्य श्रा. शांति सागरजी म.हाणी व अनेक स्यागो मुनि और श्रावक गण एकत्रित हुए थे। सरे गांव की आम जनता को प्रीतिभोज दिया था देवस्थान विभाग ने केशरियाजी मंदिर से तमाम लवाजमा उपकरण श्रादि देकर पर्ण सहयोग दिया था। आपने शिक्षा प्रचार के क्षेत्र में भी बड़े ही प्रसंशनीय कार्य किये हैं । वि.म सं००७
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में प्रतापगढ़ में विशाल छात्रालय की स्थापना की है। छात्रालय की आधारशि अनेक पद विभूषित श्रीमंत सर सेठ हुकमचन्दजा साने र ख थी वि.सं. २०१६ में बड़े भारी समारोह पूर्वक श्री सीमधर जिना लय को प्रतिष्ठा कराई थी। इसी प्रकार बालकासि वावगड और बांसवाड़ा में भी छात्रालय स्थापित कराये एवं अनेक पाटश लाए' स्थापन कराई । आपने सारे भारत वर्ष के जैन तिर्थो की कई बार त्राएं की है। कुछ वो नक तो प्रति वर्ष तीर्थराज सम्मेद शिखरजी की यात्रा करते थे अपना सारी सम्पत्ती को सस्थाओं में देदी है। ऋषभदेव का म० यशकीर्ति भवन भी दृस्ट ढोड कर समाज को सौंप दिया है। भवन के साथ १००००) र नकद एवं गहरी का लवाजमा उपकरण शास्त्र बरनि फर्निचर आदि सब माज को सौंप पर अपना अधिकार हटालिया है। ज्यों ज्यों श्राप सम्पति से मोह इटाते. जाते हैं समाज श्रापको अधिक भेंट देने लगी है अब भी जो कुछ भेंट आता है सघ सस्थाओं को देदी जाती है। प्राप के पदेशों से लाखों लोगों ने आत्म कल्याण का मार्ग अपनाया है सारी दिगम्बर ममाज में भाप के राम के अनुरुप पशकीर्ति का विस्तार हुमा है। पूज्यवाद भानार्थी शांतिसागर जी महाराज की समक्षता में और अन्य प्रसंगो पर अनेक उपाधिया। वं अभिनन्दन पत्र समर्पित किये हैं। आपके ३ सुयोग्य शिष्य १ श्री पं. रामचन्द्रजी २ पं. किशनलालजी ३ पं. दाइमचंदजी हैं। पं. रामचन्द्रजी शिक्षण संस्थाओं की देखभाल करते हैं। पं. गइमचंन्दी
परेश के साथ २ यत्र मंत्र और ज्योतिष के भी जानवर हैं। और संगीत कला में तो बड़े की निपुण
आपकी संगीत कला पर मुग्ध होकर आपको " संगीत शिरोमणी " की उपाधो प्रदान की गई है। पं. किशनलालजी महाराज श्री की सेवामें रहते है वे भो पूजन पाट एवं संगीत पालिके जानकार है। वर्तमान समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए महारान भी ने नया शिष्य बनाने का विचार छोड़ दिया और भट्टारक नही की स्मृति हमेशा स्थायी रखने के लिये सम्पत्ति का ट्रस्ट दीड कर दिया है।
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श्रीमद् पंडित रामचन्द्र
चाल गौर वर्ण और रहने वाला व्यक्तित्व, चालस्य खुद जाने वाले। बाहर से
वाद की घोड़ी और चार से ढँका हुआ हट्टी भर हड़ियों का ढांचा, छोटा कद और सम्बी सलाद वृद्धव के परिचायक पूर्ण श्वेत केश समापय के पूर्व तक छिपा और निराशा के कट्टर शत्रु जबसे जगे सभी से सुबह मान कर क.म. में कुछ उम्र दिखाई देने वाला स्वभाव परन्तु भीतर से अत्यन्त कोमल यह
है
प रामचन्द्र का संक्षिप्त परिचय |
आपका जन्म विध्म सं० १६६२ में नीमच के पास शाम
के त्रिमी गुजरत
म सं. १६६६ में भ० रोमकीर्तिजी मद्दाराज
त्रास जगन्नाथ के घर में हुआ था आपकी माता का नाम इमामबाई था आपके पिता गन्ना थापको ६ माह का रखकर ही स्वर्ग-सी हो गये थे । बाई आजीविका के लिये क के बलक रामचन्द्र को लेकर प्रतापगढ़ चली गई । का प्रतापगढ़ में चातुर्मास था उनके पास मण्डल का पाठ सुनने एक श्वेताम्बर स्थानक वासा धूलजी संठ वाया करते थे एक दिन उन्होंने कहा कि एक ४ वर्ष का मक्षण का लड़का है आप शिष्य रखना चाहें तो मैं उसकी मां को समझा कर दिलवा दूं' | महाराज श्री ने कहा कि माणको शिष्य रखने से क्या लाभ होत परन्तु यहां पर बैठे हुए महराज श्री के शिष्य पं. विशनलाल पं. हीरालाल पं. प्यारेलाल और रसोइयां वालजी आदि ने कहा कि ब्राह्मण है तो क्या हर्ज हे गौतम गणधर भी तो श्राह्मय थे अपने यहाँ एक छोटा बालक होगा वो इन सब का मनोरंजन भी गा
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और पढ़ रिता क' यो योगा तो FT रहेगा नहीं तो गरी में दूसरा काम करेगा ऐसा कह कर सब पंबित पालक को देखने गये बालक को दी बुद्ध और चपल देख कर खुश हो गये और ५. हाराजानी यात्रा को उठा लाये । विक्रम सं. १९६७ दीपावला के दिन से आदिनाय स्तोत्र से आपका अध्ययन प्रारम करा गया । क्रम म. १९७५ में म.मकीर्तितो महाराज का स्वगत्राम हो गया तो म. -य कौतिकी महाराज ने आपके अध्ययन के लिये एक हित की व्यवस्था कर दी। परन्त १७E में भ० यशकीतिजी महाराब गुजरात में भ्रमण करने पधारे पब से आपका अध्ययन छूट गया और गह! के सारे कार्यों का उत्तरदायित्व प्रापके फों पर श्राफ्ला फिरभी पापने अभ्ययन प्रारम रक्खा और गद्द के संपूर्ण कार्यों को योग्यतापूर्वक व्यवस्था करने लगे यद्यपि मापने कोई परिक्षा उत्तीर्ण नहीं की परन्तु सभी विषयों में अच्छी योग्यता रखते है। शास्त्र सभा में जनता को मुग्ध कर देते हैं। संत्र मंत्र ज्योतिष और देश में भी आपको अच्छी योग्यता है। वास्तु शास्त्र में तो आपकी गति अत्यन्त प्रसंशनीय है। मन्दिर मुरती ध्वजादण्ड काश वेदी आदि के प्रनाशिक नाप तत्काल निकाल देते हैं। आपकी देख रेख में कई शिखर बडू मंदिरों और जज जिन गृतियों का निर्माण या है। इसी प्रकार गृह वास्तु शास्त्र का भी अच्छा ज्ञान है। आपके द्वरा म.नों प्रतिष्ठाएँ और विधान कराये गये हैं।
प्रतिष्ठा पाठ के शास्त्रीय ज्ञान के अलावा प्रस्त्रर बुद्धि के कारण तत्सम्बंधी अन्य प्रायोजन मी बडे रमणेय और चिन्तारूर्षक रहते हैं। इतिष्ठा कराने और विधि विधान सम्पन्न कराने की मापको अपनी निराली ही शैली और विशेषताएं है । प्रतिष्ठा में कल्याणक एवं अन्य दृष्य एसो माधब के साथ दिखाये जाते हैं जिनसे अनता बड़ी प्रसन्न होती है। भापकी प्रविष्टा कराने की पद्धति की अनेक भाचार्यों मुनियों प्रतिष्ठाचार्य विद्वानों और समाब के प्रतिष्ठित नाओं भादि ने मुक्त कंठ से प्रसंशा की है। जिन दिनों प्रविष्य में कल्याणक की झियाए' होती है अाप इतने
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कार्य म्वस्त रहते हैं कि खाना पीना और सोना तक छोड़ देते हैं यही कारण है कि समाज पापको हजारो रुपये भेंट करता है। परन्तु मापने अपने पास मात्र १००१) रु. से मधक न रखने को प्रतिज्ञा करली है तदनुसार भेंट को रकम संस्थाओं में देते रहते हैं। सारे भारत वर्ष की दिगम्बर जैन समाज में भापकी ख्याति है धारने अपना सारा जीवन संस्थानों की सेवामें लगादिया है।
प्रतापगढ़ में आपके द्वारा संचालित मीभ राशकति दि जैन बोटिंग प्रतापगढ़ दिगम्बर जैन समाज की आद्वितीय विशाल शिक्षण संस्था है। जिस के अन्तर्गत भ० यशकीति माध्यमिक विद्यालय (राजस्थान सरकार द्वारा प्रमाणित ) श्री रमण बहिन 'द. है। कन्याशाला श्रादि संस्थाएं चल रही हैं। छात्रालय में श्री सीमन्धर भगवान का भव्य जिनालय बनवाया है जिसकी प्रतिष्टा बड़े समारोह पूर्वक की गई थी। इस प्रतिष्ठा के पूर्व प्रतिमाजी लाने के दिन से हो बापने समता पनिठा नहीं होड़ी दर तकदीर चावल खाने का त्याग का दिया था। प्रतिष्ठा होने के बाद प्रतापगढ़ की समाज ने मन दुध की स्वीर बनाकर आपकी प्रतिज्ञापूर्ति का समारोह किका था नया मन्दिर जीमें श्रामसभा कर आपको मान पत्र समर्पित किया गया था। प्रसिद्ध तीर्थ भूमि केशरियाजो (समय) मे भ. यशको भवन का निर्माण आपकी देख रेख में ही किया गया था एवं बहैं। पर श्री ऋषम दि. जैन मण्डल श्री जीवदया संघ श्री ऋपनदेव दि जैन तीर्थ रक्षा कमेटी श्रादि संस्थाएं श्राही के द्वारा स्थापित की गई है। ऋषमदेव की समाज ने बापका संवानों के उपलक्ष्य में कृतज्ञता स्वरूप आपको । जैनरत्न की उपाधी प्रदान कर बहुत बड़ा रजत शिल्ड समपित किया था। बापका ही सास था कि ऋषम देव में प्रभा- दिगम्बर जैन नरसिह पुरासमा I का एतिहासिक महा सम्मेलन सफलता पूर्वक सम्पन्न इया था और अ. भा. दि. जैन नरसिंहपुरा महासभर को स्थापना हुई थी।
पण्डितजी के अनन्य स्नेही श्रीमान जौहरी मोतीलालजी मीयदा उदयपुर की समाज के प्रमुख व्यक्ति हैं अापने उदयपुरमें बड़े समारोह पूर्वक सिद्धचक्र विधान कराया था, उस अवसर पर उदयपुर को दिन समाज ने आपको "धर्मरत्न की उपधि धान की थ। साथ ही रहिट रामचन्द्रजी महालय को भी अभिनन
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पत्र समर्पित किया था। इसी प्रकार सरोदा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के अवमा पर एकत्रित समाज ने आपको धर्म भूषसकी उपाधि से विभूषित कर अभिनन्दन पत्र अर्पित किया था । फलासिया ( झालाबाद) में पन प्रभ दि. जैन बेडिंग एवं बांसवाडा में श्री भ, यशकी ति दि जैन छात्रालय का स्थापना आरके ही प्रयत्नों का फल है। वर्तमान में भी ये सम्याएँ आपके ही महामंत्रीत्व में चलारही है।
अ. भा. दिगम्बर जैन महासमा, मालवा प्रां. दि० जैन महासभा,शांति सागर स्मारक समिति, दिगम्बर जैन मंदिर जीणोद्धार कमेटी चितीद आदि अनेक संस्थाओं के सदस्य रहकर समाज को सेवा कर रहे हैं। अाप की इस वृद्धावस्था में कार्य करने की वही स्फूर्ति हैं। अापकी कर्मठता को देख कर पूज्य श्राचार्य कुथुसागर जी महाराज आपको लोहे का पुतला" कहा करते थे । और प्रतापगढ़ के कवि श्री देवी चन्दशी तो आपको करामान गुतता कर सामनी कवितालो में गाया करते हैं। इस प्रकार आपका साराजीवन समाज की सेवा कार्यों में लग रहा है। हम श्री जिनेन्द्र देव से प्रारके दीर्घायुष्य की कामना करते हैं ।
पं० चन्दन लाल साहित्यरत्न
ऋषभदेव ( राजस्थान )
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जल यात्रा विधि
नोट:-जल यात्रा विधि की आवश्यक सामग्री कलश, श्रीफल, प्रारदादन, छन्ना,
अंग पोद्धरणा, अष्ट द्रव्य, पान, माला, रोकड़े (रूपा नाणा । दूध, शक्कर (मिश्री) दीपक, दपण, अजा पाटला, सूत, (लका) कुकुम आदि पहले से तैयार कर साथ में ले लेना चाहिये ।
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सर्व प्रथम शुभ मुहूर्त में प्रात काल मन्दिरजी या मण्डप से यन्त्रजी लेकर गाजे बाजे संगीत आदि बड़े समारोहपूर्वक सहधी श्रावक श्राविकाओं के साथ तालाव या वापिका पर जाना चाहिये फिर दोहरे बन्ने को उसके चारों कोने पकड़ कर जल में डूबता हुआ मुले की सरह पकड़ रक्खें उस छन्ने में यन्त्रजी विराजमान करके वरुण देवता का आहवाहन करके मध्य कर्णिका पूजा (वरुण देवता की प्रष्ट द्रव्य से करें। जिसमें १ श्रीफल भी चढ़ा।
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॥
२
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तत्पश्चात् क्रम से श्री, हो, वृतिः कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, तुष्टि, पुष्टि, इन 7ठ देवियों का आहवानन करके श्राठों को अलग २ अर्घ चढ़ावें । पश्चात् दिसर्जन करके पूजन में चढ़ाया हुआ द्रव्य श्रीफल सहित जलमें क्षेपण करदें तथा यन्त्र का अभिषेक करके चौकी (पाटा) पर विराजमान कर केशर पुष्प चढ़ावें । पश्चात् छने हुवे जल से घड़ों को साफ कर यन्त्र की साक्षीपूर्वक कलश भरें। पश्चात् कलशी के तिलक करके सभी कलशों में दूध, सर्करा (खड़ी साकर) रजत मुद्रा (चांदी का रुपया, अठन्नी. चवन्नी धादि) क्षेपण कर कलशों पर श्रीफल रख कर शुद्ध वस्त्रों से आच्छादित करे एवं पान रख कर सूत्र (लच्छे) से बांध कर कलशों को पुष्प माला पहिनावें। मुख्य कलश पर पांच या सात वजाए तथा दर्पण विशेष रूप से बांधे। पश्चात् कलश उठाने वाली इन्द्रारिणयों ( श्राविकाओं) के तिलक कर माला पहिनावे । पश्चात् एक अध्यं चड़ा कर श्राविकाओं को कलश दे देवें । समस्त श्राक गण आगे यन्त्रजो के साथ रहे। उनके पीछे सर्व प्रथम मुख्य कलश बालो श्राविका तथा उसके पीछे बाकी सब कलशों वाली बहिनें रहे। इस प्रकार पूर्ववत समारोहपूर्वक जिनेन्द्र भगवान जय ध्वनि पूचक मण्डप में पहुँच कर प्रतिष्ठाचार्य पुष्प तथा अक्षत से कलशों को बधाये पश्चान वेदी के पास विराजमान करे ।
॥ जल यात्रा विधि ॥ प्रथमं तडागे जल समीपे चतुष्पथे स्नपनं क्रियते पश्चाज्जल मध्ये धौत वस्त्र द्वाभ्यां पायें अधार्य मल मध्ये निमज्ज्य यंत्र' धौत मध्ये प्रक्षिप्य पूज्यते । प्रथम यंत्र मध्ये कर्णिका पूजा पश्चाई कीनां पूजा कर्तव्या ।
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३
॥
(वरुण देवताइवाननम् ) वारूणं यंत्र मुद्धृत्य, पूजयेद्विधि पूर्वक
___ भोगैश्वर्यामिवृद्धयर्थं, जनानां हित काम्यया ।। १ ॥ ॐ ह्रीं वरूणदेव अलयात्रा महोत्सवे प्रागच्छागच्छ तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ठः मम सन्निहितो भव भव वषट् । श्राहाननं, स्थापनं, सनिधिकरणं, ॥ यंत्रस्थापन ।
(पुष्पांजलि क्षिपेन् ।
॥ अथ मध्य कर्णिका पूजा ॥ पाशपाणिमपानाथ, पश्चिमाशा पति वरम् ।
पूजयामि महा भक्त्या, सर्व कन्याय कारकम् ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं वरूण देव सपरिवारेण जलयात्रा महोत्सवे आगच्छागच्छ बली गृहाण २ जलं मुच२ स्वाहा ॥
(पुष्पांजलिं क्षिपेन) ॐ ह्रीं वरूपा देवाय इदं जलमित्यादि । इति मध्य कर्णिका पूजा ।
॥ अथ प्रत्येक पूजा ॥ हिमाद्रि संस्थिता रम्या, पम द्रह निवासिनीम् ।
भूजयामि महाभक्या, श्री देवी श्री विधायिनीम् ॥ ३ ॥
॥
३
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॥
४
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सुवर्ण वर्ण चतुर्भुजे पुष्प कमल मुख हन्ते श्री देवी आगच्छ २ बलि गृहाण २ जलं मुच २ स्वाहा ।
ॐ ह्रीं श्री देव्यैः इदं जलं गंधं इत्यादि । जन्मोत्सवे जिनेन्द्र स्य, मातुर्भक्ति परायण
पूजयामि महाभक्त्या, ही देवीं ह्रीं विधायि नीम् ॥ ४ ॥ ॐ हीं श्रीं क्लीं सुवर्ण वणे चतुभुजे पृष्प कमल मुख हस्ते ही देवी आगच्छागच्छ बलिं गृहासा २ जलं मुच २ स्वाहा
ॐ ह्री ही देव्यः इदं जलंगंधमि त्यादि । मुन्दा सर्वदा लोके निस्वानंद विधायिनीम्
जयामि महा भक्त्या वृति धृति विधायिनीम् ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सुवर्ण वर्णे चतुर्भुजे पुष्प कमल मुख हस्ते धृति देवी आगच्छागच्छ वली गृहाण २ जलं मच २ स्वाहा
ॐ ह्रीं घृति देव्यैः जलं गंध मित्यादि । शरद् भूचंद्र घाला, कीति कल्याण कारिणीम
पूजयामि महा भक्त्या, कोनि' कीर्ति विधायिनीम् ॥ ६ ॥ ॐ हीं श्रीं क्लीं सुवर्ण वणे चतुर्भुजे पुष्प कमल मुख हन्ते कीर्ति देवी आगच्छागच्छ बलि गृहाण २ भलं मुच २ स्वाहा ।
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*ही फीति देच्यौः जलं गंधमित्यादि । पन्च पल्योपमा लक्षा, विमलाविनी पदा पूजयामि महाभक्तया, बुद्धिं बुद्धि विवापिनीम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्ली सुवर्ण वर्षे चतुर्भुजे पुष्प कमल मुख इस्ते बुद्धि देवी आगच्छ २ बजि गृहाण २ जलं मुच २ स्वाहा । ॐ ह्रीं बुद्धि देशोः इदं जलं गंधमित्यादि ॥ कमलाऽऽगच्छतु गेह, परमानन्द दापिनी । पूजयामि मशभक्तया, लक्ष्मी लक्ष्मी । करां गृणां ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सुवर्ण वर्णे चतुर्भुजे पुष्प कलम मुख हस्ते लक्ष्मी देवी प्रागच्छ २ बलि गृहाण २ जलं मुच २ स्वाहा । ॐ ह्रीं लकमी देव्यैः जलं गंधमित्यादि । तुष्टि करोति तुष्टिः स-ततं सर्व शरीरिणां । पूजयामि महाभक तया, तुष्टि तुष्टि विधायिनीम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सुवर्णवर्णे चतुभुजे पुष्प कमल मुख हस्ते तुष्टि देवी मागच्छ २ बलिं गृहाण २ जलं मुच २ स्वाहा ॐ ह्रीं तुष्टि देव्यैः जलं गधमित्यादि
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६||
जन्माभिषेक कल्याण, कारिसी परमेश्वरीम् ॥ पूजयामी महाभक्तया, पुष्टि पुष्टि विधायिनीम ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सुनर्णणे चतुभुजे पुष्प कमल हस्ते पुष्टि देवी प्रागच्छ २ बलि मृहाय २ जलं मुंच २ स्वाहा । ॐ हीं पुष्टिव्यः जलं गंधमित्यादि ॥
(विसर्जन मंत्रः) इथंच देवताः सर्गः पूजिताच मयाधुना । सर्वाः मम प्रतिदन्तु सर्व कन्याण दायिनः ॥ इति विसर्जन मंत्रः ।
पश्चान्नारिकेलं सहित पूजोपहार जलमध्ये संत्यज्य, यंत्र संनिधौ धौत मध्यजलेन कुभान् संभृत्य तिलकं कुर्यात पश्चात् शर्करा दुग्धे प्रक्षिप्येते तदनंतर अष्ट विधार्चनं क्रियते । पश्चात् महोत्सवेन चैत्यालये समानीया।
॥ इति जलपात्रा संपूर्णम् ॥ 6 सकलीकरण विधानम् 19 सर्व प्रथम पूजा या विधान करने वाला स्नान कर शुद्ध होकर श्रो जिनेन्द्र भगवान के सन्मुख निम्न मन्त्र का १९०८ बार जाप्य करके आत्म शुद्धि करे ।
ॐ ह्रीं णमो अरहताण, ॐ हीं मो सिद्धाणं ,
६.
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७
॥
ॐ ह्रीं णमो आई रियाणं, ॐ ह्रीं सामो अझायाणं, ॐ ह्रीं णमो लोएसच साहू ।
अप्ठोचः सहस्र जाप्येनेन्द्रेणात्म शुद्धिः कर्तव्याः ।
पश्चात् निम्न मन्त्र पढ़ते हुवे २१ लोग अपने दोनों हाथों को सऊंनी ( अगुष्ठ के पास वाली ) अंगुली से पकड़ कर अपने सिर पर रखता अपने श्रापको इन्द्र होने का चितवन करे ।
ॐ वनाधिपतये ओ हो म ऐं ह्रीं ह्रः सू हैं . इन्द्र संवौषट् एक विंशतिवारानात्मान मधिवासयेत् ॥
( इति इन्द्र आहवाननं ) पश्चात् मुकुट, कुण्डल; मुद्रिका, कंकण, मेखला, करधनि, आदि अभूषण धारण करे ।
चो निर्मली करण मन्त्र है ॐ हीं श्रीं बद पद वाग्वादिनी नमः स्वाहाः ॥ यह मन्त्र पढ़ कर धर्भ शलाका से अपनी जीभ पर जल छांट कर वचन शुद्धि करे ।
। शिस्त्रा बंधन मत्र । ___ॐ नमो भयवदो बढमाणस्स रिसहस्स चक्क जलं गच्छ २ आयासं गयाल लोयाणं भूयाएं जुगमा विवाहो वारायंगणेवा घणेला मोह मेर रक्ष २ शहा । ॐ ह्रीं वषट
इस मंत्र को पढ़कर चोंटी के गांठ लगाये ।
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16 ||
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प्रथम अंगन्यास दोनों हाथों के अगुष्टों से हृदय आदि स्थानों को स्पर्श करने की क्रिया को अगन्यात कहते हैं ।
ॐ ह्रीं णमो अहंताणं स्वाहा । ( हृदये ) ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा । ( ललाटे ) ॐ हूँ, णमो पाइरियाण स्वाय ( शिरसो दक्षिणे ) ॐ ह्रौं एमो उवज्झायाणं स्वाहा (शिरसा पश्चिमे ) ॐ ही लोए सब्द साहणं स्वाहा ( शिरसो बामे )
* द्वितीय अंगन्यास * अनंतर ऊपर के मंत्रों को फिरसे पड़ते हुवे निम्न प्रकार इसरा अगन्यास करे ।
ॐ ह्रां णमो अरहताणं स्वाहा ( शिरस: मध्ये ) ॐ ही णमो सिद्धाणं स्वाहा ( शिरसः आग्नेय भागे ) ॐ हामो आइरियाणं स्वाहा ( शिरस नैऋत्य भामे ) ॐ ह्रौं णमो उपज्झायाणं म्वाहा ( शिरसः वायव्ये ) ॐ हा मो लोर सञ्चसाहणं स्वाहा (शिरसः ईशाने )
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६॥
|| तीसरा
मो धरहंताणं
सिद्धार्थ
ही सभो
मो
ॐ ह्रौं णमो ॐ हः यमो ॐ देवय असा रक्खंतु मे शरीरं, देवासुर
गन्यास ॥
वाइरियाणं
उवज्झायाणं लोए सव्व साहूणं स्वाहा ( वाम पृष्ठे ) बांये
अट्ट सहस्सा अड कोड़िउ पण मिया सिद्धाय स्वाहा ||
स्वाहा
( दक्षिण जे )
स्वाहा ( वाम भुजे )
स्वाहा ( नाभि मंडले )
स्शहा ( दक्षिणा पृष्ठे ) दाहिने पछवाड़े
पछवाड़े
हस्त निर्मली करण् मंत्र 10
ॐ ह्रीं मरता श्रुतांगदेवी प्रशस हस्ते हीँ फट् स्वा
N
इत्यंगन्यासः ||
इतिहस्त निर्मलीकरणम्
हृदय शुद्धि मंत्र
ॐ ह्रींनी सर्वपाप क्षयंकरी श्रुतज्ञानदेवी हन दन दह दह ताँ दीं हूँ क्षौ चः दीर धवले तसं ह्रस्वाहा काय शुद्धिमहे साहा ।
( इति हृदय शुद्धिः )
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110)
।
निम्न मंत्र पढ़कर अपने मुख की शुद्धि करे ॐ नमो भगवते क्रीं ह्रीं चन्द्र प्रमाय चन्द्रेन्दु महिताय चन्द्र मूर्तिनि सर्व सुख रजिनि पुनी महे स्वाहा ।
(इति आम मुखाभिमंत्रएम् ) ra नेत्र पवित्रीकरण मंत्र ॐ हीं क्षौ महामुद्र कपिल शिखे हू फट् स्वाह।।
(लोचनाभिमंत्रणम्) ॐउपांग पवित्री करण मंत्र ॐ नमो भगवते ज्ञान मर्ते सप्तशत चल्लकादि महा विद्याधिपते विश्व रुपाणि कौं हा ही ह्रौं संवौषट् ।
(उपांग पवित्री करणम्) • हृदय रक्षा मंत्र है ॐ नमो अरहताणं हृदयं ही रथ रव ह फट् स्वाहा
(हृदय रक्षा) a शिरो रक्षा मंत्र ॐ नमो सश्य सिद्धाणं हर हर शिरो रच रक्ष ढ़ फट् स्वाहा ( शिरोरक्षा ) ॐ नमो पाइरियाणं ही शिखो रक्ष रक्ष र फट् स्वाहा ( शिखा रचा ) ॐ नमो उक्झापाणं एवं हि भगरती बज्र कवचं वनिणि रक्ष रक्ष ह फट् स्वाहा ।
(इति मुख रक्षा)
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नीचे का मत्र पढ़कर वन कवच धारण करने का चितवन करे। ॐ नमो लोए सब साहूणं क्षिप्रं साधय २ का दस्ने शुनिनी दुष्ट रन्द १क्ष हैं फट स्वाहा ।
(इन्द्रस्य कवचम) ॐ अरिहाय सर्वे रक्ष रक्ष ह फट् स्वाहा
(इति परिवारक रक्षा ) पश्चात् इन्द्र दशों दिशाओं में पुष्पाक्षत क्षेपण करता हुश्री विघ्नों की शांति के लिये निम्न शांति पाठ पढ़ें ।।
विक्षिपन् दिक्षु सिद्धार्थान, यात विमिश्रितान
इन्द्रो विघ्नोपशान्त्यधं शांतिकं तदिदं पठेत् ॥
ॐ हूँ.चं फट् किरिटि घातय २ परिविधनान् स्फोट्य २ सहस्र खंडान करू २ पर मुद्रा छिन्द २ घातय २ प मंत्रा भिन्द २ चा फट् स्वाहा । सुसिद्धार्थानमि मन्य सर्वात दिक्षु विक्षिपेत् । सर्व विघ्नोपशान्त्यर्थं सकली काणं भवेत् ॥ कर्माष्टक विनिमुक्ता गुणाष्टक समन्विता ।
सिद्धाः सन्निहित सन्तु भव्य सत्व विमुक्तिदा ॥
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॥१२॥ 444
टं अभाव ई उ ऊ ऋ ऋ
इस मन्त्र को पढ़ कर सब दिशाओं में पुष्पाक्षत क्षेपण करे । यावन्मेरुर्महाद्याच्चन्द्रार्क तारका तावद्भद्राणि पश्यन्तु शांतिक स्नान पाठकाः
ॐ नमो भगवद्भयः सिद्ध ेभ्यक्षू तू तू लृ लृ ए ऐ ओ औ अं अः संर्वौषट् ।
·
+
॥ इति सकली करणम् ॥
।।१२ ।
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॥ श्री बलरागाय नमः .
ॐ समुन्य पन्त्र कल्याणक *
भद्वारक-भुवन कति त । प्रणम् जिन चौबीस के पन्च कल्याण जी, गर्भ अन्न तर ज्ञान अह निशस्य । चाहि समन्वय मंगल पाठ स्वान जी, नजि मार्थ फ्यान करे वग ब्रानजी ॥
.. अय जान धारी नई आबे, मात बप्न बु देखिये ।
टि के प्रभातहि पूछि रिउ का फल तीर्थ कर लेखिये ॥ सास्त्रि इन्द्र अबधि धनद पन्द्रा मात्र वर्षहु रत्न सों ।
छप्पन कुमारी गर्भ शोधन, राखि माता बत्न सों ॥१॥ इह विधि उन्मत्र धार, इन्द्र पर सुर मये, प्रमोनर नत्र मास माव पूरब भये ।। अन्म ममय तद देश घंट हरि बाजियो, इन्द्र चल्यो सब मैन्य, गमन तत्र मावियो ।
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गाजियो ऐरावत पड़िय सुर, जन्म नगरी आइया । इन्द्राणी माया मयि शिशु रखि, मात से प्रभु लादया । जय बय कात सुर देव नाचत, मेरु गिरि पै ले गये । ,
इम सहस अाठ सु हेम -, क्षीर जल ढारत भये ॥२॥ करि श्रृंगार सुलाप मात पित सौषियाराज तिलक सुरदेय धर्म न पिया । करि विवाद शुभ राजनीति मय धारिया , अन्त वैशम्प सुपाय मन्त्र नियरिया ।
ममता निवासी धन्य प्रभु तुम याय लोकान्तिक भने । प्रभु चार मावे भावना तहां इन्द्र हो पाये धने । बारूद है प्रभु पालखी में, बसन जन समझाधिया ।
नमः मिद्ध कर लौव करिके तप कल्याणक पाविया ॥ ३ :। शैल पक्ष भुनि वय ऋतु में प्रभु तप करें, मनः पर्यय शुम पाय भव्य जड़ता हर ॥ श्रादार रिहार कर सुनिहार रे नहीं . कर्म घातिया माश, ज्ञान केवल वही ॥
लाह ज्ञान केवल इन्द्र ज्ञानी समशरण रचाइया ॥ गणधर मुमनि अरु आजिका उ देव नर पशु पाइया ।। करि धर्म तन्द बखान में बहु भव्य जीव सम्बोधिया ।
थुति करि इन्द्र विहार को, गिरि शिखर योग निरोधिया ॥४ एक मास किय ध्यान शुम्ल मन धारिया, प्रकृति सहित जु अघातिय कर्म नियरिया । लघु पन्ताक्षर माहि प्रभु गत शिव तये , रहे केश नख, तन परमाणु विर गमे ।
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खिर गये जब सुर आप के. मायापि तनु निरामये । चन्दन प्रमख मकुटाग्नितें शुभ क्रिया का सब सुर गये । श्री पन्च कल्याणक महातम, मुनत भवि सुख पाइये ।
कहि भाव सेन सुदेव या लोक्य मंगल माइये ॥५॥ मलित चन्दन पुष्प शुभारत-श्चरू सुदीप सुधूप फला को ।
धवन मंगल गान रखाकुले जिन गृहे जिनराज महं. यजे ।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विशनि ती काग गर्भ, जन्म, तप, शान, निर्वास पन्च कन्याणकेभ्योऽध्य निर्वामीति स्वाहा ।
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* श्री लघु अभिषेक पाठ • ॐ श्री मन्मंदर सुन्दरे शुचिजलै धौतः सदभावतः । पोठे मुक्ति कर निधाय रचितं, त्वत्पाद पद्म स्रजः ॥
( पीठ प्रज्ञालन, श्री कारार्चनं ) इन्द्रोऽहं निज भूषणार्थ ममलं, यज्ञो पवीतं दधे । मुद्रा ककरण शेखराण्यषि तथा जैनाभिषेकोरसचे ॥१॥
- ( इन्द्रा भरणं यज्ञोपवीत धारणं ) - इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत्य, वरूण, वायु, कुबेर, ईशान, धरणेन्द्र, सोम इति दश दिग्पालेम्पोअर्थ ।
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( क्षेत्र पाल स्थापनं कुर्यात ) इन्द्रायान्कनैऋतोदधिमरू-चे शेष ईशान : जावान्निव वाहनायुभवधूनयुक्तांन्सुसंस्थापिवान् । ( इति दिक्पाल मा बालम
।
[ सम्मन के चारों तरफ चावल के १० ढेर स्थापित कर दियालों की स्थापना करें ] आगत्य देवी जननी प्रपूज्या नित्याविभूत्या नगराज मूर्ध्नि मृगेन्द्र मीठे वर पांडु कायां निवेश्य पूर्णभिमुखं जिनेन्द्रम क्षीरोद, दोयैरमरोप नित्यैः, त्रिबंगुसच्चन्दन बन्द्र मिश्रः श्रपूरिताष्ट सह संख्यान, प्रगृद्ध सत्कंचन रत्न कुमा म: पांडुकामल शिलागत, मादिदेव-पस्तापसः सुरश; तुशैल सूनि । कामप्रह मक्षत तय पृष्येः संभावयामि पुर एव तदीयविम् ॥
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[ निम्न मंगल स्तुति पढ़ते हुए के साथ भगवान बाकर विराजमान करें ] कैलाशे वृषभस्य निवृति मही- वीरस्य पारे
पायां वसु पूज्य सब्जिनयतेः सम्मेद शैलेदेम् शेषायामपिचोर्यंत शिखरे, नेमीश्वर स्याहतः निर्वायावनयः प्रसिद्ध विभवाः कुर्वन्तुनो मंगलम् मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमरे गणिः मंगल राम सेनाद्याः बैन धर्मो मंग
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( प्रतिमा स्थापन )
( इति मंगल स्तुति: )
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ॐ आहत्य, स्नफ्नोसितोपिकरणं, दध्यक्षताद्यचिंतान् । संस्थाप्योज्वल वर्ण पूर्ण कलशान्, कोणेषु सूत्रावृतान् । तून्सिंस्तुति गीत मंगल रच, चुब्धे जयसुध्वनिः । सोसाई विधिपूर्वकं जिनपतेः स्नानक्रियां प्रस्तुवे ॥
(चतुः कलश स्थापनम् ) [ चारों कोना पर ४ कलश स्थापन करें] हे इन्द्रदेव समाह बानयामहे स्वाहा । है इन्द्र देव पागच्छ २ इन्द्राय स्वाहा । इन्द्र परिजनाय स्वाहा । इन्द्रानुचराय स्वाहा । इन्द्र महतराय स्वाहा । अग्नवे स्वाहा । अनिशाय स्वाहा, सोमाय स्वाहा । वरूणाय स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । ॐ स्वाहा । भृः स्वाहा, भुवः स्वाहा । व स्वाहा। स्वधा स्वाहा (पुष्पांजलि क्षिपेत,
ॐ इन्द्र देशय स्वगण परिवृत्ताय इदं जलं गंधं पुष्पं अक्षतं नैवेद्य दीपं धूपं फलं अर्व दस्तिकं यज्ञ भाग्यं यजामहे प्रतिगृह्यतामीति साहा (अर्थ)
यस्यार्थं क्रियते कर्म, मप्रीतो भव मे सदा । शांति क' पौष्टिकं चैव सर्व कार्येषु सिद्धिदः ॥ ( इत्याशीर्वादः)
( इसी प्रकार दशी दिग्पालों के अर्ध चढ़ाना चाहिये ) ॐ अर्घ स्वस्तिक यज्ञ भाग चरूकै रोंभूभु व स्वधा । स्वाहा चैत्यभिम त्रितः प्रति दिशं संतर्पयामि क्रमात् ॥ सच्चन्द नायवत तोनिश्रीः विकास पुष्पांजलिना सुभवतया ॥ जैनाभिषेकेन समं समेतान् नद प्रहान् शान्ति करान्यजामि ॥
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आदित्य सोम मंगल बुध वृहस्पति शुक्र शनिश्वर राहु केतु नवग्रह देवताभ्योऽर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥
(इति दिक्पालानाम_वतारणम ) सद्ये नाति सुगन्धेन स्वच्छेन बहुलेन च स्नपनं क्षेत्र पालस्य, तैलेन प्रकरोम्यहं ।
तल स्नपनम् ॥ सिन्दूररूणाकारैः पीत वर्णेश्च कुकुमैः, चर्चनं क्षेत्रपालस्य सिन्दुरेण करोम्यहम् ।
सिन्दूरार्चनम् ॥ सद्यः पूतैः महास्निग्धैः शुभ्रः गुडाचं पिण्डकैः, नेत्रपाल मुत्ते देयात् गुरू विघ्नः विनाशनम् ।
सुस्वच्छ सौगन्ध्य सुनिर्मलेन सद्यन तैलेन मुदाधितेन ।
श्री क्षेत्रपालं बहु बिघ्न शान्त्य, संस्नोमि सिन्दा कृतानुलेपम् ॥ भो क्षेत्रपाल जिनपः प्रतिमाकपाल दंष्ट्रा कराल जिन शासन रचपात ।
तैलाभिषेक गुढ़ चन्दन दीप धूपैः भोगं प्रतीच्छ जगदीश्वर यज्ञ काले ॥ श्री कुमुद अजन चामर पुष्पदंत जय विजय अपराजित, मणिभद्रादि श्रष्ट क्षेत्रपालेभ्यो अर्थ' ।
॥ अथाष्टकं ॥ स्थानान्सुनान् प्रति पत्ति योग्यान, सद्भावमन्मान जलादिमिश्च । बैनाभिषेके समुपागतानां, करोमि पूजामह दिक्पतीनाम् ।।
गुड़ाचनम् ।।
॥६॥
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ॐ ह्रीं दशदिग्पालेभ्यो जलं 4 मानहे! स्वाहा । श्री खंडकपूर सुकुकुमाढ्य : गन्धैः मुगन्धीकृत दिग्विभागः ॥ जैनाभि० ॥ चन्दनं ।। शान्यतते रक्षत दीर्घमात्रै सुनिर्म रचन्द्र करावदात ॥ जैनाभिप० । अक्षतम् । अंभोजनीलोत्पलपारिजातः कदम्ब कुन्दादिवर प्रसूनैः ॥ जैनाभिपे० ॥ पुष्पं० ।। नैवेद्यकैः कांचन रत्नपात्र यस्तै दस्तैः हरिणासुन्नैः ॥ जैनामिपे० । नैवेद्यम् । दीपोत्करैः ध्वस्त तमोभिधाते, रुद्योदिताशेप पदार्थ जातैः । जैनाभि दीपम् ॥ तरुत्थकृष्णागरूचन्दनाधः, सच्चूणजैरुत्तम धूपदर्गः ॥ जैनाभि । पम् । लवंग नारंग कपित्थ पूर्णः, श्री मोपचोचादि फलैः पत्रिः । नाभि ॥ फलम् । श्री खंडकपूर सुगन्धवाभिः फलैश्च पुष्पाक्षत धूप नायः ॥ जनाभिः । अर्घ' ;
( शुद्ध जल से अभिषेक करें ) ॐ श्रीमभिः सुरस निसर्ग विमलैः पुण्यानयाभ्यावृतः । शीतैश्चारू घटावितै रविन्यः, सन्ताप बिच्छेदकः ॥ तृष्णोद्रेक हरैः रजः प्रशमनः, प्राणोपमैः प्राणिनाम् । तोयजैनबचो, मृतातिशयिभिः, संस्नापयामोजिनम् ॥ ॐ जय जय भईन्त भगवंत, जलेन स्नापयामीति स्वाहा । जे के वि भव्य जीवा, इच्छन्ति मण वयण काय संजुत्ता । संवंदे मणुपुव्वं, पछेहवन्दामिया सव्वे ॥
॥
७॥
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11
भवणालय चालीसा, पिन्ना देवाण होति बचीसा ।
कप्पामर चवीसा, चन्दो तरोणरो तिरियो । भगवतः गर्भ जन्म दिया ज्ञान निर्वाण पंच कच्या कम्यो जलं यजामहेन्शाहा ।
जल स्नपनम।
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पुण्यः वाभिः प्रसिद्धः परिमल बहुलेश्चन्दन रक्षतोषैः । पुष्पैः पुन्नागनागैर वरुभि सुरयर दीपकः दीपिठाभैः ॥
धूपैः सद्व्य युक्त रिव सुकृत फलैः मातुलिंगान पूगैः । पुष्पांजलि प्रयुक्त रुपवनमहितः, संयजे देव देवं ॥ अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ।।
(घृताभिषेक) ॐदण्डी भूत तडिद्गुण प्रगुणया, हेमाद्रिवत् स्निग्धया । चञ्च चंपक मालया रुचिस्या, गोरोचना पिंगया ॥ हेमाद्रिरथल सचम रेणु विलसद्, धातुन्यिका लोलया ।
द्राचीयो धृत धारया जिनपतेः, स्नान करोम्यादरात् ॥ ॐ जय जय अर्हतं.............. घृत स्नपनम् । पुण्यैः वार्भिः इत्यादिना अर्घ ॥
* दुग्धा भिषेक ॐ माला तीर्थ कृतः स्वयंवर विधौ क्षिप्रा पवर्ग श्रिया । तस्येयं शुभगस्य हार लतिका, प्रेम्णतया प्रेषिता ।
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||50
.
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॥ धाः
वमन्यस्य समक्षितो विनिहिता, दिग्विथि संख्या ऋत कुर्म शर्म समृद्ध भगवतः संस्नापधारया |
ॐ जय जय र्हन्त
दुग्ध
नपनं B
पुण्यैः वाभिः इत्यदिना: अ ॥
( दध्याभिषेक )
ॐ शुक्ल ध्यान मिदं समृद्ध मथवा तस्यैव भतुर्येशी । राशीभूव मिदं स्वभाव विशद, वाग्देवतायाः स्मितं । श्रोचित्र पुष्प वृष्टि रियमि, त्याकार मातन्वितैः । दनेन हिम खंड पर रुचा संस्नापयामो जिनम् ।। ॐ जय जय अहन्तं दधिस्नपनम् ॥ पुण्यै वार्मिः हत्यादिना यम् ॥
-: ईतरसाभिषेक:
I
ॐ देवाने करने के स्तुति मुखर मुखे वीक्षीता याति रिष्टै शक्रोच्चैः प्रयुक्तैर्जिन चरण युगैश्चारु चामीकरामा धारां मोनक्षितीक्षु प्रचुर वर रसा श्यामला वो विभूत्या ॥ भूयात्कन्याया काले, सकल कलिमल चालने तीयदक्षः । ॐ जय जय अर्हन्तं इजुरस स्नपनम् पुण्यै वाणिं इत्यादिना अ
| सर्वोषधि नपनं ॥
J
ॐ संस्नापितस्य घृत दुग्ध दधीजवा है सर्वाभिरौषधि भर मज्वला । तस्य विदधाम्यभिषेक मेला कालेय कुकुम रसोत्कट वारिपूरैः ।
||
|| &
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1.१०॥
ॐ जब जय अर्हन्त भगः सर्वोषधि स्वपनम् ॥ पुण्यैः वार्मिः इत्यादिना अर्थ "
( शांतिधारात्रयम् )
1
संपूजकानां प्रति पालकानां यतीन्द्र सामान्य तपोधनानां देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांतिर्भगवान् जिनेन्द्रः 11
"es that में पुष्प अक्षत दीपक रख कर आरती उतारें दध्युज्ज्वलाचत मनोहर पुष्प दीपः पात्रार्थितं प्रतिदिनं महवादरेण 1 मैलोक्य मंगल सुखानल कामदार, मारातिकं तवविभोरवतारयामि "
( इति मंगलार्तिकात्रतारणम् )
( चारों कोनों के ४ कलशों से अभिषेक करे )
ॐ हृवोद्वर्तन कल्क चूर्ण नियः, स्नेहापनो दंतिनोवर्खाढ्य विविधैः फलैश्च सलिलैः कृत्वावतार क्रिपां । म: सद्धते जेल घरा कारैश्चतुमिदैः । रंभापूरितदिङ मुखैरभिपत्रं कुर्मत्रिलोकीपतेः ॐॐॐ जय वय श्रहंतं "चतुः कलशस्नपनम् पुण्यैः वाभिः ईत्यादिना श्रर्धम् । निम्न श्लोक पढ़ते हुए भगवान के शरीर पर चन्दन का विलेपन करे:
...
याच वृद्धया परया सुगंध्या, कपूर सम्मिश्रित चन्दनेन । जिनस्य देवासुर पूजिवर विलेपनं चारु करोमि
भक्त्या ॥
( चन्दनानुलेपनम् )
(
।। १० ।
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॥ ११ ॥
पुष्प वृष्टि
प्रफुल्ल पद्मोत्पल कंटकारि, कदम्बकेश्चंपक पाटलाभिः । अशोक पुष्पैः वरपारिजातै जिनस्य पूजां महतीं करोमि ॥
उक्त श्लोक पढ़ते हुए श्रीजीपर पुष्प वृष्टि करना चाहिये गंधोदक स्नपनम् -
साद्र चन्दनासा, प्राचूर्य शुभ्र विषा श्रेणी समाश्लिष्टया ॥
ॐॐ कर्पू रोवण मौरस्याधिक गंधलुब्ध मधु सद्यः संगत गांगया मुनिमा श्रोतो दिल. स्पृहा
सद् गंधोदक धारया जिनपतेः स्नानं करोमि श्रियैः 1 ॐ लय जय अर्हतं.... गंधोदक स्नपनम्
ॐ स्नानानन्तर मर्हतः स्वयमपि स्नानाम्बुषेकाद्रितो
II
भार्गवाचत (पुष्पदाम चरूकः दीपैः सुधूपैः फलैः H कामोदाम गजांकुश जिनपतेः स्वभ्यर्च्य स्वस्तोत्रया सः स्यादारवि चंद्रमचय सुख प्रख्यात कीतिं ध्वजः ॥ निर्वपामीति स्वाहा ] पुष्पांजलि चिपेन
१९.
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अभिषेक के बाद निम्न शांति।मन्त्र पढ़ते हुवे भगवान पर दूधदया जस की अखण्ड वारा करना चाहिये।
॥१२॥
।
-: शांति धारा मन्त्र :-- ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं में हं सं तं वं वं मं में हं हं सं सं त पं पं में झं भी भी क्षी सी द्रा द्रा द्रीं द्रीं द्राक्य द्रावय नमोऽहते भगाते श्रीमते ॐ श्रीं झौं मम पापं :खंड, खंड, हन हन दह दह पच पच पाचय पाचय शीघ्र कुरु कुरू गहा।
ॐ नमोऽहं झ झवीं ली है तं झ हः प. हा ह्रीं ह्रः अमिाउसा नमः मर्वे पूजकानाम् ऋद्धिं धृद्धिं कुरू कुरू स्वाहा ।।
___ॐ द्रो द्रीं द्राक्य द्रावय नमोहते भगवते श्रीमते ठः ठः मम श्रीरस्तु, वृद्धिर पुष्टिरस्तु, शांतिरस्तु, कांतिरस्तु, कन्याणमस्तु, अस्मतकार्य सिद्धयर्थ सर्व विधम निवारणार्थ भीमद्भगवते सर्वोत्कृष्ट त्रैलोक्य नाथार्चित पाद यद्म प्रसादात सद्धर्म श्री बलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिरस्तु स्वस्तिरन्नु धनधान्य समृद्धिरस्तु श्री शांतिनाथो मां प्रसीद तु श्री वीतराग देवो मां प्रसीदतु श्री जिनेन्द्र परम मान्य नाम धेयो ममेहामत्रच सिद्धि तनोतु ।
ॐ नमोहने भगवते श्रीमते चितामणि पार्श्व तीर्थ कराय रस्नत्रय रूपाय अनंद चतुष्टय सहिताय धरणेन्द्र फण मण्डल मंडिताय समवशरण लक्ष्मी शोभिताय इन्द्र रणेन्द्र चक्रवादिपूजित पादपद्माय केवल ज्ञान लक्ष्मी शोभिताय जिनराज महादेवाय अष्टादश दोष रहिताय षटचत्वारिशगुण संयुक्ताय परप गुरू परमात्मने सिद्धाय बुद्धाय त्रैलोक्य परमेश्वराय देवाधि देवाय
१२॥
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११३||
सर्वसन्त हितकाम्य धर्मननाधीश्वराय सर्व धिा परमेश्वराय त्रैलोक्य मोहनाय धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय अतुलबल वीर्य पराक्रमाय अनेक दैत्य दानव कोटि मुकुट घृष्ट पाद पीठाय ब्रह्मा विष्णु रूद्र नारद खेचर पूजिताय समव्य जनानंद राय सर्व रोग मृत्यु घोरोप सर्ग विनाशाय सर्व देश ग्राम पुर पट्टन राजा प्रजा शांतिकस्य सर्व नीव विघ्न किंगरण समर्थाय श्री पाच देवावि देवाय नमोस्तु । श्री शिनराज पूजन प्रसादात सर्व सेवकानाम् सर्व दोष रोग शोक भयपीडा बिनाशनं कुरू कुरू सर्व शांति तुष्टि पुष्टि कुरु कुरू स्वाहा ।। ॐ नभो श्री शांति देवाय सर्वारिष्ट शांति कराय हाँ ही है, हों लः असिया उसा मम' सर्व विध्नं शांति कुरु कुरु स्वाहा मम लुष्टि पुष्टं कुरु मुर: राहा | श्री पारगाव गूजा प्रसादान बाद अशुभानि पापानि छिन्द २ मिन्द २, मम पर दुष्ट जनोपकृत मंत्र तंत्र दृष्टि मुष्टि छल छिद्र दोषान् छिन्द २ मिन्द २ मम अग्नि चोर जल सर्व व्याधि छिन्द २ भिन्द २, मारी कृतोपद्रवान् छिन्द २ मिन्द २, सर्व भैरव देव दानव वीर नरनारसिंह योगिनी कृत विघ्नान् छिन्द २ भिन्द २, डाकिनी शाकिनी भूत प्रेतादि कृत विघ्नान् छिन्द २ मिन्द २, भवनवासी व्यंतर ज्योतिषी देव देवी कृत विघ्नान् छिन्द २ भिन्द २, अग्निकुमार भयं छिन्द २ मिन्द २, उदधिकुमार भयं छिन्द २ भिन्द २, स्तनितकुमार भयं छिन्द २ भिन्द २, द्वीपकुमार दिक्कुमार भये छिन्द २ मिन्द २ वातकुमार मेघकुमार भयं छिन्द २ भिन्द २, इन्द्रादि दश दिग्पाल देव कृत विघ्नान् छिन्द र भिन्द २ जप विजय अपराजित माणिभद्र पूर्णभद्रादि क्षेत्रपाल कृत विनान छिन्द २ मिन्द २, राक्षस वैताल दैत्यदाना यक्षादि कृत विघ्नान चिन्द २ मिन्द २, नवग्रह देवता कृत सर्व ग्राम
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मगर पीहां छिन्द २ भिन्द २, सर्व अष्ट कृली नाग जनित विप भयान छिन्द २ भिन्द २, सर्व ग्राम नगर देश मारी रोगान् छिन्द २, भिन्द २, सर्व स्थावर जंगम विजात श्चिक दृष्टि विष सादिकृत दोषान् छिन्द २ मिन्द २ सर्व सिंह अष्टापद व्याख्याल वन चर जीव भयान लिन्द २ पिन्ट, २, पर शव कृत मारखोञ्चाटन विद्वेषण मो न यशी करणादि दोषान् चिन्द निन्द २, सर्व देशपुर मारी लिद मिंद २, सर्व राज नरमा लिंद छिद्र भिद भिंद, सच हस्ती घोटक मारीम् भिंद छिद भिंद भिड, गोवृषमादि तोर्याच मागम् छिद लिंद भिंद मिंद, सर्व वृक्ष पुष्प लता मारीम् विंद छि निंद भिंद : ।
ॐ भगवती श्री चश्वरी ज्वाला मालिनी पद्मावती देवी अस्मिन् जिनेन्द्र भवने आगच्छ आगच्छ एहि २ तिष्ठ २ अलि गृहाणा २ मम धन धान्य समृद्धिं कुरू कुरू सर्व भव्य जीवानंदनं कुरू २ सर्व देश ग्रामपुर मध्ये छुद्रो पद्रव सर्व दोष मृत्यु पीडा विनाशनं कुरू २ सर्व परचक्र भय निवारणं कुरू १ स्वाहा ।
ॐ श्रां क्रौं ह्रीं श्री वृषभादि यर्द्ध मानांताश्चतुर्विंशति तीर्थ कर परम देवा श्रीयंताम् २, मम पापानि शाम्पन्तु घोगेप सागि सर्व विघ्नानि शाम्यतु । ॐ आँ कौं ह्रीं चक्र से जालामालिनी पद्मावती देरी प्रीयंताम् २ ।। ॐ आँ क्रौं ह्रीं श्री रोहिण्यादि महादेवी अन प्रागच्छ २ सर्व देवता प्रीयंताम् २ ।। ॐ आँ क्रौं ह्रीं श्री मणिभद्रादि यज्ञकुमार देवाः प्रीयंताम् २, सर्चे जिन शासन रक्षक देशः
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प्रीयंता २, श्री आदिन्दा म मंगल बुध वृहस्पति शुक्र शनिश्चर राहु केतु सर्वे नवग्रह देवाः प्रीयंताम् २ प्रमीदंतु देश राष्ट्रस्य पुरस्य २३ करोतु शांति भणया जिमेन्द्रः ।
पत्सुखं त्रिपु लोकेषु, व्याधि व्यसन वर्जितम् । अभयं ममाराग्य, स्वास्त रस्तु सदा मम ॥ यथार्थ क्रियते कर्भ, मप्रीतो नित्य मरतु मे । शांतिक पौष्टिकं चैत्र, मब कोर्येषु सिद्धिदः ॥२ । आह्वानं नैव जा नामि, नैर जानामि पूजनम् । त्रिसजन न जानामि, वयस परमेश्वर ॥३॥
॥ इति शांति धारा मंत्रम् ॥ महामंत्र के या, अवकाश हो तो उसी प्रकार भगवान पर अखंड धारा करते हुए पाछपी हुई ज्यष्ठ
जिनवर जयमाला पढ़ना चाहिये ।
2
anारती.. प्राग्नी सुविशाल रन्न मारे निपाई, सुवर्ण मय परिपात्र इन्द्र हाथे विडूसाई ॥ प्रज्वलंति कपूर पुष्प माला करि सोहै, अन्धकार फोलंति भश्यि लोक मन गोहे । जे जिनवर भक्ति की आरती करती , से अज्ञान हणी करि केवल ज्ञान लहंती : भारतीय कनक चरणी पनि जिनेश्वरतणे भुवन ।
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उत्तर दक्षिण पूरन पश्चिम. चहुँ दिशि जिन चैत्यालय । अतीत अनागत वर्तमान, तीन चौबीसी हो कल्याण कीजिये, पर जोड़ि जिये । जिन बहोत्तर होय चंग प्रथमिजे पुरुषा,विषठ सलाखा । नित्य नवा होई रंग । भारती हुई चौबीस जिनेश्वर, तणे भुवने हुई निद । तिहां झालर घण्टा, धोमधोमन्ना, श्री गंगा प्र- गाणंद ॥
देवताविसर्जनमःआहूता ये पुरा देवाः लब्धमागा यथाशमम् ।। ते बिनापर्चनं दृष्ट्वा मर्चेयांतु यथास्थितिम् ॥ स्वस्थानं गच्छतु गच्छतु सा । इति दिक्पाल क्षमापनम् । निर्मलं निर्मलाकार पवित्र पाप नाशनम् । जिन गन्धोदकम् कन्दे प्रष्ट कर्म मिनाशनम् ॥ गंधोदक वंदनम् ।
अनंतर निम्न श्लोक पढ़कर धूप वेयन करे:वरूत्थ काला गुरू चन्दनाद्य प्रपूरिता शेष दिगन्तरालम् ।
सधूमवृत्या घनन्द कात्या यजामिधूप प्रारं जिनाय ॥ तत्पश्चात् केशर चढ़ा कर घण्टादि वाजित बजाते हुए भगवान को यथास्थान विराजमान करें।
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* अथ ज्यष्ट जिनवर पूजा *
(० जिनदास कृत ) श्री नाभिराय कुछ नान, देश असणा । प्रथम तीर्थंकर गाय सु, स्वामी आदि जिणंद ॥
ज्येष्ठ जिनंद नवायु . सूरज उगमणे ।
सुवर्ण कलश अणाऊ, क्षीर समुद्र भरणे ।। १ ।। युगला धम निवारण स्वामी, आदि जिद ।
संसार नागर तारण, सेवित सुर गरनं । ज्येष्ठ जि० ॥ गम घर अपियर यति वर मनिवर ज्ञान धर ।
आर्जिका धायक भाविका पूजित चरण वर .. ज्येष्ठ जि० ॥ श्री सकल कीति गुरू प्रणमी ने जिनवर पूज रचूं।
ब्रह्म भणे जिन दास सु आत्मा निमलयं ॥ ज्येष्ठ जि। ॐ ह्रीं ज्येष्ठ निनवर स्वामी अत्र अस्तर २ संघौषट् ॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठ जिनवर स्वामी अत्र विष्ट तिष्ठ ठ: टः स्थापनम् । ॐ ह्रीं ज्येष्ठ जिनपर स्वामी अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट ।
.
..
.
|| अष्टक ॥
॥१७॥
निर्मल शीतल सुगन्ध पुन्य रयं, कर्मामल सब टालिय यात्मा निर्मलयं । ज्येष्ठ जि० ॥ जलं ॥
ज्या
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१८ ॥
चन्दन कुंकुम कपूर विलेपन पूज्य स्
सुगन्ध शरीर लही करी आत्मा निर्माशयं ॥ ज्येष्ठ जि० ॥ चन्दनम् ॥ मक्ताफल लिए उत्स
1
पूज्य पद लही करी आत्मा निर्मलयं ॥ ज्येष्ठ जि० ॥ श्रक्षतम्
।
बाही जुही मच कुंद सेवत्री पूज्य रयं पूज्यपद लक्षी करो आत्मा निर्मलयं
।
उत्तम अन्न बहु भाणिय, पक्वान्न पूज्य वेदनीय कर्म विनाशिय श्रात्मा निर्मलयं कपूर तणी बहु ज्योति तु च्यारी पूज्यस्यं घातीय कर्म विनाशिय आत्मा निर्मलयं
।
ज्येष्ठ जि. ॥ पुष्पम्
रप 1
॥ ज्येष्ठ वि० ॥ नैवेद्यम् ॥
॥
ज्येष्ठ जि० ॥ दीपम् ॥
अगर कपूर कृष्ण गुरू धूवह पूज्य रयं 1
anate कर्म विनाशिय आत्मा निर्मलयं । ज्येष्ठ जि० धूपन
आ नारिंग जंबीर नारीकेल पूज्यश्यं । मनवांछित फल मांगहुँ भारमा निर्मलय ॥ ज्येष्ठ नि० ॥ मंगल गीत महोत्सव वह पूज्य र
1
स्तवन करी फल मांगहु आत्मा निर्मलय ज्येष्ठ जिल् " अर्धम् ॥
सकल कीर्ति गुरू प्रणमिने जिनवर पूप ब्रह्मम जिन दास सु आत्मा निर्मलप
फलम् ॥
रय
I
॥ ज्येष्ठ जि० । कुसुमांनलिः ।
॥१८॥
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·· ६॥
ॐ जयमाला ( अ० कृष्णदास कृत )
11
। सुरपति०
1
अमर नयरिसम नबरि अयोध्या नाभि नरेन्द्र व ragar | सुम्पति मेरू शिखर नही चढ़िया कनक कलश चिरोदवि भरिया तस पराखी मरू देवी माया, युगपति यादि निनेश्वर जाय। ज्येष्ठ माम अभिषेक जु करिया, अप्टोनर शत कुंभ जुमरिया । सुरपति | । सुरपति । भभकत जलधारा संचारिया, डलित कलोत धरणि उत्तरिया जय जय असुरनि करी उच्चरिया, इंद्र इन्द्राय सिerer aftया | सुरपति 1 'ग अनंग विभूषण घरिया, कुण्डल हार हरित मणि जड़िया । सुरपति० । सुरपति । ऋषभनाम शव मुख बिस्तरिया, कमल नयन कमलापति कहिया युगला धर्म निवारण वरिया, सुर नर निकर गन्धोदक महिया । सुरपति । रत्न कबोल कुमारिनि भरिया, जिन चरणाम्बुज पूजत हरिया | सुरपति० ! हिमहिमांशु चंदन न सरिया, भूरि सुगन्ध मन्ध परि सरिया | सुरपति० । । सुरपति । red] [eatre] लहरिया, रोडियो कांत किरण सम सरिया देखत रुचि करि अमरनिकरिए। पंच मुष्ठि जिन भागे धरिया । सुरपति० । सुन्दर पारिजात मोगरिया, कमल बकुल पाटल कुमुदरिया । सुरपवि० । चरूवर दीप लेई पछरिया, जिनवर आगे care उवरिया । सुरपदि ।
॥ १६॥
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| २० ||
अगर लुत्रान धूप फल फलिया, फणस रसाल मधुर रस मरिया ॥ सुरपति० ॥ कुसुमांजलि सांजुलि समुजल्लिया, पंडितरस्य अभ्र वच कलिया " सुरपति० ॥ त्रिभुवन कीर्ति पदक वरिया, रत्न भूषण सूरी महापद कहिया ब्रह्म कृष्ण जिन राजस्तरिया, जय जय कार करि मन हरिया कुम्भ कलश भरी जय जिन वरिया, शाश्वत शर्म सदा अनुसरिया
॥ सुरपति
पत्ता - यावंति जिन चैत्यानि विद्यते भुवनत्रये । तादेति सततं भक्त्या, त्रिः परित्य नमाम्यहं ॥
॥ सुरपति =
la
॥ अथ देव पूजा प्रारभ्यते ॥
(भः सुमति कीर्ति के शिष्य यशवन्त सागर कृत ) ॐ जय जय जय नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु | णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं गमो रियायां ॥ णमो उवज्झायाणं खमो लोए सव्व साहूणं ॥
0
नोट:- ऊपर की जयमाला श्रभिषेक के समय में भी पड़ी जाती हैं एवं उस समय इन्द्र
धारा करे तथा गुजरात प्रांत में प्रचलित है ।
||
सुरपति ० ।
॥
जल या दूध की अखंड रख कर भगवान की आरती उतारे। यह प्रथा स्वास कर
चचारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगल, साहू मंगलं, केवलिपखत्तोपो मंगलम् । चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि परतो.
॥२०॥
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3
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धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि शरणं पवज्जामि, अहंते शरणं पञ्च जामि, सिद्धशरणं पञ्चजामि, साहू शरणं पञ्चजामि, केलि पण्णत्त धम्मं शरणं पव्वजामि ।।
ॐ नमोऽहते स्वाहा । पुष्पांजलि क्षिपेत्
( निम्न मंगल पाठ पढ़ते हुवे पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये ) अपत्रिः पवित्रोवा, मुस्थितो दुःस्थितोऽपिवा । ध्यायेत्पंच नमस्कार, सर्व पापैः प्रमच्यते ॥ अपवित्रः पवित्रोवा, सावस्थांगतोऽपिवा । यः स्मरेत् परमात्मानं, स बाह्याभ्यंतरे शुचि ॥२॥ अपराजित मंत्रोऽयं सर्व विघ्न विनाशनः मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ॥३। एसो पंच णमोयारो, सब्ब पावप्पणासणो । मंगलाणं च सन्चेति पदमं होई मंगलम् । ४॥ अहमित्यचर ब्रह्म, वाचकं परमेष्ठिनः सिद्ध चक्रस्य सद्धीजं सर्वतः प्रणमाम्यहं ॥५॥ कर्माष्टक विनिमुक्तं मोक्ष लक्ष्मी निकेतनं । सम्यक्त्वादि गुणोपेतं सिद्ध चकं नमाम्यहं ॥ ६ ॥ विघ्नौघाः प्रलयं यांति, शाकिनी भूतपन्नगाः विपं निविषतां याति पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥७॥ युगादि देवं प्रणिपत्य पूर्व, श्री काष्ठ संघ महिते सुभव्या
श्री मत्प्रतिष्ठा सुततो निनस्य भी यज्ञ कल्पं स्वहिताय वक्ष्ये ॥८॥ आदि देवं जिनं नत्वा केरल ज्ञान भास्करं ।
काष्ठा संघ श्चिरंबीयाद् क्रिया काष्ठादि देशकः ।।. जय जय श्री सदा शांतिः, कल्याणं सर्व मंगलम् ।
तनोतु सर्वद! श्रेयः पूजा प्रारम्यते जिनैः ॥.:
॥ २१ ।।
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॥ २२॥
श्री नाभि नंदन जिनं प्रणिपत्य भक्त्या पद्दे शनामृत रसेन जगत्रपूर्णम् ।
श्री काष्ठ संघ पर मंगल हेतु भूत, यदागमे निगदितं प्रकरोमि पूजा ॥११॥ ( पुष्पांजलि क्षिपेन )
[ निम्न स्वस्ति विधान पढ़ते हुवे पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये. ] स्वस्ति त्रिलोक गुरवे जिन पुंगवाय, स्वस्ति स्वभावात महिमोदय सुम्बिता
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स्वस्ति प्रकाश जोर्जित मयाय, स्वस्ति प्रसन्न ललितासत वैभवाव ॥ १ ॥ स्वच्छल द्विमल बोध सुधाप्लाय, स्वस्ति स्वभाव पर भाव विभास काय |
त्रिलोक विततै चिदुद्गमाय स्वस्ति त्रिकाल सकलाप विस्तृताय ॥२॥ द्रव्यस्य शुद्धि मधिगम्य यथानुरूपं, भावस्य शुद्धि मधिका मधि गंतु कामः |
थालम्बनानि विविधान्यबलब्ध वल्गान् भूतार्थ यज्ञ पुरूष करोमि यज्ञ ३५ पुरुषोत्तम पावनानि वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एव
ज्यादिमल केवल बोध वन्हौ, पुण्यं समग्र मध्येकमना जुहोमि ॥४॥
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।:
(आत्राननम् )
पाप सन्ताय दर्ता,
न्व कीर्तिः क्षतमदनपुर्षात कर्म प्रणाशः
ॐ ह्रीं विधियज्ञे जिन प्रतिभाग्रे
सार्वः सर्वज्ञनाथः सकल तनुसृकां
त्रैलोक्या
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॥२३॥
श्री मनिाम संपवर युवति कालीढ कण्ठैः सुकण्ठ
देवेन्द्रैवद्य पादो जयति जिनपतिः प्राप्त कल्याण पूना ॥१॥ ॐ ह्रीं भगजिनेन्द्र अत्र अन्तर अवतर मोपट अाहाननं । ॐ ह्रीं भगवजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ विष्ठ ठः ठः स्थापनम् ॥
ॐ ही भगवजिनेन्द्र अनमम सन्निहितो मा भव वषट् सन्निधीकरणम् । देवि श्री श्रत देवते भगवति त्वत्पादपंकेरुह
द्वन्द यामिशिलीमुखत्वमपरं भवतया मषा प्राध्यते । मातश्चेतसि तिष्ठ में जिन मुखोद्भुते सदा पाहि मां
दृग्दानेन मयि प्रसीद भवती सम्पूजयामोऽधुना ॥ २ ॥ ॐ हीं जिन मुखोद्भूत द्वादशांग श्रुत ज्ञान अत्र अवतर अवतर संबौषट् । ॐ ह्रीं जिनमुखोवूभूत द्वादशांग श्रुतज्ञान मत्र तिष्ठ विष्ठ ठ ठ । ॐ ह्रीं जिन मुखोद्भूत द्वादशाङ्ग श्रुत हान भव मम सन्निहितो मर भव रपट । इत्युच्चार्य पुस्तकोपरि पुष्पांजलिंक्षिषेत् । सम्पूजयामि पूज्यस्य, पाद कदम युगं गुरोः ।
तपः प्राप्त प्रतिष्ठस्य, गरिष्ठप महात्मनः ॥ ३१
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ॐ ह्रीं प्राचार्योपाध्याप सब साधू समूह भत्र अवतरत अवतरत संवौषट् । ॐ ह्रीं भाचार्योपाध्याय सर्व साधु समूह अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । ॐ ह्रीं भाचार्योपाध्याय सर्व साधु समूह अन्न मम सन्निहितो भव भव धषट् ।
गुरू पादुका स्थापनम् ।।
समुकच्याष्टक ) देवेन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रवन्धान शुम्मत्पदान्शोभितसार वर्णान् ।
दुग्धाब्धि संस्पदि गुणैर्जलौघुजिनेन्द्र सिद्धान्त यतीन्पजेऽहम् ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं परं ब्रह्मणे अनंतानंत ज्ञान शक्तये अष्टादशदोष रहिताय षट् कमरिंशद्गुण सहितायाहपरमेष्ठिने, जिनमुखोद्भुत स्याद्वाद नय गर्मित द्वादशांग श्रुतज्ञानाय, सम्यग्दर्शनादि गुणविराजमानाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यश्च जलं निपामीति म्बाहा ॥
ताम्यत् त्रिलोकोदर मध्यवर्ति, समस्त सवाहितहारिवायान् । श्री चन्दनैर्गध पिलुब्ध भृङ्गजिनेन्द्र सिद्धान्त यतीन्यजेऽहम् ॥ चंदनं ॥ २ ॥ अपार संसार महासमुद्र प्रोत्तारणे प्राज्यतरीन् सुभक्त्या । दीर्धाक्षतागर्धनलाक्षतौजिनेन्द्र सिद्धान्त यतीन्यजेऽहम् ।। अदतं . ३ । विनीत भव्याब्ज विवोध मूविर्यान्सुचर्या कथनैक धुन् । कुन्दारविन्दप्रमुखः प्रसूनैजिनेन्द्र सिद्धान्त यतीन्यजेऽहम् । पुप्पं ॥ ४ ॥
॥२४ा
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२५॥
कुदर्यकंद पेविसर्प सर्प असह्य निर्णाशन बैनतेयान् प्राज्याज्य मारैश्चरूभीरसाढ्य जिनेन्द्र सिद्धान्त यतीन्यजेऽहम् ॥ नैवेद्यम् ॥५: ध्वस्तोद्यमान्धीकृत विश्व विश्व मोहान्धकार प्रतधाति दीपान् । दीः कनकांचन भाजनस्वर्जिनेन्द्र सिद्धान्त यतीन्पजेऽहम् ॥ दीपम् ॥६॥ दुष्टाष्टकमेंन्धन पुष्ट जाल संधूपने भासुर धूमकेतून् । धूपैविधूतान्यसुगन्ध गन्धैजिनेन्द्र सिद्धान्त यतीन्यजेऽइम् ॥ धृपम् । ७ ।। शुद्विलुभ्यन्मनसामगम्यान कुवादि वादा खलित प्रभावान् । फलैरलं मोक्षफलाभिसारदिनेन्द्र सिद्धान्त यतीन्यजेऽहम् ।कलं ॥ ॥ सद्वारिंगन्धाक्षत पुष्प जाते में वेध दीपामल धूप धूम्रः । फलैविचित्र धन पुण्य योग्यान जिनेन्द्र सिद्धांत यतीन्यजेऽहम् ।। अर्घ " ६ ||
ये पूजा जिननाथ शास्त्र पमिनो भक्त्या सदा कुर्वते । त्रै सन्ध्यं सुविचित्र काव्य रचना मच्चारयन्तोनमः ॥ पुण्याढ्या मुनिराजकीर्ति सहिता भृत्वा तपो भूपणास्तेमव्याः सकला बोध रूचिरांसिदिनभंतेपराम् ॥ इत्याशीर्वाद: ।।
(पुष्पांजलिं क्षिपन) उपभोऽजित नाभाच, संभवश्चामिनन्दनः सुमतिः पद्मभासश्च, सुपात्रोजिन पचमः ॥ १ ॥
२५||
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चन्द्रामः पुष्पदन्तश्च शीतलो भगवान्मुनिः, श्रेयाश्च वासु पूज्यश्च विमलो विमल घु तिः ॥२॥ अनंतो धर्म नामाव शांति कुन्थुर्जिनोत्तमः, अरश्च मल्लिनाथश्च, सुत्रतो नमि तीर्थकृत् ॥३। हरिवंश समुद्भूतोऽरिष्टनेमिर्जिनेश्वरः, अस्तोपसर्गदैत्यारिः पाश्यों नागेन्द्र पूजितः कर्मान्तकृन्महावीरः सिद्धार्थ कुल सम्भवः, एतेसुरा सुरौंधेण पूजिता विमत्विषः । पूजिता भरताद्य रच, भूपैन्द्र रिभूतिभिः, चतुर्विधस्य संघस्य शांति कुर्वन्तु शाश्वतीम् ॥६॥ जिने भकिर्जिने भक्तिर्जिने भक्तिः सदास्तुमे, सम्यक्त्यमेव संसार वारण माक्षकारमाम् ॥७॥
पुष्पांजलि क्षिपेत् । ॐ देव जयमाला पत्ता:- चौबीस जिणंदह तिहुयणचंदन, अट्ठय लक्षण भाषणहं ।
जयमाल विरामी, गुणगयामरमी, कर्ममहागिरी चुरणयं ॥ ॥ जय जय रिसह णमो भव रहिया, जय जय अजिय सुरासुर महिया ।
जय संभा दुक्ख खषकारा, जय अहिणंदण भवभय टारा ॥ २ ।। जय जय सुमइ कुबुद्धि विणासण, जय पउमप्पह कलिमल पासण ।
जय सुपास जैन, भण्डारा, जय चन्दप्पइ तिहुयण सारा ॥ ३ । जय जय पुष्फयंत परमेश्वर जय जय सीयल जिग जोगेश्या ।
२६॥
जय जय सेय भवोदधिवास. जय जय राम पुज्ज गुण धारा ॥४॥
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जय जय विमल सुभिरमस देहा, जयहि अणंत अणंत जिणेशा ।
जय जय भाप सु शम्प पयामा जय जय सांति सांति नय भास। ॥५॥ जप जय कुथु परम मुभ कारण जय अर कणि कलमस दारण
जय जय मल्लि मरण भय भजिय, जय मुणिसुब्धय सुर पर पुज्जिय ॥६॥ जप ण मि विकल कमल दल कोमल, अपहि परिहणेमि अतुलीबल ।
जय जय पास फणी मण भूषण, जय जय बढमाण गय दुषण ॥ पत्ता:-इप णर देवे, णीप सूपसंसिए, जिण चौबीसइ पणपिया भत्तिए ।
एजि वर जो अशुदिणु भावई, सो पुणु अणरण पच्छई आई ॥ ८॥ ॐ ह्रीं वृषभादि महाशरान्तेभ्यो मार्य निर्वामीवि स्वाहा ॥
* अथ सरस्वती (शास्त्र) पूजा के देवि श्री प्रतदेश्ते भगवति, त्वत्पाद पंकेरूहद्वन्देयामि शिली मुखत्वमपरं, भक्त्या मया प्रार्यते ।
मातश्चेतसि विष्ठ मे जिन मुखोद्भते सदापाहिमा , दृग्दानेन मयि प्रसीद भवती सम्पूजयामोऽधुनः ।।१। स्थापनम् ।
इन्युच्चार्य पुस्तकोपरि पुष्पांजलिंक्षिपेत् । वृषभ वक्त्र सरोरुह निर्गता, प्रकटिता वृष रेन गणाधिपः ।
जगति तत्व विदां हृदयं गता जयतु जैन वचोऽमल भारती ॥१॥
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॥२८॥
सकल भव्य मनोम्युज भास्करी, भत्रिक मानस हंस मनोहरी ।
धृतम् पक्षसु चन्द्र करोन्जलाजयतु........ ॥२॥ अमल बोध चतुष्टय पूरिता, परम केवल लक्षित चिन्मयी ।
विदित विश्व विचेष्ठित वाग्वर, जपतु० ..... ॥ ३ ॥ दशमाधिक अंग विवद्धिता, नव पदार्थ नवीकृत भूषणा ।
. रुचिर वर्ति पदावलि नूपुरा, जयतु० ...... ॥४ मनसि जोत्कट कुञ्जर सिंहिका, कलि कराल तमोरवि सत्प्रभा ।
व्यसन धुन्द दवानल शरिषी, जयतु....... ॥ ५ ॥ वचन जाय निवर्हण पण्डिता, हृदय कल्पित कल्पतरूपमा ।
समुर शक्रशतेन नमस्कृता, जयतु.. ... ॥६ अनुक्रमामृत संश्रित निश्चला, शिव सुखेष्ट फलान प्रदायिनी ।
भवभृतां भवारि तरंतिका, जयतु......... || त्रितय रस्म परायं निधान भू क्तित तथ्य वितर्क पटीयसी ।।
जनन मृत्यु जसदि भया पहा, जयतु... सतत संश्रित कामित कामिगविविध विघ्न विपक्ष विघाटनैः ।
भगवती मम तिष्ठतु मानसे, जयतु........| उदयेनान्त सेनेन कृतेयं भारती स्तुतिः । भूयादशान नाशाय, पावनी भव्य देहिनां ॥ १० ॥
इति शारदा स्तुतिः ।।
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॥ अथाष्टकम् ॥ पयः पयोधेस्बिदशापगाया, पयः पयोजाव पराग रम्यम् ।
समन्त मश्रुत देवतायै भक्त्या पराये परया ददामि ॥ ।'
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्भव सरस्वती देव्यै जलम् ॥ सव्य सौरभ्य समाहुतालि कोलाहल स्तोत्र मनोमिरामैः ।
पारपीर सत्यनकना गिर्द हि जीर्ष कृतां यजामि । चन्दनम् ॥ २ ॥ सदावदातः सरलविचित्र मुनमनः साम्यमपाश्रयभिः ।
सदचतैरक्षत शासनानां तीर्थंकराणां गिरमर्चपामि । अक्षतम् ॥ ३ ॥ मन्दार सन्तानक पारिजात जातैः प्रवनर लिचुम्बिताः ।
देवेन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्र वद्यां, गिरं जिनना महमर्चयामि । पुष्पम् ॥ ४ ॥ शान्पोदनः क्षीर दधीच भक्ष्य, द्राक्षाम्र खरक चोच पाय: :
प्रमाण बाकादि विरोध मुक्तां स्पाद्वाद वाणी परिपूजयामि । नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ शिखाधरैः स्नेह दशान्तमोह मलं विमुचभिरल प्रतापैः ।
सदा समस्थैरिब भाजन स्थैः प्रदीपकैः भी श्रुतमर्चयामि । दीपम् ॥ ६ ॥ सग्रंथ पर्णेरूज संत एव स्वकंदयद्भिः प्रसरभिर्ध्व ।
धूपैर्विधूमानल संशयभिः कण्ठोपमैर्गा मइमर्चयामि । धूपम् ॥ ७ ॥
॥२६॥
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जम्बीर नारंग लविंग पूग फलदामीष्ट फलाभिलाषः ।
अर्चा मरोरः श्रुतदेवतायै, जगत्यहं श्री जिन नायकस्य । फलम् ८ ॥ सिद्ध गुणैर्ने विशाल रम्यं वस्त्र' र स्त्री बदनोपमान :
संशोम कौशेष पटानुकूलं ददामि जैन श्रुत देवाय ॥ वस्त्राभरणम् ॥ ६ ॥ . पाटीर पाथोऽक्षत पुष्प पुन्ज चरू प्रदीपोत्तम धृप धूम्रः । ___ फलैजिनेन्द्रास्य पयोज पुत्रीं यजामि जैन श्रुत देवता ताम् ॥ अर्घ ॥ १० ॥
ॐ जयमाला घन मोह तमः पटलापहरं, यम संयम संजम भावधरं ।
____ भृत भूरि भवार्णव शोक हर, प्रणमामि सुबोध दिनेश महः ॥ १॥ कृत दुष्कृत कोसिक भाव हरं, मिथ्यात्व निशाचर दुर करं ।
___ भुवि भव्ययोज विकास सहं, प्रणमामि सुबोध दिनेशमहे ॥ २ ॥ कलि कर्दम कम्मप. शोपमलं, रूदयादवसर्पित कममलं ॥ भुवि ।। ३ ।। निखिलामल वस्तु विकास पद, धृत दुधर दुर्भर प्ठ पदं । भुवि० ॥ ४ ॥ जड़तामपहार विहार समं, सुमनोभव भंग विभंग समं ॥ मुवि० ॥ ५ ॥ रुदयामल लोचन लक्षमितं, जिन भासुर भानु सहस्र युतं ॥ भुवि० ॥ ६ ॥
निजमण्डल मंडित लोक मुखं, निज सत्त्व समर्पित लोक सुखं || सुवि० ॥ ७॥ ॐ ह्रीं जिन मुखोदभूत सरस्वती देव्य महापं निर्वपाम ति स्वाहा ।
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॥३०॥
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॥३
॥
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4 अथ गुरू पूजा
: (शिखरिणी च्छन्दः) सुसंधे काष्ठाख्ये विप्रल शुम नंदीतटमिते, सुगच्छे पुण्येशे प्रविजयति विद्यासु गण के ॥ सुनाम्ना विख्यातः सुमति रिह कीयंत मतिमान् ।
सरामाशेषोऽभूत प्रवनतर सेनोन्नतमतिः ।। गुरू पादुका स्थापनं ।१।। श्रीमत् श्री जयकीर्तिवंश विल सन् श्री मन्महीचंद्र जित, सत्य मुनि वृन्द च महिमा, भट्टारकाणां प्रभु । नाम्नायः सुमति परो विजयते यः कीर्तितः सज्जनः . श्रीमद्वाग्वर देशवंश वलसत् चिन्तामणि सार्थदः ॥ २ ॥
इत्युच्चार्य गुरुपादुकोपरि पुष्पाजलि क्षिपन ॥ * अथ गुरु पादुका स्तुतिः ॐ निज जनापरि पालयति स्वयं करूणपा मलयासु मुनीश्वरः
सुमति कीतिरसौ जयते ऽनिशं शशि मुखं कमनीय गुणा करः ॥१॥ विरजता मनसोभनद्भुनः सकल सज्जनरंजित पंरिता ॥ सुमति ।। २ । निखिल जोकसुवंदित सत्पदं प्रबल काव्य कला कुल कोविदं ॥ सुमति ॥ ३ ॥ भुवन कीवदया करूणोद्यमः, कमल कोमल रूङ मुनि गौतमः ।। सुमति० ॥ ४ ॥
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॥३२॥
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जिन जनाति हरो हत पातका सुनयन: प्रतिवन्दित भक्तितः ।। सुमतिः ॥ ५ ॥ निज गुस्यो मुनिमान्य गुणोदधि, स्वजमहो कवितागुण बारिधिः ॥ सुमतिः ॥ ६ ॥ बिनलपार्जित नागमहा निधिः, सकल मन्त्र समुच्चव तोपषिः । सुमतिः ॥ ७ ॥ प्रबल पंच व्रतादि करं पर, प्रश्ति शास्त्र कलार्थ पर परः ।। सुमति • !! ॥
( मालिनी छद) निखिल खन विकारान् जयन्नैक वस्तु, प्रऋदित निगमाधिस्त्यक्त संसार संगः ॥ जयति सुमति कीर्तिः सर्व गच्छे हि बंद्यो, विदित गुण गुणौषः सर्व मट्टारकेशः ॥
इति गुरू स्तुतिः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( अथाष्टकम ) नाना नदी मिन्यु सुताघोषः श्री मत्कलिंद गिरिजा विधियोभत्रैश्च । सम्पूजयामि विधिना विधिना तमादो भट्टारकः सुमति कीर्ति मुनीश्वरेन्द्रः ॥ जलम् ॥ १॥ श्री चन्दनैः सकल चन्द्र करावदातैः पाथोहोन्दव पराग पराग कारें । । चन्दनम् ॥ ॥ २ ॥ स्म्याचतैः परिमलाक्षत चञ्चरीकै लीला विलोलकमलाकर निर्मितश्च ।। समूज ॥ अक्षतं ।। ४ ।। शुम्भत्सुरेश्वर तरु प्रभः प्रसूनः पंकेरुहै बकुल जाती सुकेतकैश्च ॥ सम्पूज ॥ पुष्पम् ।। ३ ॥ स्फूजप्रभापरितिरस्कृत चंद्रबिम्बैः सुस्वादुभिश्च विविधैः घृतायः ॥ सम्पूज । नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ उर्जन्कदम्ब कलितेस्फुरदभिर्वा दीः प्रकाशितदिशैरमपुजहारैः ॥ स पूज ॥ दीपम् ।। ६ ॥
॥३२
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हम्यविशाकर सुगंध महाप्रधूपैः कपूर चन्दन लविंगललावयुक्तैः ॥ सम्पूज ॥ धूपम् ॥ ७ ॥ रम्याफले स्फुटफल पनसेन कैरच कंकोरकैः कमल कर्कठिकादिमिश्च ॥ संपूज ॥ फलं ॥ ८ ॥
श्री काष्ट संघ महीचन्द्र पदाद्रि भानो, तोयादिभिः सुमति कीर्ति गुरु गरिष्टं ॥ योवत्थमु स लभतेवर भोगसौख्य, लक्ष्मीवाशप्य यशवंतमुनीश्वरेण ॥ अर्थ ।।
रत्नत्रयस्य नाप्यं देयात् ।। १ ॐ हीं सम्यग्दर्शनाय नमः २ ॐ हीं सम्यग्ज्ञानाय नमः ३ ॐ हीं सम्यक् चारित्राय नमः ।।
॥ जयमाला ॥ श्री मनिजनेश्वर महं प्रणिपत्य कुर्वे श्रीमद्गुरो गुणगणान्प्रतिबुद्ध बुद्धया ।
श्री वासुदेव तनयो कवि जीवन है, भट्टारकस्य सुमतेर्जयकारी माला ॥ १ ॥ निखिलादि जिनाममदेह धरं धरणीधरवद्वहु शास्त्र धरं । प्रश मामि सुकीतिं परं सुमतिः मतिदं गतिदं कृतदिव्य नुतिः ॥ २ ॥ निज बोध सुबोधित शिष्य परं वचनामृत तर्मित भव्यभरं ।। प्रणमामि । ३ ।। शुभ नित्य विवेक विचार परं, विजितारिभरे स्वजनेष्ट करें ॥ प्रणमा० ॥ ४ ॥ हत मोह मदान्त्रित सैन्य बलं, बल निर्जित झोध मनपा ॥ प्रणमा ।। ५ ॥ सुतपोव्रत सत्कृत देहधरं, धृतधर्म परं परमेष्ठी परं ॥ प्रणामा ।। ६ ।। निचित्त निवृत्ति पुरा कलुषं, रजनी पति पधित सद्धपुष ॥ प्रणमा० ॥७॥ धत दिघदयं विधिमालनक, कलि पातक संघ निवारणाकं ॥ प्रणमा० ॥ ॥
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कृत काम महाभट दिव्य जयं, विमलेक विवेक हतारि भयं ॥ प्रणमा ।। पचनानुरञ्जितदिव्य सदं, निज शास्त्र बलार्दित वैरी मदं ॥ प्रणमा० ॥ १० ॥ ॐ ही गुरु चरण कमलेम्यो महाय निगमीति स्वाहा
ॐ अथ सिद्ध पूजा अर्ध्वाधारयुतं सविन्दुमपरं ब्रह्मस्वगवेष्टितं, वपरित दिगताम्ब जदलं तत्सन्धितत्यान्वितम् । अन्तः यत्रतटेष्वनाइतयुतं ही हार संवेष्टितं देवं ध्यायति यः म मुक्ति सुभगो वैरीभरण्ठीरवः ॥१.! ॐ ही सिद्ध चक्राधिपते, सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र अपवर अवतर । संवौषट् । ॐ ही सिद्ध चक्राधिपते, सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं सिद्ध चक्राधिपते सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
सिद्धपक्रस्तवन
अहमित्यवर ब्रह्म वाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्र त्य सदीजं सर्वतः प्रणमाम्यहं ॥ १ । अकारादि इकारान्तं रेफ पजन संयुतं। ह्रींकारस्य वरुपाम, सिद्ध चक्र' नमाम्यहं ॥२॥ मध्यतो अहवः प्रोक्तं, बोब लक्षण लक्षितम् । भावतं सर्वरूपत्वं सिद्ध चक्रं नमाम्यहं ।। ३ ।। लकार बगेमामाति, पकार पट वर्ग के । लोक मध्य गतो सद्र, सिद्ध चकं नमाम्यहं ॥ ४ ॥ ईकारान्त प्रतीकार, ललना वर्ग माचतिः। मध्य पीठ गतो ध्यान, गिद्ध चक्र' नमाम्यहं । ५ ।।
स्रग्धराच्छन्दः यो देवेन्द्र नरेन्द्रः फरिपति सहितं सर्व सत्योपकार ।
संसाराम्भोधिपोतं , कमलदीगदलं मुक्तिशर्म प्रदेयं ।
॥३४॥
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शान्तै शान्तकरूपं, बहु विध महितं कर्म संघापनोदं
तच्चक्र चक्रनाथं जयति गुपवरं सिद्ध चक्रानिधानं । ६ । यत्शुद्ध व्योम यीजं अवर पायुतं शांति सिद्धानरेण,
तत्पन्धोतव युक्तं परम पद सरैः चेष्टितं कर्भ वीज। पः श्रीमंत निरन्तं विगतकलिमलमायया वेष्टितांगं,
नीय.रोसिदचा विमलतर गुण देव नागेन्द्र वंद्य ॥ ७.1
॥ शार्दूल विकीहितच्छन्दः ।। यद्वाष्टक पूरीतं वर दलं सानाहतंनीरज,
यस्दोकार कला सबिन्दु सहित गर्भा स्त्रि मुर्त्या वृतं । यः सर्वार्थ करं परं गुणभृतां काल श्रये वर्तिनां,
तत्क्लेशोध विनाशनं भवतु मे श्री सिद्ध चक्रेश्वरं || यद्वश्यादिक कारकं बहुविध कामाधिक मोहितं ।
यल्लक्ष्यादिक जाप्प साध्य महिमा यत्संपदा दायकं । गरेकुष्टादिक दर्प दोष दसनं दुःखाभिभूतात्मनां
तद्वाहुत फलप्रदं पर वशः श्री सिद्ध चक्रवरं । । यत्सर्या गहितं मनुष्यमहिम, सौख्यालयं धार्मिणां
येद्दोपैः परिवर्जितं हि शिवदं ध्यानादि रूढ सतां ।
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तनः पातु जिनं भवति शमनं मन्याधिष सर्वदा ,
यत्कर्म क्षय कारकं सुधवलं श्री सिद्ध चक्रेश्वरं ॥ १ ॥ व्यस्त हस्तेषुरुद, सर पर कलितं मण्डलोय युग्मै,
भूरि क्लेश प्रणाशक्तदमृत अवं स्वेतं हमारान्वितं । पश्चादागम्य झवीं वीं कृत ममलगुण मासनं मंत्र नाम,
___ माहूतं ज्ञान रूपं सफल भयहरं अर्चये सिद्ध चक्रं ॥१९॥ ॐ जिह्वायां कराग्रे नशित मृतथवं स्वेतं इकारान्वितं,
पश्चाघ्यावेत्स्वरूपं विगत कलिमलं दग्ध कर्मेन्ध नौघं । विप्रो स्वाहा समेतं निशिव सुरमुखे अंगमागे समस्तं ।
एवं कुत्याभिधानं परम फल प्रदं श्वये सिद्ध चक्र ।।१२।। शब्द ब्रह्म बलीनं प्रबल बल युतं सर्व सत्ता प्रमावं,
सम्मेदं सर्व भद्रं गणधर बलयं दुःख पाप प्रणाशं । यन्नमि वरिष्टं विशद हृदि गतं सज्जनानां च नित्य
___ यद्वनं यत्स बाह्य रिपुकुलमधनं सिद्ध का नमामि ॥१३॥ पन्त्राणां मन्त्र बीजं सकल कलिमलं ध्वसनं सिद्ध बंद्य,
भूत्वाभिष्टार्थवंतं निखिल वर गुग्णालंकृतं दीप्ति पन्तं । रोगाणां दुर्नि मित्त ग्रहगण प्रकलान्भूतरक्षा करतं,
भी चक चक्रनाथं मुनिभिरमिनुतं घ्यान गम्यं नमामि ॥१४॥
॥३६॥
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३७॥
पठति परम भक्ति कश्चिदर्थ प्रभेद, सभवति गुण लीन सर्व सत्व प्रवीण । श्रुत गुण विमलेन भव्य साधारणेन कृतखिल गुणाढ्य संस्तुवे सिद्ध चक्र ११५।। इस्युच्चार्य भी सिद्ध चक्र यन्त्रोपरि पुष्पांजलि क्षिपेत् ॥
(अथाष्टकम् ) सिद्धौ निवास मनुगं परमात्मगम्यं, हीनादि भाव रहित भावीत कायम् । रेवापगावर सोयमुनोद्भवाना नारयजे कलशगैर्वरसिद्ध चक्रम् ॥ जलम् ॥ १ ॥ श्रानन्द कन्द जनकं घनकर्म मुक्तं सम्यक्सशर्मगरिमं जननातिवीतम् । सौरम्प वासित भुवं हरिचन्दनाना, गन्धैर्यजेपरिमलैवरसिद्धचक्रम् ॥चन्दनम् ॥२॥ सविगाहन गुणं सुसमाधि निष्टं सिद्ध स्वरूप निपुणं कमलं विशालम् । सौगन्ध्य शालियनशालिवराक्षतानां यजेशर्शिनिभैबर सिद्ध चक्रम् ॥ अक्षनम् ३ ॥ नित्यं स्त्रदेव परिमाण मनादि संज्ञ', द्रव्याभपेक्ष ममृतं मरणाद्यतीतम् । मन्दार कुन्द कमलादि वनस्पतीनां, पुष्पैर्यजे शुभतमैर्वर सिद्ध चक्रम् । पुष्पम् ४ !! उद्ध' स्वभाव गमनं सुमनोव्यपेतं, ब्रह्मादियीज सहितं गगनावभासम् । हीरान्नसाज्यबटकै रसपूर्णग), नित्यंपजे चरूवरैर सिद्ध चक्रम् ॥ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ आतंक शोक भय रोग मद प्रशान्त, निद्वन्द भाव धरणं महिमा निवेशम् । कपूरवर्तिबहुमिः कनकावदाते, दीपैर्यजेरुचिवरेंवर सिद्ध चत्रम् । दीपम् ॥ ६ ॥
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पश्यन्समस्त भुवनं युगपन्नितान्तं, त्रैकान्य वस्तु विषये निरिड प्रदीपम् ।। सव्य गंध घनसार विमिश्रितानां धूपैयजेपरिमलैर सिद्ध चक्रम् ॥ धृपम् ॥ ७ ॥ सिद्धासुराधिपति पक्ष नरेन्द्र चक्र, ध्येयं शिवं सकल भव्य जनै। मुरन्धम् ।
नारिंग पूग कदली फल नारिकेलैः सोऽहंयजेवरफलैर सिद्ध चक्रम् ॥ फलम् ॥ ८॥ गन्धाढ्य सुपयो मधुव्रत गणैः संग बरं चन्दनं , पुष्पौघं विमलं सदचत चयं रम्यं बरू' दीपक ।
धूपं गन्ध युतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये,
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोचरं वोलितं ॥ अयं ॥ ६ ॥ ज्ञानोपयोग विमलं विशदात्मरूपं, मूरम स्वभाव परमं यदनंतवीर्य । काँध कक्ष दहनं सुख शस्य बीजं, भन्दे सदा निरूपमं वरसिद्ध चक्र । महायं ॥१०॥
। जाप्यं कुर्याद् ॥ ॐ ह्रीं प्रसिधाउसाय नमः ॥ ॐ ह्रीं सम्यक्त्वाय नमः ॥ ॐ ह्रीं शानाय नमः || ॐ ही दर्शनाय नमः ॥ ॐ हीं वीर्याय नमः ॥ ॐ ह्रीं सक्ष्माय नमः ।। ॐ हीं अवगाहनाय नमः ॥ ॐ ह्रीं अगुरू लघवे नमः ॥ ॐ हीं अध्यावाधाय नमः॥
पभिर्मर्जाप्यं कुर्याद् ।। अर्घ्यचापि समुद्धरेत् ॥
. . ॥३८॥
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* जयमाला
(भ० विश्वसेन कृत) पता:- पणमवि परमेसर ऐमि विणेसर शासिय दुक्खिय कम्ममलो ।
__पुर कमि भत्तिय, णियमण सचिय, सिद्ध चक्क जयमाल फलो।१।। तमाला सभा झn Hila , स्वा दारूणा लोयणा रत्त भीसा ।
___गहा भूय चेपालणं साति चर्क, वरं भावये हिम्मत सिद्ध पर ।।२।। तणु भीसया बैंक दट्या कराला, बजालोयसा जीह खासा विसाला ।
वसी होति सिहाय डड्ढेण चक्क, बरं भावये णिम्मलं सिद्ध चक्कं ॥ ३ ॥ सरोसा अघोरा महाकाल रूवा, कुरुरा विपा सेविसा दुहमाना ।
___सकोहण डंकं तिहोणाप चक्कं, बरं भावये णिम्मल सिद्ध रक्कं ॥ ४ ॥ जरा खेय रोगावलि एठमाला, पमेद विरुठा लिया फूटसला ।
विणासंति सासाण लावाहि चक्कं बरं भाश्ये... ॥ ५ ॥ सधूमालि भोसणा संजलता, फुलिंगाप मेलति चंडाधिगता ।
पडाहोंति देहं सही जाल चक्कं वरं भावये....... ॥ ६ ॥ सकल्लोल लोला बहुला तरंगा, अपारा सिघोसा वसि सिंधु गंगा ।
अगाधासुतारंति सोणीर चर्क, परं मानो....... ॥ ७ ॥
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झसाया सक्ता सतिला समला, सकोदंडवाणा करे भीड मासा,
मारंति रो संगरे चोर चक्क, वरं भावये० ... '| ८॥ सगाढ़ा विधंधा वणा घोर रंधा, असाण मंगा ऊर्वमा विबंधा,
विमुचंति सासखशा पास चकं, वरं भावये....... ||६|| । सणा सग्गि पाणेण कम्मठणासं, ललाटे सुवीयं करेमोक्खवासं ।
फुडं देवकी दिही झाणं पयाउ' सुछन्दो चियाउ भुजंगप्पयाउ ॥१०|| इह वर जयमाला, वर सफला विस्स सेगेण कहिय बुहं,
जो भणे मणावे णियमण भावे सोणर पावदि सिद्ध सुहं । महायं ।
॥ इति सिद्धचक्र पूजा समाप्रम् ।।
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ॐ विद्यमान वीस तीर्थंकर पूजा ® पूर्वा पूर्व विदेहेषु, विद्यमान जिनेश्वराः ।
अहं संस्थापयाम्यत्र, शुद्ध सम्यक्त्व हेतवे ! ॐ हीं सीमंधर, युगमंधर, बाह, सुबाहु, सुजात, स्वयं प्रभ, ऋपभानन, अनन्तवीटी, सौरी प्रभ, विशास, वज्रधर, इंद्रानन, भद्रबाहु, श्री भुजंग, ईश्वर, नेमि प्रभु, वीरसेन, महाभङ्ग, यशोधर, अजीत वीर्ग, विद्यमान विंशति तीर्थ करात्र अवतर अवतर संवौषट् ।
॥४०॥
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१॥
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अत्र विष्ठ २४ः ठः । अब मम सन्निहितो भव भए ६षट् सन्निधि करणाम ।।
अथाष्टक। कपर वासित अल भृत हेम भृगं धारा त्रय ददति जन्म जरा पहान्योः । तीर्थंकराय जिन विशति विद्यमान संचर्चयामि पद पंकज शांति हेतु ॥ जलम् ॥ काश्मीर चन्दन विलेपन अग्रभूमि, संसार ताप हर दूर करोसि नित्यं । ती चन्दनम गादत्त रहा लिजनितेच, अल्प पदम्य सुख सम्पनि प्राप्ति हेतु ।। ती अक्षवम् । अम्भोज चम्पक सुगन्ध केरोमिपूजा मदनस्य मानंच विमर्दनाय ॥ ती० । पुरुष । नैवेद्यकैः शुचितरघृत पक्व खंडः, सुधादिरोगहर दुर करोतिनित्यं । तीर्थक ॥ नैवेद्यम् । दीः प्रदीपित जगत्त्रय रश्मिजात दूरीकरोति तम मोह विनाशनार्थ । तीर्थंक- ॥ दीपम् ।। धूपैः सुगंध कृष्णागुरू चंदनाय गंधैः सुगंधी कृत सार मनोहराणि । तीर्थंक ॥ धूपम् ॥ नारिंग दाहिम मनोहर श्री फलाच फलरभिष्ट सुख सम्पति प्राप्ति हेतुः । जीर्थ क. : फलम् ।। वागंध पुष्पादत व्यंजनैश्च, सद्दीप धूपफल मीश्रित हेमपात्र । अर्घ करोमि जिन पूजन शांति हेतोः संसारपार करूणाकुरू सेवकानां ।। अयम् ॥
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* जयमाला पत्ता- जय वीस जिणेसुर, गामीत सुरासुर, चक्रीवर पूजित वरणा।
जय ज्ञान दिवाकर, गुणरत्नाकर, पूना नाशै विश्न पणा ॥१॥
॥४१॥
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॥२॥
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जय वीस जिनेश्वर विधमान, मनु पंच शतक पर धनु प्रमान ।
जय भव्यकमल प्रतियोध देत,...... सीमंधर प्रणमु जिन परिन्द चन्द्र जुगमंधर बहु बलिन्द ।
हुँ बन्द बाहु सुवाहू स्वामी, जिन लीन विदेहे मोक्ष ठाम ॥३॥ सुजात स्वयं प्रभ जिन वरिन्द, अपमानन धर्म प्रकाशकंद ।
नंत वीर्य सौरी प्रभोय, बन्दु विशाल बज्जर धरोय ॥४॥ चन्दानन पाठम दीवमवीर हूँ प्रामु जिनसो भह तीर ।
तिहां पुष्कार्द्ध घिन मद्र बाह, भुयंगम ईश्वर जगह नाइ ॥५॥ नेमि प्रम वन्द वीरसेन, महाभद्र भव्य हित मधुर वैन ।
पद नम यशोधर शुद्ध भाव, जय अजित वीर्या वर मक्ति पाय ॥६॥ यह नाम जपंता जाय पाप, नहीं व्याप भव भव मोह ताय ।
जिन नाम जपंता होय रिद्धि, अनुक्रमे लहेते मोच सिद्धि ॥७॥
घनाः-जय बीस जिनेश्वर नमित नरेश्वर विद्यमान जिन सौख्यकराः । जे भरणे भयावे, अरू मन भाचे, गधे अविचल मोक्ष धराः ।। महायं ।
GAKO
. ॥४२॥
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श्री शीतलनाथ पूजा है (३० चन्द्रसागर कृत )
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दोहा:--भी सजोधपुर मंडन, शीतल नाथ जिनेश
__ अाह्वानन संनिधि करी, थापु आवहु देश ।। ॐ ह्रीं सजोधपुरतीर्थस्थ शीतल नाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर ३ संवौषट । अत्र विष्ठ निष्ठ ठः ठः । अत्रमम सन्निहितो भर भव वषट् ।
(राग-म्हारी दीन तणी सुनो विनती ) प्राणी गंगोदक शुभ जल्लसरी, रन जड़ित मृगार मुमारहो।
जिन चरणाम्बुज धारिये, जन्म जरा मरण निवार हो ॥ श्री शीतल जिन पूजिये प्राणी सजोधपुर वर मंडगो, सुखकरी भविषण सार हो ।
इन्द्र नरेन्द्र सेवा करे पामे नवनिधि अस्थ भंडार हो । श्री शीतल. ॥ जलम् प्राणी मातन चन्दन पतिकरि मलयागिरि शुभवास हो ।
जिन चरणाम्बुज चर्चिए, मव प्राताप करत पिनाश हो ।। श्री शीतल • चन्दनम् । प्राणी अखंड अक्षत ऊजला, ज्योतिचन्द्र किरण समजाण हो ।
अक्षतसु जिन पूजिये, बहे अक्षय पद सुख खाण हो 1 भी. अक्षतम् ।
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प्राणी जाही जूही चंपो सेक्सी और केतकी परम रसाल हो ।
पुष्पसु श्री जिन पूजिये, होवत मदन सुवाण मिनाश हो । श्री शीतल ॥ पुष्पम् प्राणी ताजा फेणी लाडुवा, और घेवर बार सार हो ।
सुवरण थाल मरी फरी, बुधा रोग न उपझे लगार डो । श्री शी० ! चरूम् । प्राणी रत्न जड़ित करी आरती, शुभ कपूर ज्योति विशाल हो ।
___जगमग जगमग चमकती, मोह तिमिर न रहे नगार हो ॥ श्री . दीपम् । प्राणी अगर तगर कृष्णा गुरू, जिन चरणे अग्रेउ खेब हो।
परिमन्न दश दिशी निर्मली, मष्ट कर्म न रहे ततखेव हो श्री शी. ।। धूपम् । प्राणी श्रीफल आम्र विजोरड़ा और पूग बदामरू ईख हो ।
फल सु श्री जिन पूजिये, शिव फल पामे यहुलाख हो । श्री शी० फलम्। जल गंध पुष्पाक्षच चरू, दीप धूप फल लेई हो
अर्ध उतारो माव सु पामे अर्थ सकल सुख देई हो ॥ श्री शीतल० ॥ प्राणी काष्ठा संध सोहामणो, गच्छ नंदीतट मनोहार हो ।
सकल कीर्ति गुरु पदनमी, कहे चन्द्र सागर ब्रह्मचार हो । अर्घ० ॥
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४५ ॥ +++
॥ जय माला ॥
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पत्ता - शीतल जिनसार है, दुखनिवार है, सुखकारी जिनवर कहियो ||
भव पावक हरत',
शिव फल करता, परमानन्द पदते लहियो ॥
( राम - मगुणा इन्द )
सजो० ॥
सो० ॥
सजो० ॥
शीतलं जिनवरं पूज्य शिव गामिनं, गावए गुण गया अलरा भामिनं " सजोधपुर मंड, मदन रिपु खंडणं, वंश इच्चायिकं वंशवर मंडय ॥ आयु दर पूर्व लक्ष हेमवर्ण तनुं समवशरणं वर, राजितं जिन मनु' ॥ सभा बारह प्रवि राजितं जिन वरं, वृक्ष अशोक शिर ऊपरं अम्बरं । पुष्प वृष्टि करी देव मन निर्मलं, दिव्य ध्वनि गर्जितं पाप नाश मलं ॥ तीन सिंहासनं शोभ प्रविराजितं चानर द्वात्रिंश, युगलं सुत्राजितं " सजो० ॥ छत्र, इंडेय ऊपेतं, रत्नमालावरा, चन्द्र सूरेण तं ॥ सजोधपुर ॥ कोटि सार्द्ध द्वादशं दुदुभि गर्जितं कर्म अष्टक रिपु मदन तेज तर्जितं ॥ सजी० ॥" नाचती किंकरी, देव देवी गण, तान मानं, महा भाव मान राग ॥ सजोध० || राग छत्तीस मुख, गान संगायती, हस्त वीणा लई मधुर सुखावती | सजोध देव नर नाग सुर असुर संसेवितं दुख दावानलं दुरित देवतं ॥ सजोध० ॥
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पंच कल्याण सुरकून गर्भाविक, मुक्ति स्मणी वशीकरण सुखारितं ॥ सजोध० ।। पत्ता:- इति गुण जयमाला, सुरभिर साला, कोटि पाप दूरी करण ।।
शीतल जिन कहियं, गुखगण महियं, ब्रह्म चन्द्र एणि पेरे कहियं । पूर्व्यिम् ।
• श्री शांतिनाथ पूजा ॐ
(भ. चन्द्रकीर्ति कुत)
- रागः-भवतामर स्तोत्र की। श्री मत्सुरेन्द्र मुकुटामल रत्न रोचि, पीयूष पूर परि पूजित पाद पद्म ||
श्री करवान्वय नभस्तल पूर्णचन्द्रः श्री शांतिनाथ जिनपं भुवनैमहामि । जलम् ॥ अष्टादशार्द्ध निधि पूरित सब काम, सप्तदि कामर सुरक्षित रत्न नार्थ ।
श्री विश्वसेन तनुजं मनुजेन्द्र सेव्यं संचर्चयामि हरिचंदन केशरौधैः । चन्दतं ॥ पद खंड भूप परि संस्तुत पाद पीठं, देवेन्द्र दिव्य रमणी परिगीत कीर्तिः ।
संप्राप्त सर्व नयनोत्सब कारी रूपं, शान्तीश्वरं परिचरे कमलावतीः । अक्षतम् ।। प्रस्वेद विन्दु परिवजित दिव्य देह, निषेद भाव पिरलीकृत मोह गेहं ।।
दुर्वार पंचशर कुंजर कुजरागि, संपूजयामि कुतुमैजिन शांतिनाथ ॥ पुष्पम् ॥
॥४६॥
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छत्रत्रयोसम विभूति घिरायमानं, देवांगना ललित सुस्वर गीयमानं ।
सचामरालि परिबेष्ठित युग्म पत्र, शांतीशमीश मुनय रहभिजेहम् । वरु ॥ यज्जन्म काल समुपागत देवराज, निर्भाक्तिस्त्रिदश मेरु महाभिषेकः ।
दुग्धाब्धि पारि निव है: परमोत्सवेन दीपैर्भजामि भगान्तमुमेशशांति । दीपं । दुष्टाष्ट कर्म गिरि भंजन बन तीर्थ', मिथ्यान्धकार पटसोज्वल वाशमूर्य ।
गंभीर दिव्य ननदामृत पुष्ट भन्ने शांतिजिनेन्द्र ममलं परिधृपरामि । धूपम् । श्री इम्तिनागपुर संभव नाथ मीशं, निर्वाण धामगत रुप मनंत सर्व ।
श्री नारिकेल वर दादिम मातु लिंगैरेरोशर रजमलं परिपूजयामि । फलम् । काष्ठा संघ मुनीन्द्र वर्ग विबुधैः श्री भूपणोः संस्तुतः ।
संसृत्याविपार लन्धि काणैः श्री कर्ण धारोगिता । अम्भश्चन्दन पुष्पतंदुल हरि: स्नेहप्रियाद्यपितो ।
भूयान्मोक्षफलायते जिनवराट् श्री चन्द्र कीर्तीश्वरम् ।
* जयमाला
॥४७॥
विराग विभाग विरोग वभोग, विकार विरेक मिनेन्द्र वियोग ।
प्रसीद सनातन शांति जिनेन्द्र, स्वपाद सरोरूह भव्य शतेन्द्र ॥१॥
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॥४८॥
विवाद विनाट विपाद विराम, विजंत्र विमंत्र वितंत्र विकाम । प्रसीद० ॥ २॥ विशेष बितोष विमोष विघोष, विवोघ विशोध विरोध निदोष ॥ प्रवीद० ॥ ३ ॥ विगन्ध त्रिबंध विशब्द विरूप, विगह विदेह विमोद विकूप ।। प्रसी३. ॥ ४ ॥ विवर्ण विकर्ण विवित्त विचित्त, विरेख विलेख विमेष विचित प्रसीद. ॥ ५ ॥ विमाय विकाय विदंभ विलोभ । वितर्ष विमर्ष विदर्भ विशोभ । प्रसाद. ॥ विसाध्य विराध्य त्रियाध्य विशुद्ध विशोक विलोक, रितंद्र विबुद्धः ॥ प्रसीदः । विवाल विबाल विकाल विमाल, विशाल विमाल विजाल विताल, ॥ प्रसाद । श्री संघ मांगल्य विधान पूर्ति, विशालयक्षस्थल दिव्य मूर्तिः श्री शांतिनाथो चिंत चंद्र कीर्तिः, ददातुवः सर्व सुखातमूर्तिः । अधैं । कल्याणं विजय भद्रं चिन्तितार्थ मनोरथाः शांतिनाथ प्रसादेन, सर्वे अर्थाः भवन्तु नः || || ईत्याशिर्वादः ।।
8 अथ श्री कलिकुण्ड (पार्श्वनाथ) पूजा 3
हीकारं ब्रह्मरूद्ध स्वर पर कलितं, वन रेखाष्ट भिन्न
वनस्याग्रंतराले प्रणयमनुपमा राहतं वर्णान्ताद्वान्सपिंडान् हभमरघझसम्वान्वेष्टयेतद्वदन्ति
वज्राणां यंत्र मेतत् पर कृतमशुभं दुष्ट विद्याविनाशम् ॥ १ ॥
॥४८॥
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ॐ हीं श्रीं ऐं अहं कलिकुण्ड दण्ड स्वामिन् अत्र एछि पहि, रुयोप, । अाहाननम । पिण्ड स्थापाफ्नोदं इभमाघझ सखान् हतियुक्तादिदस्युः
शाकिन्यो यान्ति नाशं बरल यसर्फेनयुक्नै महोना । यन्त्र श्री खंड लिप्तो शुचिषसे कांस्यपात्र सुमंत्र:
लेखिन्या दम ता निखिल जन हितं ३य सौख्यं विमति ॥२ । ॐ ही श्रीं ऐं अहं कलिकुण्ड दण्ड स्वामिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठ. । स्थापनम् । सिद्ध विशुद्ध महिमा निवेपं, दुष्टारिमारि ग्रह दोष नाशं ।
सर्वेषु योगेपु परं प्रधान, संस्थापये श्री कलिकुरा यंत्रम् ३॥ ॐ हीं श्रीं ऐं अहं कलिकुण्ड दण्ड स्वामिन् अत्र मम सन्निहितो भा भव __वपट् , । सन्निधापनम् ।। कलिकुण्ड पन्त्रो परि पुष्पांजलि क्षिपेत् ।।
(कलिकुण्ड यत्र स्थापनम) ॐ श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथ स्तवनम् *
प्रणम्य देवेन्द्र नुतं जिनेन्द्रं सर्वज्ञ मज्ञ' प्रतियोध सुज्ञम्
स्तोप्ये सदाऽहं कलिकुण्ड यत्र सोङ्ग विघ्नौष विनाश दक्षम् ॥१॥ नित्यं स्मरन्तोऽपिहि एपि भक्तया शक्तया स्तुरन्तोऽपि बपत्सुमंत्रम् ।
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॥५०॥
पूजां प्रकुर्वन्हृदयेद्धानं सर्वेप्सितं यच्छतु मंत्र राजं ५ २ ।। गृहाङ्गणे कल्प लता प्रसूनं चन्तामणि चिन्तित वस्तु दाने ।
गावश्च तुन्या किल कामधेनो यस्यास्ति भक्ति कलि कुंड यन्त्र ३ ॥ नमामि नित्यं कलि कुण्ड यन्त्र सदापवित्र कृत रत्न पात्रं ।
रत्नत्रयाराधन भाव लभ्यं सुरासुरैर्वेदितमाद्यमिव्यम् ॥ ४ ॥ सिंहेभसर्पारित जान्धि चौरा, विषादयो न्यानिसदापतिः ।
व्याधादयो राज्य भयं नृणां हि नश्यन्त्यवश्यं कलि कुंड पूजनात् ॥ ५ ॥ प्रदुष्टबन्ध गर्नियन्त्रित्रुटति शीघ्र प्रपन्सुमंत्र |
पराचि सारा ग्रहणी विकारा, प्रयान्ति नाशं कलि कुएड पूजनात् ॥ ६ ॥ वन्ध्यावारी हु पुत्र युक्ता, संसार सक्aा प्रिय वित्यरक्ता 1
पारित वित्त कलि कुण्ड चिन्ता, नमाम्यहं तं सततं त्रिकालं ॥ ७ ॥ सर्वे प्रतिघात दक्ष, सौख्यंयशः शांतिक पौष्टिकाभ्यां ।
८ ।।
नमाम्यहं तं कलिकुण्ड यंत्र विनिर्गतं यज्जिनराजक्त्रत् ॥ स्तवनमिदमनिन्द्य, देवराजाभिरन्यम् पठति परम भक्तया योनरः सर्वद हि ।
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सकल सुखमनं कल्पित प्राय सर्वं विनिहित विनी यंत्रराज प्रसादात् ॥६॥ ॥ इति श्री कलिकुण्ड स्तवन विधानम् ॥
गंगा पगा तीर्थ सुनीर पूरैः शीतैः सुगन्धे घनसार मिश्रैः ।
दुष्टो
विनाश हेतु समर्चये श्री कलि राडयन्त्रम्
। १ ।
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ॐ हीं थी ए' अहं कलि कुड दंड स्वामिन् श्री पार्श्वनाथाय ली धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय अतुल अल वीर्य पराक्रमाय सर्व विघ्न विनाशनाय नवग्रह शान्त्यर्थ जलं यजामहे साहा ॥ श्री चन्दनैध पिलुब्ध भृङ्ग': रोतमैगध विशाल युक्नैः । दुष्टोप० ॥ चन्दम् ॥ २ ॥ चन्द्रावदाते. सरले. सुगन्धैरनिन्ध पानशाजि पुनः । दुष्टोप० ॥ अक्षतम् ॥ ३ ॥ मंदार जातकुलादि कुन्दैः सौरभ्य रम्यौः शतपत्र पु । दुष्टोप. पुष्पम् । ४ ।। वाष्पायमानै घृत पूर पूरै नानाविधैः पागतः रसाठ्यः । दुष्टोप० ॥ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ विश्व प्रकाशैः कनकावदात दोश्च कपूर मगविशालैः । दुष्टोप. ॥ दीपम ॥ ६ ॥ कपूर कृष्णा गुरू चन्दनाय धू ः सुगन्धेरे द्रव्य युक्तः ॥ दुष्टोप० ॥ धूपम् । ७ ॥ खजूर राबादन मालिकः पूर्गः फलैः मोक्ष फलाभिलापैः ॥ दुष्टोप. ॥ फलं ॥ ७ .! जलगंधाक्षत पुषनैवेद्य दीप धूप फल निकरः । श्री कलि कुण्डाय व ददामि कुसुमांगलि विमलां ॥ अणे । ६
जप्यं कुर्यात् ।। ॐ हीं श्रीं ऐं अह' कलिकुण्ड दण्ड स्वामिन्धी पार्श्वनाथाय ही धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय अतुल बलवीर्य पराक्रमाय सर्व विघ्न विनाशनाय नमः यात्म विद्या रक्ष रक्ष पर विद्या ब्रिद्धि छिद्धि भिंद्धि भिंद्धि स्फा की स्फु स्फू मैं फौं स्फः ह फट् स्वाहा ।
एभिमत्रैः जाप्यं कुयादर्घ चापिसमुद्धरेत ॥ उक्त मंत्र के नव जाप्य देकर अर्ध चढ़ावे ।
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* जयमाला घर सम्मत बिहु सण हो, भषियण जिसवर समरणे ।
मासिप पाउ असेस सहू, उमजम दिवार विधरणे ॥ १ ॥
(राग-विराग सनातन) सुदुद्धर अंजण पुब्धय काउ, दिसाकर तासण मेह णिणाउ ।
सुदुप्प विपिंजण देउ करिंद मणम्मि भर्णता देउ जिणंद ॥ २ ॥ पसत्त समि हिय दितु समूह महावल लोल लोला विह जीह ।
सरोसण दे उप कम्म मयंदु, मणम्मि० ...... । तपाल महीलह झंपड़ सीस, दिणेसर सरिण य लोयण मीस ।
हवेई यमरण पयासुर इंदु, मणम्मि.......... विभिय वेलण हिंग्गण वेल, जलोमन जीव पसासिय शेल ।
अथाहु विगोप्पय मित सुरेन्द मणममि........" फुडंति फोडायण रूद्धय यंति, विज्ञोय खयंका शायक यति।
मग मि. . .. .... ॥ ६ ॥ दुसंचर तोरण पुन्वय दुम्गि; असंख महीरूह भीसह मग्गि ।।
___ कहेप्पणु लगाई तक्कर विदु, मन्मि ... ॥ ४ ॥ घिराण वि सक्कई तिब्ब जलंति, जगत्त उजालण साायक यति ।।
मसोम हवेई सद्दी जम चंद, मणम्मि, .. ॥ ॥
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मिलिय बंधय सजण चक्खु, अणेयपयार पासिय दुक्खु ।
विहहुई भुखल रिन्दु सुरेन्दु. मणम्मि,... ॥ ६ ॥ मणोहर द्रन्दिय सोमय चारू भपंदर मूल सिलेनम सारू ।
पणासिय रोवत हानर बिंदु, मणम्मि..... ॥ १० ॥ दुलंघण ए विणु पासह बृह, यामारि वि मक्कई सत्त समूह ।
किंवाष हवेई अलं अरविंदु मणम्मि.... । ११ ॥ यत्ता-वर खगेंदु झायंवदा, गारूडिया मिटि विसुजीह ।
भरियण यणाणंद जिष्णसमरंता उवसग्ग तह ॥ १२ ॥ महाय॑म् ॥ सर्पत्सपेंषु दर्प, स्फुट तरन तरोत्तार फुत्कार वेला ,
संघट्टोत्पत्ति बाताहत शठ कमठोद्भुत नीमून जातः । खेलत्स्वर्गापवत्तिर्राण तरल सल्लोल डितिर पिडा, ___ व्याजा भी पार्श्वनाथो गयविजय यशो राज हंसो बताद्वः ।।
इत्याशीर्वादः ।। दधे मूनहिताशेषः नाता सर्व देवता ।
मयाक्रमाद्विसमेत निर्गच्छामि जिनालये । इति विसर्जन मंत्रः ।। शांति वृद्धि जयं सौख्य, मैश्वर्यारोग्य मिच्छसा ।
कल्याणं तुष्टि तुष्टिच संतुतेऽहत्प्रसादतः ॥
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ॐ श्री ऋषि मंडल पूजा के
प्रणम्य श्री जिनाधीश, समस्त लब्धि संयुतं ।
ऋषि मंडल यंत्रस्य, वक्ष्ये पूजादिमज्यशः ।। ये जित्वा तिज कर्म कर्कश रिपून्, कैल्पमाभाजिरे , दिव्येन ध्वनिनावरोधमखिलं चक्रम्यमाणं जगत् । __प्राप्ता निवृतिमक्षयामतितरा,- मतातिगामादिगा ,
वन्य तान् वृषभादिकान् जिनवरान् वीराबसानाहं ॥ ॐ ह्रीं वृषभादि वर्द्धमानान्तास्तीथं कर परमदेवाः अत्रावतर अवतर संवौषट् ।। ॐ ह्रीं वृषभादि वर्द्धमानान्तस्तीर्थ कर परम देवाः अत्रविष्ट तिष्ठ ठरः स्थापनम् । ॐ ही पपादि वर्ष मानान्तास्तीर्थ का परमदेवाः अन्न मम सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधापनम् ॥ यंत्र श्वापनं ।।। कार पंकज पराग सुगंध शतै,- साकाशशांक विमलैः सलिलैजलौघैः । सत्पात्रतामुपगतर्मधुरै विष्टै-द्विद्वादश प्रमजिनाघ्रियुगं महामि ॥
____ॐ हीं वृषमादि वर्धमानन्तिास्तीर्थंकर परम देवेभ्यो जलम् ॥१॥ काश्मीरपूरपन मारगतोयभावे, ह्यान्तांगपरितापहरैपेचित्रः ।
भीचन्दनोत्कटरस: सुरसै सुभक्तपा द्विद्वादश० ॥ चन्दनं ॥
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माधुये गन्धं निहान्न्ति दिव्यदे है देन्दुमागरककोज्यलचारूशोभैः ॥
शाज्यक्षतैः शुभगयात्रगतैरखंडै छिंद्वादश० ॥ अक्षतं ॥ मंदार कुन्द कमलान्वित पारिजातैः, जाति कदंब मसलातिथिसत्प्रसूनैः ।।
गंधागतभ्रमरजात स्वप्रशस्तैः द्विादश० ॥ पुष्पं ॥ नैवेद्य मंडक सुमोदक खऊ लाद्य : मपोलिका बटक व्यंजन पंच भक्षः ।
सच्छालिभक्तघृतयुक्तपरैविशुद्धे, द्विद्वा० । चरू ॥ दीपवरमल कीनकलाप सार, विमता भुपगते सम्मलैचलभिः ।
पीता ति प्रचय निर्जित जात रूपै, द्विद्वा० ॥ दीपम् ॥ कृष्णागुरू प्रमुख पार सुगंधद्रव्य प्रोद्भुतमूर्तिभिरल वरधूप जाल।।
धूमवन प्रमुदितां दितिनंदनोग: द्विवा. धूपं. ॥ नारिंग पूगदली फल नारीकेल, सन्मातुलिंग क्रमुक प्रमुखैर्फलोद्यः ।
शाखा सुपाकमधिगम्य विरक्त चित्त, विद्वादश० ॥ फलम् । जल गंधाक्षतः पुष्पौरचरूभिदीपधूपकैः ,
फलैरर्थ विधायासु श्री जिम्यो ददे मुद्दा || अर्थ । ॐ ह्रां हिं . हैं हैं हौं हूँ। असि पाउसा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो हीनमः अस्प मंत्रस्य शताष्ट वारं जाप्यं कुर्यात् ॥
। उक्त मंत्र के ६५ आन्य देकर अर्घ चढावे)
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||५|| .
जयमाला परमति जिय देवं, मुरकिय सेवं, खासिय जम्म जरा मरणं ।।
सिव सुह कयरावं, गय मय रा गिय भत्ति जुतिए धुणनि ॥ जय पाईमाह कम्मारिवाह, जप अजिय जिणेसर मोह दाह ।।
जय संभव गय परराज डंभ, जय अहिणंद जिण परम बंभ ॥ जय मई कुमई गय देर देव, जय पुहुमप्पय सुर विहियसेव ।
जय जय सुपास मणिहर सुभास, जय चन्दपह जीयचंद हास ॥ अत्य पुष्फ यत जो पुफयत, जाप सायल मीयल जिय पियां ।
जय सेय देव कय सच सेब, अस वासवृक्ष सुरकियतीसेव ।। जय विमल जिनेसर विमलणाम, जय जिय अणंत गय परमठाए ।
जय धम्म धम्म देसण ममन्थ, जयमाति सांति गप गथ सत्थ ।। जय कुथु सामि गय कम्मपंक, जय जय र सामी समिय संक ।
जय मम्ली सामीगय मत्तभंग, जय जय मुणिमुञ्चय बिय अणग ॥ जय णमि जिणगिर सिय सन्ध संग, जय मि मुकाई य रंग।
___ जय पाम देव फणि नई परिह । जय बमाण गुण गण गरिट्ठ। घत्ता-इयथुण मि जिणेसर, महि परमेसर णात्रियम्म कलंकभर ।
चरपई बहु सामिय भव भयं भामिय, उत्तारि जे अटथुबई ॥ अर्ध ।
॥
६॥
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:.५७॥
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निशेषामर शेखचिंतपदः, दुन्दौल्ल सत्सनवः ।
___ वात प्रोम्दत कांति मंहति इतः, प्रत्यक भक्तयः सब ॥ निर्वाणेश महोतमांग मुकुट, प्रकृति मभद्रतरा ।
ऋद्धि वृद्धि मनारतं जिनवा, कुर्वन्नु वः सर्वदा ॥ इत्याशिदः ।।
श्री सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र पूजा सम्मेदाचन तीर्थ है, सब वीर्थो का राज ।
___ अहँ ते शिवपुर को गये विंशति भी जिनराज । बाहानन विधि सौ करू, करूँ स्थापना सार
सनिधि करण क्रियाकरी, मैं उतरू भव पार ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र अत्र अवतर २ संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्री सन्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् । क्षीराम्बुधि सारं, पयसमकार, मिश्रित हेम भृगार भरं ।
जल धारा दीजे, अशुम हणीजे, कर्ममलामल धौत करें । पूजा गिरि धाम, शिखर सुठाम, बीस जिनेश्वर पद कमलं । जहं बम विराज, महिमा छाजे पाय जिनेवर सौख्य करं ॥१॥ जलम् ।।
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५||
कपूर सुमार, जग उद्धार, मिश्रित घसिये प्रेमकरी ।
हेमादिक चित्र' जडित विचित्रं, चन्दन चरचों भार धारी । पूजा० ॥ चन्दनम् :! धवलायत राशि, कमल सुबासी, तंदुल पूज्य स अग्रवरं ।
शशि किरण समानं, कीजे ज्ञानं, अक्षय पद जिम सौख्य करं । पू. ॥ अक्षतं ॥ चम्पक द्वय जातं, कमल विख्यातं, केतकी कुन्द मंदार चयं ।
शुभ मोगर लीजे, काम हणीजे, पद पूजीजे बीस जिनं । पूजा ॥ पुप्पम् ॥ घार बहु पूरी, साकर चूरी, खज्जक लाई सुचाली करी ।
___ शुभव्यंजन लीजे, थाल भरीजे, अन उतारे भाव धरी । पूजोगि० । नैवेद्य । रत्नादिक दीपं, सहन स्वरूप, कपूरामल ज्योति कर,
वर कंचन पात्र', जहित विचित्र, भावे उतारो दी वरं ॥ पूजोगि० " दीपम् । कृष्ण गुरू बन्दन, तगर सुगंध, अगरादिक बहुधूर चयं,
___ दर्शादशी शुभवासं, कर्मविनाशं, श्री जिन आगे धूप करं ॥ पूजोगिः । धूपम् । द्राक्षादिक सारं, कदली भारं, श्रीफल घूम जम्बीर फलं ,
फणसादिक लीजे, थाल भरीजे, शी फल लीजे भविक अलं : पूजोगि० ॥ फलम् ॥ जल श्रादिक श्रीन, अर्थ समुज्वल, भारती गद्दी करी ज्ञान करं,
जिन चरण तारो, तीर्थ जुहारो, लक्ष्मी सेन शुभ भाव करं । पूजोगि० ॥ अय॑म् ।
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५६ ॥ --
जयमाला
mm
समेद शीखर सिद्या जिन बी, बन्द भवियथा भाव घरीशं ।
शिखर बंध जिन पयडि विशालं, घंटा मेरी ध्वजा गुण मालं
1
वन उन्नत जहां मधुक विराजें, पार्श्व जिनेश्वर महिमा छाजे उत्तम वन मधि वृक्ष विशालं, कदली स्तंभावली सुरसालं जय डुंदुभि नित मंगल नाई, सुन उपने परमान्हार्द परत समुन्नत सोहे, देखत मविजन के मन मोहे ॥
करत है रक्षा क्षेत्र सुपालं, सीता नाला सजल विशालं । चैन्य अनूषमविशति छाजे, मुक्ति गये बीसों जिन राजे ||
1
अवर न तीरथ शिखर समानं, देवेन्द्रादि सुकर प्रणामं ।
8
पत्ता - यह शुभ जयमाला, मात्र रसाला, जे प ंति मवि भावरि गुरू सकल सुकीर्ति, पट्ट सोहे मूर्ति लक्ष्मीसेन शुभ
१ ।
।। शीखर० २ ॥
शिखर० ३ ॥
शिखर० ४ ॥
जे भवि प्राणी यात्रा करहि श्रनुक्रमते शिवतिय चरहि ॥ शिखर० ॥ ॥
1
भाव धरि ॥ ६ ॥ पूर्णम् ॥
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દિની
tr षोडशकारण भावना पूजा
मन्द्रपदं प्राप्य परं प्रमोदं धन्यात्मतामात्मनि मन्यमानः
शुद्धि मुख्यानि जिनेन्द्र लक्ष्म्या, महाम्यहं षोडश कारणानि ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धयादि पोटश कारयनि अत्र अवतरत अवतरत संगोषट् । ॐ ह्रीं दर्शन विशुयादि षोडश कारयनि अत्र तिष्ठत विष्ट, ठः ठः । ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धयादि षोडश कारणानि यत्र मम सन्निहितानि भवत भवत वषट् " सुत्र भृङ्गार विनिर्गताभिः पानीयधारा मिरिमाभिरुच्चैः ।
J
॥
क शुद्धि मुख्यानि जिनेन्द्र लक्ष्म्य महाम्यहं षोडश कारणानि ॥ जलं ।। १ श्री खण्ड पिण्डोभदव चन्दनेन, कर्पूरे पूरैः सुरभीकृतेन टक्शु ॥ चन्दनम् ॥ २ ॥ स्थूलैरखण्डेर मलैः सुमन्त्रैः शाल्यचतैः सर्व जगन्नमस्यैः 1 टक्शु गुञ्ज दद्विरेकैः शतपत्र नाती सत्केतकी चम्क मुख्य पुष्पैः । दृक्शु aata yaara विशेष सारै नानाप्रकारे पचरूमिर्वग्प्टैिः । दृक्तु तेजोमयोन्लाम शिलै प्रदीपैः दीपप्रभैस्त तमो वितानेः ॥ दृक् कपूर र कृष्णागुरू चूर्णरूपे धूपै हुताशाहूत दिव्य गन्धैः ॥ दृक्शु सन्नारिकेल कमुक्राप्रधीजैः पूगादिभिश्चारुफलैः रसादयैः । दृक् ॥ फलम् ॥ पानीय चन्दन रसाक्षतपुष्प भोज्य, सदीपधूपफलकल्पितमर्धनात्र
॥
॥ धूपम् । ७ ।।
1
श्रतहेत्वमल षोडश कारणानि पूजा विधी विषल मंगलमातनोमि ॥ अर्ध्यम् ॥ ६ ॥
अक्षतम् । ३ ॥
पुष्पम् ॥ ४ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥
दीपम् । ६ ।।
|| 3
+4
॥६०
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यहायदोप वासारयुकपर्यते तदातदा 1 मोक्ष सौख्यस्य कतणि कारखान्यपि पोडश ।।
। पुष्पांजलि क्षिपेत् ॥ ॐ अथ प्रत्येकार्य छ भसत्य सहिता हिंसा मिथ्यात्वं चन दृश्यते । अष्टाङ्ग यत्र संयुक्तम दर्शनं तद्विशुद्धये ॥ ६ ॥ कत्रित्त-दर्शन शुद्ध न होवत जा लगि, तो लगि जीव मिश्या-वी कहावे ।
काल अनंतफिरे भवमें, महा दुःखनको फहीं पारन पाये । दोप पच्चीस रहित गुणाम्बुधि सम्यक दर्शन शुद्ध अराधे ।
ज्ञान कहेनर सोही बड़ो जो मिथ्याव तजि जिन मारग साधे ।। १ ।।
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धयै अय॑म् ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र पसां यत्र गौरवम् मनो वाक्काय सशुद्धया सारख्याता विनय स्थितिः ।। २ ||
देव तथा गुरूराय तथा तप संयम शील व्रतादिक धारी ।
पापके हारक कामके मारक शल्य निवारक कर्म निवारी । धर्म के धारक पाके भेदक पंच प्रकार संसार के द्वारी
ज्ञान कहे विनयो सुख कारक माघधरी मन राखी विचारी । २ ॥
ॐ ह्री विनय सम्पश्चताय अर्धम् ॥ २ ॥ अनेकशील सम्पर्ण व्रत पंचक संयुतम् । यच विंशति क्रियायत्र उच्छील व्रतमुच्यते ॥ ३ ॥
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शील सदा सुख कारक है, अतिचार विवर्जित निर्मल कीजे,
दानव देव करें तम सेव विषाद ने मूल पिशाच पसीजे । शील बडो जपमें हथियार जु शील को प्रोपमा काहे की दीजे
ज्ञान कहे नहीं शील बरावर तात सदाद शील धरीजे ॥ ३ ।
ॐ हीं शील व्रतेप्धनतिचार मावनाये अर्ध्वम् ।। ३ । काले पाठस्तवो ध्यानं शास्त्र चिन्ता गुरोनुतिः । यत्रोपदेशना लोके शास्त्रज्ञानोपयोगता ॥ ४॥
ज्ञानसदः जिनराज को भाषित, आलस छोड़ि पढ़े जु पढावे ।
द्वादश दोऊ अणेकह भेद सु नाम मति श्रुत पंचम पावे । चारह वेत्र निरन्तर भाषित ज्ञान अभिक्षा शुद्ध कहावे,
ज्ञान कहे श्रुत भेद अनेकजु लोक अलोक प्रत्यक्ष दिखावे ॥ ४ ।
ॐ ही अभीक्ष्णज्ञानोपयोगाय अय॑म् ॥ ४ ॥ पुत्र मित्र फल भ्य संसार विश्यार्थनः विरक्तिर्जायते यत्र स संवेगो बुधैः स्मृतः ॥ ५ ॥
मात न तात न पुत्र कलत्र न संपत्ति सज्जन यह सब खोटो,
मंदिर सुन्दर काय सखा सब कोई कहे इम अन्तर मोटो । भाबहु भावधरी मन मेदन नाहि संघम पदारथ छोटो ।
ज्ञान कहे शिव साधन को जैसे साह को काम करेजु रनोटो ।। ५ ।।
. . . ६२।
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ॐ ही संधगाए प्रयम् ॥ ५ ॥ जघन्य मध्यमोत्कृष्ट पात्रेग्यो दीयते भृशंम् शक्तया चतुर्विधं दानं साख्याता दान संस्थितिः ॥ ६ ॥
पात्र चतुर्विध देख अनुराम दान चतुर्विध मावनों दीजे ।
शक्ति समान अभ्यागत को यह आदर सो प्रणिपत्य रीजे । देव तजै नर दान सु पत्तहिं ताक्षौं अनेकह कारण मीजे ॥
बोलत ज्ञान देहु शुभदान जु भोग सु भूमि महासुख लीजे । ६ ||
ॐ ही शक्तितस्यागाय अय॑म् ॥ ६ ॥ तपो द्वादश भेदं हि क्रियते मोत लिप्सया ।
शक्तितो भक्तितो पत्र भवोरसा तपसः स्थितिः ॥ ७ ।। कर्म कठोर गिराधन को निज शक्ति समान उपोषण कीजे ।
बारह भेद तपोतय सुन्दर पाप तिलांजलि काहे न दीजे ॥ भाव धरी तप घोर करी नर जन्म सदा फल काहे न लीजे ।
ज्ञान कहे ना जे तपत्रे तप ताके अनेकह पातक छीजे ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं शक्तितस्तपसे अयम् ॥ ७ ॥ मरणोपसर्ग रोगादिष्ट वियोगा दनिष्ट संयोगात्, न भयं यत्र प्रविशति साधु समाधिः सविज्ञेय ।।
॥३३॥
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1६४॥
पाद समाधि को भनि नाक पुए बड़े उपजे अयमाजे ,
साधु की संमबि धर्म को कारण भक्ति करै परमारथ भावे । साधु समाधि अरे भव छूटत कीति छटात्रय लोक में गाजे । ज्ञान कहे जग साधु बड़ी गिरि श्रृंग गुका विच जाय बिराजे ॥ = ||
ॐ ह्रीं साधु समाधये अय॑म् ॥८॥ कुष्टोदर व्यथा शूलधांत वित्त शिरोतिभिः ।।
कास खास ज्वरा रोगैः पीडिता ये मुनीश्वराः ॥ तेषां भैपज्यमाहारं शुश्रुपापथ्यमादरात । यत्र तानि प्रवर्तन्ते वैयावृत्त्यं तदुच्यते ॥ ६ ॥
कर्म के योग विथा उपजे मुनि पुंगव को तस मैपल की,
पित्त कफानल तास भगन्दर तापको शूल महागद छीजे । भोजन साथ बनाय के औषध एथ्य कुपथ्य विचार के दीजे
ज्ञान कहे नित एसी बैयावृत्ति जेहिकरें तस देव भी पूले । ६ ॥
___ ह्रीं वैयापुतिकरणाय मळम् ॥ ६ ॥ मनसा कर्मणा वाचा जिन नामाक्षर द्वयं । सदैव मयते यत्र सार्हन्तिः प्रकीर्तिता ॥ १० ॥
देवसदा अरहन्त भजो जिन दोष अठारह किया अतिदूग ।
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६५५
पाप पखाल भये प्रति निर्मल कर्म कठोर किो अति यूरा । दिव्य अन्त चतुष्टय सोभित घोर मिथ्यात्व निवारण शूल,
ज्ञान कहे जिन राज पाराधो निरन्तर जे गुण मन्दिर पूर! : १० ॥
ॐ ही अहंभक्तये अर्यम् ॥ १० ॥ निथ भुक्तितो भुक्ति स्तम्य द्वारावलोकनम् तद्भोज्या लभते वस्तु रसत्यागोपनासता ।। तत्पाद बन्दना पूजा प्रणामो विनयो नतिः
एतानि यत्र जायन्ने गुरू भक्तिमतेतिसा ॥ ११ ॥ देक्त हैं उपदेश अनेक सु आप सदा परमारथ धारी,
देश विदेश विहार करें दश धर्म धरै भर पा उतारी । एसे प्राचार्य को भावधरी भजि जे शिव चाहत कर्म निवारी,
ज्ञान कहे जिन भक्ति कीनों नर देखतहों मनमाही विचार || ११ ।
ॐ ह्रीं प्राचार्य भक्तये अय॑म् ॥ ११ ॥ भस्मृतिरनेकान्त लोकालोक प्रकाशिका ।प्रोक्ता यत्राईता वाणी वय॑ते सा बहुश्रुतिः ॥ १६ ॥
आगम छन्द पुराण पढ़ाबत साहित्य तर्क वितर्क पखाणे । साव्य कथा नव नाटक चूमत ज्योतिष वैद्यक शास्त्र प्रमाणे।
.11६५il
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एसे बहुश्रुत साधु पुनीर जो मममें दोउ भाव जु आणे,
ज्ञान कहे तस पाय नमू श्रुत पारग ये मन गर्व न आणे ॥१२॥
ॐ हीं बहुश्रुत भक्तोऽयम् ॥ १२ ॥ षट् द्रव्य पन्च कायत्वं सप्त तत्वं नवार्थता ।
को प्रकृति विच्छेदो पत्र प्रोक्तः स भागमः ॥ १३ ॥ द्वादश अग उपांग सदा गम ताकि निरन्तर भक्ति कराये ।
वेद अनूपम चार कहेतस अर्थ गले मन माहि ठराये । पढे! बहुमान लिखो निज अक्षर भक्ति कसबहु पूज रचाये ।
ज्ञान कहे जिन आगम भक्ति करो सद्बुद्धि बहु शुभ पाये । १३ ॥
ॐ ही प्रवचन मक्तयेय॑म् ॥ १३ ॥ प्रति क्रमस्तनूत्सर्गः समता वन्दना स्तुतिः ।
अध्यायः पठ्यते यत्र तदावश्यक मुच्यते ॥ १४ ॥ भाव धरे समता सब जीवन स्तोत्र पढे मनः सुखकारी ।
कायोत्सर्ग करे मन प्रीतसों बन्दन देव तणी भवहारी । ध्यान धरि मद चूर करी दोउ वेर करे पडिकम्मथ भारी ।
ज्ञान कहे मुनि सो धनवंत जु दर्शन ज्ञान चरित्र उधारी ॥ १४ ॥
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॥६७)
ॐ ही भावश्यकापरिहाणये अयम् ॥ १४ ॥ जिन नान अवाख्यानं पीत पाचच नर्तनम् ।
यत्र प्रर्वतते पूजा सा सन्मार्ग प्रभावना ॥ १५ ॥ श्री बिन पूजा र परमारथ अागम नित्य महोत्सब ठान :
गावत गीत यजावत ढोल मृदंग के नाद सुथान पखाने । संघ प्रतिष्ठा स्चै जल जातरा सद्गुरु को साहो कर पाने,
बान कहे जनमागें प्रभावन भाग्यविशेष सुजानहि जाने ॥ १५ ।। ___ॐ ही मार्ग प्रभावनाय अर्घ्यम् ॥ १५ ॥ चारित्र गुण युस्ताना मुनीनां शील धारिणी
गौरवं क्रियते यत्र सद्वासन्यं च कथ्यते ॥ १६ ॥ गौरव भाव धरि मन में मुनि पुंगव को नित वसल कीजे ,
शील के धारक भव्य के तारक तासौं निरन्तर स्नेह धरीजे । धनु यथा निज बालक को अपने निय छूटन और पसीजे ॥
बान कहे भनि लोक सुनो जिन बस्सल भाव धेरै अध छीजे ॥ १६ ॥
ॐ हीं प्रबचन वत्सलवाय अयम् ॥ १६ ॥
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1६८।
प्रतव्यानि मदंगानि केवली श्रत केवली, सभीपे तीर्थकन्नाम भव्या बध्नति भावतः ॥ १७ ॥
सुन्दर षोडश कारण भावन निर्मल चित सुधार के धारे ।
माम अनेक हरे छाति दुई जना म मृत्यु निवारे । दुःख दारिद्रय विपत्ति हरे भव सागर को पर पार उतारे
ब्रान कहे यह घोडश कारण कर्म निवारण सिद्ध सुठारे । इत्युच्चार्य षोडश कारण यंत्रोपरि पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
निम्न मन्त्रों का जाप्य कर के अर्घ चढ़ावें । १ ॐ हीं दर्शन विशुद्धये नमः . २ ॐ ह्रीं विनय सममतायै नमः ॥ ३ ॐ दी शील व्रतेष्वनतिचाराय नमः ॥ ४ ॐ ह्रीं भभीक्ष्य ज्ञानोपयोगाय नमः । ५ ॐ हीं संवेगाय नमः ॥ ६ ॐ ह्रीं शक्ति तस्त्यागाय नमः ॥ ७ ॐ ही शक्तितस्तपसे नमः ॥
ॐ ही साधुसमाधये नमः ॥ है ॐ ही वैयावृत्याय नमः ॥ १. ॐ ही अर्हक्तये नमः ॥ ११ ॐ ही प्राचार्य भक्तये नमः ॥ २ ॐ ही बहुत भक्तये नमः । १३ ॐ ह्रीं प्रवचन भक्तये नमः ॥ १४ ॐ ह्रीं आवश्यक। परिहाण्यै नमः । १५ ॐ ही मार्ग प्रभावनाय नमः ॥ १६ ॐ ह्रीं प्रवचन वत्सलत्माय नमः ॥
एभि मंत्र जाप्यं कुर्यादयं चापि समुद्धरेत् ।।
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जयमाला क भव भमण सिवारण, सोलहकारण, पयहमि गुण गण सापहम् । पण विवि तिथंका, असुह खयंकर, फेवलणाण दिवायरहा ।। १ ।।
॥ पदरी छन्द ॥ दिढ धरह पढम दसण सुिद्धि, मण वयण काय विग्यति सुद्धि
मा छडहु विणउ चउ पयार जो बत्ति बांगर सियहि हार ॥ २ ॥ अणु दिणु परि पालउ सीयल भेउ, जो हुत्ति हाइ संसार हेउ ।
पायोपयोग जो काल गमइ, तसु तणिय मित्ति सुवणयहि भमइ । ३११ संबेउ चाउ जे अणुसरंति, बेएण भवण्णउ ते तरति ।
जे चापित देय सुपत्तदाण सो पाबा अणुकम अवलठाण ॥ ४ ॥ जे तव तवति बारह पयार ते सग सुरिंदिर विविह सार ।
___जो साहु समाधि धरति थक्क, सो हवइण काल मुहंधूचक्कु ।। ५ ।। जो जाणइ वैयावच्चकरण, सो होइ सच दोसाण हरण।
जो चिसइ मण अरिहंत देव , तसु बिसय अणंताक्खरण खेत्र ॥ ६ ॥ पव्ययण सरिस गुरू जेर मंति, चउगा संसारण ते भमंति ।।
बहु सुयह भत्ति जे णर करंति, अप्पर स्यात्तय ते धरति ।।७।।
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जे छह श्रायस्लाई वित्त देय, सो सिद्ध पंथ सरत्थ लेय। जेभग्गा पहावण
I
इति ते अभिदुदंसण संभवति ॥ ८ ॥ जे पण कन्ज समत्य हंति तह करम निदद खवया मंत्रि जे वच्च लच्छ कारण वहति ते तित्ययश्च पुह लर्हति ॥ ६ ॥ बत्ता - इह सोलहकारण कम्म शिवारण जे घरति सील घरा । ते दिवि अमेरसुर पहुमि पारेसुर सिद्धवरंगण दिया हरा ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं दर्शन विशुध्यादि पोडश कारखेभ्यो पूर्णा र्ध्यम् ॥ एता: षोडश माना यतिवराः कुर्वति ये निर्मला,
स्ते वै तीर्थकरस्य नाम पदवीमायुर्लभंते कुलं । वित्त' कांचन पर्वतेषु विधिना स्नानानं देवतां
राज्यं सौख्यमनेकधा वर तपो मोक्षं च सौख्यास्पदं ॥ ॥ इशीर्वादः ||
*अथ दशलक्षण धर्म पूजा
भवाम्भोधि निमग्नानां जन्तूनां वारण चमम् I
उत्तमादि क्षमाद्यन्तं यज्ञे धर्म समूहम् ॥ १ ॥
ॐ ही उत्तम क्षमादि दशलादखिक धर्म वातर अवतर संवषट् ।
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ॐ ही उत्तमक्षमादि दशलाक्षणिक धर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दशलाक्षणिक धर्म अत्र मम सन्निहितो भव भव षट् ।
(दश लक्षण यंत्र स्थापयेत ) चश्चत्काञ्चन भृङ्गार नालि निर्गम सज्जलैः
ऊरमादि क्षमायन्तं, यजे धर्म समूहकम् ॥ १ ॥ जलम् ॥ चन्दनैश्च द्रवर्णाढ्य मलयाचल संभः ॥ उत्तमादि. ॥ चन्दनम् ॥ शालेयः सान्द्रकै शुद्धः सकलः सरलैः शुभैः ॥ उत्तमादि० ॥ अक्षतम् । मंदार मालतो पुष्पैः पारिजातैः सुवर्णकः उत्तमादि० ॥ पुष्पम् ॥ नैवेद्यः परमाहारः स्वर्ण भाजन मध्यगैः । उत्तमादि० ॥ नैवेशम् ॥ उद्योतित दिशाचदीपैः सद्धर्म पात्रगैः ॥ उत्तमादि० ॥ दीपम् ॥ ६ ॥ धूपैपितदिवच देशांगनर दुर्लभैः ॥ उत्तमादि• ॥ धूपम् ॥ ७ ॥ पाम्रादि फल संपातैर्नासा नेत्र सुखाकरैः ॥ उत्तमादि० ॥ फलम् । ८ । तोयगंधाक्षत पुष्पैःपधूप फलादिभिः ॥ उत्तमादि० अर्यम् ॥ ६ ॥
॥ अथ प्रत्येकार्घ ॥ येन केनापि दुष्टेन पीडिवेनापिकुत्रचित् ,
क्षमा त्याज्या न भव्धेन, हर्म मोवाभिलापिणा ॥१॥
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ॐ हीं उत्तम क्षमाधर्मा गाय अर्यम् । बचा- उत्तम खम म६उ, अज्जड मच्चाउ, पुण सउच्च संजम सुतऊ ।
चाउवि आकिंचणु, भय भय बंचणु, बंम चेरु धम्मजु अखऊ ॥ १ ॥ उत्तम खम तिल्लोयह सारी, उपम खम जम्मो वहितारी ।।
उत्तम खम रयत्तयधारी, उत्तम खम दुग्गई दुह हारी । २ । उत्तम खम गुण गण सहयारी, उत्तम खम मुलिविंद पयारी ।।
उत्तम खम बुहयण चिंतामणि, उत्तम स्त्रम संपज्जइ थिरमणि ॥ ३ ॥ उत्तम खम मह णिज्ज सयल जणु, उत्तम खम मिच्छत्त विहंडणु ।
जह असमस्थह दोसु खमिज्जह, जहि अप्तमत्थह ण वि कतिजना ॥ ४ ॥ जहि आकोसण वपण सहज्जइ, जहि पर दोसण जण भासिज्जइ ।
जह चैपण गुण चित्त धरिजइ नहिं उत्तम वम जिणे कहिज्जइ ॥ ५ ॥ धत्ता- उत्तम खम जुया, सुररुग गया, कंवलणाण लहंवि थिरू । हुयसिद्ध चिरंजण मत्र दुर भंजणु, श्रमणिय रिसि पुगमजि विरू । ६ ॥
( भापा सवैया ) पंच जिनेन्द्र धरू' मनमें जिन नाम लिये सब पातक भाजे,
शारद मात प्रणाम करू', जाके हन्थ कमण्डल पोथी बिराजै ।
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गौतम पाय नमू मन शुद्ध, रंग उपांग खाए हि गाजै
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सद्गुरू को उपदेश सुगयो हम, धर्म सदा दशलक्षण छाजै ॥ १ ॥
केवल एक क्षमा विनही तप संयम शील प्रकारथ जायौ ।
पाक सुपा यो सुथरो जैसे लोए विद्दीन अनाज को खायो I देव जिनेन्द्र कहे थुर नगमें नया तारय मोच पिया
I
ज्ञान कहे नर अन्वर सूत मार क्षमा दशलक्षण राखौं ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमः घर्मा गाय महाभ्यम् ।
मृत्यं सर्वभूतेषु कार्य जीवन सर्वदा
काठिन्यं त्यज्यते नित्यं धर्म बुद्धि विज्ञानता
ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मा गायाम् ॥
बच्चा:- मदव भव मद्दणु, मायविंदणु दव धम्मजु मूलहु विमलु ।
सम्बह पियारउ, गुण मग सारउ, तिस उचऊ संजम खलु ॥ १ ॥ म मा कसाय विडणु, महउ पंर्वेदिय मण दंड ।
॥ २ ॥
मदद धम्म करूणा बल्ली, पसरह चित्त महीरुह वली ॥ २ ॥
म जिवर मत्ति पयासर, महउ कुमइ पसरु पिणास ।
महवे बहु विrय पट्टाइ मद्दवेश जगा बहरी हट्ट 11 3 11
॥ शा
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मद्दवेश परिणाम विसुद्धि, महवेण विहु लोयह सिद्धी ।
__ मद्दवेध दुई विह तब सोहइ, मद्दवेण तीजो हर मोहह ॥ ४ ॥ .. मद्दउ जिण सासण जाणिज्मद, अप्पा पर सब भासिनह ।।
। मद्दउ जणा समुद्दद तारज ॥ ५ ॥ आर्या-सम्मइंसस अ, मउ परिणाम जु मुखहु ।
इय परियाण विचित्त महउवम्म अमल शुषहु ॥६ ॥
( भाषा सवैया ) मार्दा भाव न आक्त जौं लग तौं लग धर्म कहा उपजावे,
माव कठोर रहे घट भीतर नूतन पाप संयोग बढावे । भारत रौद्र वसे उसके मन पापत निश्चय दुर्गति पाचे,
ज्ञान कहे मृदुमाव को धारके, फेरि संसार कबहु नहीं आये ॥ २ ॥ ॐ ही उत्तम मार्दव धर्मा गाय अयं ॥ २॥ आर्यस्वं क्रियते सम्यक् दुष्ट बुद्धिश्व त्यज्यते , पाप चिन्ता न कर्तव्या श्रावकैध चिन्तकः ॥ ३ ॥
ॐ ही उत्तम आर्जव धर्मा गाय प्रय॑म् ॥ यत्त:- धम्महवरलक्खणु, प्रज्जउशिरमणु, दुरिय विहंडणु सुद जणाणु ,
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तं इन्धुजि बिज्जइ, तं पालिज्जा, तंणि सुपिज्जा खय जएणु ॥ १ ॥ जारि सुणिजय चिच चिंतज्जइ, तारिसु अएणहु पृणा भासिज्जइ ।
विज्जइ पुण वारिस सुह संचणुः तं अजव गुण मुणहु प्रचणु ॥ २ ॥ माया सल्ल मणाहु पासार, अज्ज उ धम्मपवित्त विधारहु ।।
वउ तर माया पियउ गिरत्थर, अजउ सिरपुर पंथ सउत्थर ॥ ३ ॥ जत्थ कुटिल परिणाम चइज्जह, तहिं अजजउ धम्मजु संपज्जा ।
दसण पाण सरूव अखंडो, परम अतिंदिय सुक्ख करंडो ॥ ४ ॥ अप्पे अपउ भवद तरंडो, एरिस चेयण भाव पयंडो ।
सो पुण अजउ धम्मे लमइ अज्जवेण रिय मण सुभा ॥ ५ ॥ पत्ता-अजउ परमप्पउ, गय संकापउ, चिम्मित सासय अभयपरः । तं णिरुजाज, संसउहिज्जइ, पाविज्जइ लिहिअरल बऊ ॥ ६ ॥
( भाषा सवैया ) पार्जव भाव धरै मन में जिससे मव ठार के मोक्ष सिधार ।
बत है भव सागर में तस हाय गही पर पार उतारै ॥ संपति देह निवाज खढो करे, आर्जव कर्म को मान विगारे ।
ज्ञान कहै सोह मूह पड़ो भव मानव पायके प्रार्जब छारै ॥ ३ ॥
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. ॥
. ७
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ॐ ही उत्तम आर्जव धर्मा गाप महाय॑म् ॥ ३ ॥ असल्यं सर्वथा त्याज्यं, दुष्ट वा च सर्वदा ।
पर निन्दा' न कर्तव्या भव्येनापिच सर्वदा ॥ ४ ॥
ॐ ह्रीं उत्तम अन्य धर्मा गाय अय॑म् ॥ पत्ता-दय धम्म हु कारण, दोस णिवारण, इह भव पर भर सुक्खयरू ।
सच्चुजि क्यगुल्लउ, भुवणि अतुल्लउ, बोलिज्जइ वीसास यरू ॥ १ ॥ सच्चुजि सवह धम्म पहाणु, सच्चुजि महिषल गरुक विहाणु ।
सच्चुचि संसार समुह सेउ, सच्चुजि भब्बह भगा सुक्र हेउ ॥२॥ सच्चेणजि सोहइ मणुवजम्मु, सच्चेण पवितउ पुरण कम्मु ।
सच्चेण सपल गुण गण सहति, सच्चेण तियस सेवा वहति ।। ३ ॥ सन्चेश अणुन महन्वयाइ, सच्चेण विणासिय मावयाइ ।
हिय मिय बासिन्जइ शिच्च भास, णवि मासिज्जह पर दुइ पयाम ।। ४ ।। पर बर हायर भासद् ण भन्य, सच्चुणि छंड उ विपप गन्ध ।
सच्चु जि परमप्या भन्थि एक्कु, सो भावहु भत्र तम दलसा अक्कु ॥ ५ ॥ रूधिज्जा मुणिणा वयण गुत्ति, जखगा फिर संसार यति ।
पुण सच्चेए। पात्रइ सग्गखं, धम्मेण लहइ कम्मक्खय भोखं । ६ ॥
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आर्या - सच्चु
तं
पालडु
धम्म फलेगा केवल खाण बहेइ थ
I
भो मन्त्र, भणहुए अलियर इह वय ॥ ७ ॥
( भावा सवैया )
नर क्यों नर की गिनती में गिनाये । त दुर्गति पाक्त बोहर आये ।
सांच नहीं घट भीतर सो
राय तु जंग देखत
नरके हि समाये,
सत्य बड़ो पट् दर्शन में जिनराज कहाये ॥ ४ ॥
झूठ बसै जिसके मुखमें नश्ते जगमें ज्ञान कहें जग
ॐ ह्रीं उत्तम सत्य
माय महाध्म् ॥ ४ ॥
बाह्याभ्यंतरैश्चापि मनोवाक्काय शुद्धिभिः शुचित्वेन सदा भाव्यं पाप भीतः सु श्रावकैः ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं उत्तम सोच धर्मा गायार्घ्यम् ॥
पचाः- सच्चुजि धम्मंगो, तं जि अभंगो, मिरांगो उपश्रमामई ।
जर मरण विद्यासणु विजय पयासणु काइज्जइ महिणिमुनि थुई '
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धम्म सउच्च होहमण सुद्विय, धम्म सउच्च वयधा गिद्विय
धम्म सउच्च लोह वज्जेतउ, भ्रम्म सउच्च सुत्तव पहि जंतउ
धम्म सउच्च रंग त्रय धारणु, बम्म सउच्च मयहणिवारणु ।
।। २ ।।
धम्म सउच्च जिणायम भयो, धम्म सउच्च सुगुण अणु मगणे ||३||
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धम्म सउच्च सल्ल कयचाए धम्म सउच्चुनि णिम्मसमाए ।
धम्म सउच्च कसाथ श्रावे, धम्म स उच्च ण लिप्पइ पावै ॥ ४ ॥ अहा जिणवर पूज विहाणे, णिम्मल फासुय जल कयण्हाणे ।
तं पि सउच्च मिहत्थउ भासइ गावि मुणिवरह कहिउ लोयासिउ ॥ ५ ॥ पत्ता:-भव मुणिनि अणिच्चउ, धम्म सउच्चउ पालिज्जइ एयग्गमणि । सिव मन्ग सहाश्रो सिव पयदामो, अणुप्र चितहिं किंणि खणि ॥६॥
( भाषा सत्रया। शोच करो जिन पूजन को मनशुद्ध रहै परमारथ केरो । इन्द्रिय पांच रहैं अपने वश कर्म कषाय को पाड़त एरो ॥
मंत्र को स्नान करें युनि पुगव, पायत नाहिं संसार को फेरो ।
___ ज्ञान कहै जग शौच बड़ो, परमारथ सुमरन ज्ञान बढ़ेरो ॥ ५ ॥
ॐ ही उत्तम शौच धर्मागत्य महाय॑म् ॥ ५ ॥ संयम द्विविधं लोके, कथितं मुनि पुगः ।
पालनीयं पुनश्चिते, भव्य जीवेन सर्वदा ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं उत्तम संयम धर्मागाय अर्यम् ।। पत्ता:-संजम जणि दुन्सहु, तं पारिल्ल हु, जो छंडइ पुण मृढ मई ।
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सो भौ भवालि, जरमरणालि किम पाइ सुइ पण सुगई ॥१॥ संजम पदिय दंडणेण, संगम जि कमाप विहाडणेण ।
संजम दुद्धर तत्र धारणेग, मंजम रस चाय बियारणेण ॥ २ ॥ संगम पास शियमणेण, संजम मगु पसरहु भणे ।
संजम गुरू काय कलेसणेगा, संजय परिगह गिह चायणेण ॥ ३ ॥ संजम तस थावर रक्खणेण, संजम तिणि जोयणियत्तणेण।
संजम सु तत्थ परिरकलणेण, संजम बहु गमण। चयंतणेण ॥ ४ ॥ संजम अणुकंप कुगांतणेण, संजाम परमत्थ वियारणेण ।
मंजम पोसई दसणहु अत्यु, संजम तिसहूणिरू मोक्स पत्थु ॥ ५ ॥ संजम विणु णर भव सफल सुरण, संजम पिणु दुग्गई जिउपवएणु ।
संजम विण घडियम इत्थ जाउ, संजम विण विहली अस्थि आउ ॥६। पत्ताः-इह भन पर भवणे। संजम सरणो, होजउ जिण णाहे भणि ओ । दुग्गई सर सोसण, खरकिरणोबम, जेण भवारि विमम हणिो । ७ ॥
भाषा ( सवैया ) संयम दोय कहे जिन भागम, संयम से शिव मास्ग लहिये । पाप गशे मन संयम सौंधार, कर्म कठोर कषाय को दहिये ॥
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संयम ते भव पार तिरै नर, संयम मुक्ति सखा जग कहिये ।।
झान है यह संयम में अय कार्य लगाय कहो कि न रहिये ॥ ६ ॥ द्वादशं द्विविधं लोके, बाह्याभ्यंतर मेदतः । स्वयं शक्ति प्रमाणेन क्रियतेधर्म वेदिभिः ॥ ७ ।
ॐ ही उत्तम तो धर्मागाय अय॑म् । पत्ता-शर भव पावे प्पिणु, तच्चपुणेपिणु, खंडपि पंचेदिय समणु ।
णिबेउवि मंडिवि, संगइ छडिनि, तव किज्जब जाये विवणु ।। १ ।। तं तउ बहि परिगह डिजइ, तंतउ जहि मयणुजि खंडिज्जइ ।
तं तर यहि माग्नत्तणु दीसइ, ते तउ जाह गिरिकंदर णिवसइ ॥ २ ॥ तं तउ जहि उपसग्ग सहिज्जइ, तं तउ जहि राधाइ जिणिज्जइ ।
तं तउ जाहि मिक्खइ भुजिजइ, सावइ गेह बाल णिव सिज्जइ ॥ ३ ॥ तं तउ जत्थ समिदि परि पालणु, तं तउ गुत्ति त्तयह णिहालणु
तं तर जहि अप्पा पर वृझिउ, तं . उ जहि भव माणुजि उज्झिउ ॥४॥ तं तउ जाहि ससरूव मुसिज्जाद, ते खउ जहि कम्मद गण खिज्ज इ .
तं तउ जहि सुर भत्ति पयासहि, पक्यणस्थ मवि यणद भासहि ॥ ५ ॥
जेश तवे केवल उपवज्जइ, सासय सुक्स पिच्च संपन्ज इ । धत्ता-धारह विहु तउवरू, दुमाइ पपिहरू, तं पुजिज्जाइ थिर गणिणा ।
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मच्छर मय छडि वि, करणइ दडिवि, तं पिघरिज्जइ गौरविणा ॥ ६ ॥
(भाषा संगा) दुद्धर कर्म गिरीन्द्र गिरावण, बज समान महा तप एलो ।
बारह भेद भगत जिणेमुर पाप पखालन पानीय जैसो । दुःख विहंडण सुख समर्पण, पंच इिन्द्रिय रक्षण तैसो ।
ज्ञान हे तपस्या बिन जीव जु मोक्ष पदारथ पावेगो कैसो ॥७॥
* ही ऊत्तम तपो भांगाय महाय॑म् ॥ ७ ॥ चतुर्विधाय संघाय, दानं देवं चतुर्विधम् । दाकव्यं सर्वथा सनिश्चितः पारलौकिकैः ॥ ८ ॥
ॐ हीं उत्तम त्याम धमोगाय अत्र्यम् ॥ घचा-चउहि धम्मंगो, करहु अभंगो, णियसनिइ मत्तिय जसाहु ।
पचह सुपवितह तब गुण जुनह परगइ संवलु तं मुण्ड् ॥ १॥ चाए आवागवणउ हर, चाए णिग्मल किति पविष्ट ।
चाए वरिय पणमिइ पाये, चाए भोग भूमि सह जाए ॥ २ ॥ चाउ विहिज्जइ बिच जिविणए, सुयव पणे मासेप्पिणु पणए ।
अभयदाण दिज्जइ पहिलारउ, जिमि णासइ पाभव दुह यारउ ॥ ३॥ सन्थ दाण चीजो पूण पिज्जइ, सिम्म शाण जेण गविन्जह ।
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श्रोसह दिज्जइ रोय विणासणु, मह विश पित्थह वाहि पपासणु ॥ ४ ॥ माहारे घण रिद्धि पविट्टइ, चउविहु पाउ जि एह पविट्टइ ।
हवा दुट्ट वियप्पह चाए, पाउ जि एहु मुणहु समवाए ॥ ५ ॥ भार्या-दुहियहिं दिज्जइ दाण , किज्जइ पाणु जि गुण यणहि ।
दर सानिए अभंग, दसण चिंतिज्जई माई ॥ ६ ॥
(भाश सबैया ) दान सो जगमें नर दान से मानको पावत है अग मानव , . भूप दयाल भये सबकू अरि मित्र भये अरू सेवत दानव ।
दान ते कीर्ति बढे जग भीतर दान समान न भऔर कहावे ।
शान कहै मन पार उता न दान चतुर्विध सार कहावे ॥८॥ * ही उत्तम त्याग धर्मा गाय 'महाय॑म् ॥ चतुर्विशति संख्यातो, यो परिग्रह ईरितः ।
तस्य संख्या प्रकर्तव्या तृष्णा रहित चेतसा ।।
ॐ ह्रीं उत्तमाञ्चिन्य धर्मा गाय अमम् । धत्ता:-आकिंचणु भाबड, अप्पा ज्झावहु देह भिएण उज्झाण मऊ ।
निरुवम मयरएणउ, सुह संपण्णउ, परम अतींदिय विगप मउ ॥१॥
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आकिंचणु चउसंग खिदिति, श्राकिंचरतु चउ सुझावति । प्रकिणु च विय लियमभति, ग्राकिंचणु रमणाचय पवित्त श्रचिणु आउ चि एहिचित्त, पसरंतर इंदिववणि विचित्त ॥ afia देह चिरा, माकिंचणु तं मत्र सुद्द विरच ॥ ३ ॥ तिणमत्त परिग जत्थात्थि; मणिराठ विहिज्जड़ तक अवस्थि । अप्पा र जन्थ वियारसति, पर्याडज्जइ जहि परमेट्ठि भति नह इंडिज्जर संकप्प छ मोयख हिज्ज ना अपिट्ठ ।
आणि वम्म बि एम होइ तं ज्याइब बंठ इत्य लोई ॥ ५ ॥
घताः - ए हुज्जि पहावे, लद्ध सहावे, तित्थेसर तिव नयरि गया ।
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आलस दूर करि कर, नाम आकिंचन चांग घरावो । चाल पंपाe aat घटतें मन शुद्ध करी समता घर भादो ॥ जप तीर्थ करी फल इच्छित होत समूल
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वे पुरिति सारा, मया बियारा, बंद बिज्ज एतेष्ठ सय ॥ ६ ॥ ॥ भाषा सवैया ॥
भये फल किंचित पावो ।
ज्ञान कहे नर को सुख दायक, शुद्ध मर्ने परमारथ घ्याशे ।। ६ । ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन धर्मा गाय महार्घ्यम् ॥ ६ ॥
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नवधा सर्वदा पाल्यं, शीलं संतोष भारिमिः ।
भेदा भेदेन संयुक्तं सद् गुरुणां प्रसादतः ॥ १० ॥
* ही उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मागाद अध्य॑म् ।। पता:-मचट दुवक, पारिज्जइबरु, केडिजद विसयासणिरु ।
तिय सुक्खयरत्तो, मशकरिमनो, तं जि भव्य रक्खेहु थिरू ॥१॥ चित्त भूमि मयणु जि उपवज्जह तेणजु पीडउ करइ अकज्जह ।
वियह सरीरइ विदह सेवइ, णिय परणार ण महउ बेक्ह ॥ २ ॥ णि वडइ णिस्य मरादुइ सुजद, बो जिपमञ्च3 मंजर ।
इय जाणे विशु मस बयकाए बंभचेरू पालहु अणुराए ॥ ३ ॥ रणव पयार सस्थिय सुइयारउ बंमध्ये विणु र तउ विय सारउ ।
मध्वे विणु काय किसइ विहल सया भासिय जिणेसा । ४ ॥ बाहिर फरसेंदिय मुह रक्खन, परमभ मातिर पिक्सट ।
___ एण उवाण लम्भइ सिवहरू, इम रइधू बहु भणद विशय यरू ॥ ५ ॥ पत्ता-जिस माह महिज्बइ, मुषि यश विज, दालखण पालीइ णिरू ।
भो खेम सियामुय, मन्त्र विणय जुय, होलि उम्मयहु करहु बिरू ॥ ६ ॥
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( भाषा सवैया )
शील सदा नरको सुख दायक शील समान बड़ो नहीं कोई । शील फलें अति शीतल पावक जानकी को जग देखत होड़ ।
शाह सुदर्शन शूचि सिंहामन शील फलै भात दोई | ज्ञान कडे नर सोई विचच्छल ओ नर पालन शील समोई ॥ १० ॥ ॐ ब्रह्मा महार्घ्यम् ॥ १० ॥
( भाषा सर्वेश)
सार चमा अरू मार्दव आर्जव सत्य सदा जग शोच सहाई ॥ संयम सार वयो तप भेदसु दान अकिंचन धर्म कहाई । अल बड़ो भत्र तारण को दश लक्षण है सबको सुख दाई । ज्ञान कहे परमारथ सौं न करे तिसको जिनराज दुहाई । ११ ॥
(पुष्पांजलि दिपेन )
एभिमंत्रजप्यं कुर्याद्
॥ १ ॥
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा श्रमाय नमः ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्मागाय नमः ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्मांगाय नमः || ५
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ॐ उत्तम मार्दव धर्मांगाय नमः ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नमः ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं उत्तम संयम धर्मांगाय नमः ॥ ६ ।
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ॐ ही उत्तम तप धर्मामाय नमः ॥ ७ ॥ ॐ ही उनम स्याम धमांगाय नमः ॥ = || ॐ ही उत्तम आकिंचन धींगाय नमः ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं उचम ब्रह्मपर्य धौगाय नमः ॥ १० ॥
(अर्घ समुद्धरेन ) अथ जय माला इस काऊण णिज्जरं जे इणंति भव पिंजरं । नीरोयं अजराम ते लहंति सुक्खं परं ॥१॥ जेण मोक्ख फल पानिजह, सां यम्मंग एहहु गिज्नइ ।
खम खमायनु तु गय देहउ, मद्दउ पल्लउ अज्जउ सेहउ ॥ २॥ सरुच सउन्ब मूल संजम दलु, दुविद्द महा तर रात्र कुसुमाउलु ।
चरविड चाउय साहिय परमलु पी णिय मावलोय छप्पायल ॥ ३ ॥ दिय संदोह सह कल कलयल, सुरणर वर खेपर सुइ सपफलु ।
दीणा रगाह दीह सम रिण गहु सुद्ध सोम तणु मित्र परिग्गहु ॥ ४॥ चमचेरू छायइ सुहासिड, राय हम नियरेहि समासिउ ।
एहउ धम्म रूपख लाखिज्जड जीव दया वयण हि राखिन || ५ ॥ झारपट्ठाण भन्लारउ विज्जर, मिच्छामई पवेस ण दिन्ज ।
सील सलिल धारहि सिंचिन्नइ, एम पयन रण बढारिजइ ॥ ६ ।। घता- कोहानल चुक्कऊ, होउ गुरुक्कर, जाइ रिसिदिय सिद्धगई ।
जगताइ सुहकरू धम्म, महातरू, देइ फजाइ सुमिट्ठमई ॥ ७ ॥
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ॐ ही उत्तम क्षमादि दशलक्षम्म धौम्यो पूर्णाऽयम् ।। यो धर्म दशधा करोति पुरूषः, श्रीवाकृतोपस्तुतं,
सर्वज्ञवनि संभवं त्रिकरुन, व्यापार शुद्धयानिशं । भयानां जयमालय विमलया, पुष्पांजलि दापये, नित्य सश्रिय मातनोति सकलं स्वर्गापवर्ग स्थितिः ।। १ ॥
इत्याशीर्वादः ॥ अथ पंच मेरू पूजा (बड़ी) श्रीमन्नाभेव देव जि नवरममलं विश्व विद्या प्रधानं, कामेमोशंग कुंभस्थल दलन परं सर्व सम्पभिदानम् ।
नत्वा श्री मेरु पूर्व जिनवर सगृहा संवि शून्पाष्टमेय,
___स्तेषां पूजा विधानं प्रविन्द सुतां स्थापयामि प्रमोदात् ॥ १ ॥ मुदर्शनाख्यः प्रथमश्च मेरु द्वीये स्थितं जम्बृपदे पवित्र,
लकसद्योजन तुंग पर्यश्चनः पोडशभिश्च चैत्य ॥ २ ॥ द्वीपेद्वितीये विजया चलाख्यो मेरू च पूर्वीपर सन्निविष्यो ।
चतुर्युतासीति सहस्रतु गैस्तावद्वनैश्चैन्य युतैर्विमाति ॥ ३ ॥ द्वौ मन्दिरी मंदिर विद्यु दादि मालीति संज्ञौ किल पुष्कराद्ध ।
द्वीपे तृतीय ललु तावदुच्चै, स्तावत्प्रमाणैर्वन चैत्यगेहे ॥ ४ ॥
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सर्वाण्यशीति संख्यानि संति
चैत्यान्मुच्चैरायलं
I
स्वर्ण मथान्युरुचै तोरसावज राजितं
प्रत्येकं चैव्य गेहेषु सर्वज्ञ प्रतिमा वराः I
अष्टोत्तर शर्त तत्र नाना माणिक्य भासुराः
पंचा चाप शतोत्सेधाः सवशक समचिता 1
सुदर्शना विजयाचलाख्यो श्रीमद एक माली
पुष्पांजलि विधी स्थापया पूजास्ताः शमं हे तवे ॥ ७ ॥ (इत्युच्चार्य पंच मे स्थापनार्थं पुष्पांजलि दिपेन 1 )
५ ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूस्थ पूर्वं दिशि विंशति चैत्यालयान्यत्र ठः ठः । अत्र मम संन्निहितो भव भव वषट् ॥
।। ६ ।।
एषां गिरियां बिल्व पूर्व दिक्षुः सस्थापयं चैत्य जिनेन्द्र विम्वा ॥ ८ ॥ aaraar संवपद् । अत्र तिष्ठ विष्ठ
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धुनिवर वारिभिः सुखकारिभिः मल हारिभिः केशरेन्द्र सुधारिभिः ज्वर दारिभिः रस सारिभिः
पंच मेरु जिनालयान् हरि दिग्विभान्हरि वत्प्रभान्
पूजये हम कृत्रिमान्गुण भूषयान्गत डूपणान् 11 जलं J १
सुन्दर हरिचन्दनैरलिनन्दनैरभिनंदनैः कुंकुमागुरु मंडनेर खंडनेर्गत दंडने । पंचमे ॥ चन्दनम्
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जैन वाक्य सुमंजुलैः शशिभोज्न लैवर तदुलैः
हेम पात्र समाश्रित कज वासिताधिवासितैः ॥ पंचमे... अक्षतम् ।। ३ ।। पारिजात महोत्फ्लैः कनकोत्पलैगति कोमलैः ।
सिंदुवार सुचम्पकैः स्फुट नीपरिव दिव्यकैः । पंचमे. ॥ पुष्पम् ॥ ४ ॥ हेम भाजन संस्थितै रधिकाश्रितेत पाचितः ।
दिव्य पोली नवोदनः सुखनोदन गभिमोदनः ॥ पंचमे, ।। नैवेद्यम् । ५ ।। तामसासुर नाशकै, रविनाशकै परि भासकैः
योतिताऽखिल दिलसुखै मणि दीपकै गुणदीपकै ॥ पंचमे, ॥ दीपम् ॥ ६ ॥ मेनका गुरू संभ गुरू धूप के बड्ड धृषकै
गंध लुब्ध शिली मुखैर्गत दिड्मुखेहत कन्मपै. ॥ पंचमे. ॥ धूपम् ॥ ७ ॥ नासिकेर सदाफलै बहुधामले बन सत्फलैः
___ बीजपूर सु जभल रति पेशल बहु कोमलैः ।। पंचमे. ॥ फलम् || - ॥ पाथो गंधाक्षतीधैः शतदल निचयः सार नैवेद्य दीप धूपैरामोदयुक्तः रुचिर तरू फले दर्भ दर्शवितानेः ।
मेरूना पूर्व भागे जिनवर निलपान् विंशतीत्येव संख्यान्
नवा स्तुत्वा त्रिसंध्यं सुश्मिल मनसा संबजे चन्द्रकीर्तिः ।। अय॑म् ।।६।।
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॥ जय माला ॥ जग्वृ धातकी . पुष्कराद्धं विषये. शक्रादि सं येबिने. भीमन्नन्दन पाण्डुकादि सहिते, संतप्त हेम प्रमे । नाना रत्न विचित्र वर्ण निचिते रम्याणि चैत्यानि छ,
तत्रस्थं जिनराज विम्ब निकरं संस्तूयते भावतः ॥ १ ॥ किन्नर नाग अमर मण महितं, प्रातिधार्य वसुशोमा सहित ।
पूर्व दिशि संस्थित जिनराज, संस्तवेमि शिव सौख्य समाज ॥ २ ॥ संगीताकुल कृत बहु मान, महा तुम्बर रचित सु विज्ञानं । पूर्व दि. ॥ ३ ॥ नृत्य महोत्सव विविधप्रकार, वाद घोष सप्त वा सारं । पूर्व दि. ॥ ४ ॥ मविक जीव वांछित दातारं, ईन्द्रादिक सुर कृत जयकारं || पूर्व दि० ॥ ५ ॥
भव पाथो निधि प्रापीत वीरं, किल्विष पक विशोधन नीरं । पूर्व दि. ६ ॥ (इन् वत्रा छन्द) अकृत्रिम मेरू महिघ्र संस्थ, प्राच्येव दिग्संस्थित मक्षयंच सर्वन विम्यं प्रकरं मजामि श्रीभूषण ज्ञान पयोधिर्वद्य ॥ ७ ॥ अयम् ॥
॥ द्वितीय जयमाला ॥ पत्ता-मामइ जिणदेवं, सुरकृत सेन, पंच मेरू जिणधाम परं ।
पूरव दिग सारं, जिण आगारं, पूजयामि तव सति भरं ॥१॥
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६१ ॥
सुदर्शनं विजया बल मेरू, मन्दिर विद्युन्माली महील पूर्वदिशि विंशति आगारं, अमर पर अर्चित मनहारं यद्रसाल नन्दन वन चंगं, सौमन पांडुक चार अभंग प्रति वन च उत्तम जिन गेहूं, भवियमा बन्दो पूजो तेई अष्टोत्तर शत प्रतिमा चंगं प्रति चैत्ये वन्दों मन रंग पन्च शतक बर धनुष उर्तगं रत्न विनिर्मित तनु शुभरंगं सात कुम्भ निर्मित जिन गेहं रत्नालंकृत तोरण ते रत्न जपनि धूप सुकुभं, केतु पंक्ति सुर निर्मित शोभं हेमालंकृत वनसदार, जबिस रत्न मुक्ताफल सारं ताल कसल झन्लरिय फेरी, दुदुमि ढोल निशानन मेरी पूजा भ्रष्ट विधि सुखकार मीव नाद नृत रचित उदार वासवेश नित चर्चित घरणं, नाम नरेश्वर गत पद शरणम् जय जय जिनवर जगदाधार ं जनमन मोहन मांधता
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११ ॥
बचाः - श्री पूर्व दिगेशं, जिनपर ईर्श, संभजामि भव भय हरणम् ॥ बारव, सुनि जन शरणं, कर जोड़ी गोविन्द कहियम् ॥
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१२ ।।
१३ ॥
६. श
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॥ अथ दक्षिण दिशि पूजा ॥
( बसस तिलका वृत्त । श्री मत्सुदर्शन इमौ विजया चलाख्यौ, श्री मन्दरश्च सुवतित्पद पूर्व माली,
एषां हि दक्षिण दिशामु महा गिरिणां, संस्थापये विमल चैत्य जिनेन्द्र विम्यान् ॥ ॐ ही पन्च मेरू दक्षिण दिशि विशति चैत्यालयानि अवागतराजतर संवौषट् ।।
. अत्र विष्ठ तिष्ट ठः ठः। अत्र मम सन्निहितो मग भा वषट् ॥ श्री मन्सुरेन्द्र तटनीवर गंधनीर: पाथोज केसर पराग पिशांगधार : श्री पंच मेरूवर दक्षिण दिग्विभाग चैप्यालयान् जिनरां प्रतिमान्यजेऽहम् ॥ जलं । काश्मीर जन्म घनसार परागभित्री श्री चन्दनै दशदिगाढत चंचर कैः ॥ श्रीच. ।। पन्दम् ।। उभिद्र कैरब सुधाकर चन्द्र रश्मि, प्रोत्फुल्म कुंद धवलैः सरलाक्षतोषैः । श्रीपंच,। भक्षतम् श्रीमत्सहस्रदल कुंद कदम्धनानि मंदार कैरव मनोहर पारिजातः ॥ श्रीपंच ॥ पुष्पम् ।। नानारस प्रचुर शाक विराजितेन, नव्योदनेन घृत खूप मनोहरेण । श्रीपंच ॥ नैवेद्यम् ॥ दुर्भेद्य तामसमहेभ हरीश्वरेण माणोय दीप निवहेन महोज्यतेन ॥ श्रीपंच, ॥ दीपम् ।। निर्धूम बहिनिहितागुरू संभवेन सौरभ्यधूप निचयेननशा प्रियेन । श्रीयंच । धृपम् ।। रंमाफलामल मनोहर नासिकेर जंबीर पूग सहकार सदा फलौघैः । श्रीपंच. ।। फलम् ।। जलैः परम पावनैः, सुरभिगंध पुष्पाक्षतैः, प्रदीपचरु धूपक सरस चोच रंभाफलैः सुमेरु यमदिग्गवान् स्वयुग संख्य चै-पालगन्, यजामि भव भंजकान्, सकलचंद्रकीर्ति प्रदान् ॥अय॑म् ॥
1६11
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६३.
।
जय माला सारे सारंग वर्षे, खवर गणकृता स्थान रम्ये विचित्र, सम्मेरो दक्षिणस्यां दिशि जिनयर सद्गेह बिम्बप्रजानां । कृत्वा शुद्धात्मचित्तं, सुरपतिरनिशं, सर्व जोपचार,
पूजामष्टप्रकारा, रचयति सततं, संस्तो श्री जिनेन्द्रम् ॥ १ ॥ कर्म महागिरि वन समान सुमोह हरं, मोह मदान्ध निवारण भानु रूचि प्रकरं । सुन्दर श्री जिन पदकज मध्यय सौख्यका, जन्म बरामय नाशन मंचति पापहरं ॥२॥ दुरित महावन दावनिभं गल्पित वस्तु समर्पण करतरू सदृशं ॥ सुन्दर. ॥ ३ ॥ र वय शोभा प्रवृतं पांडुर चामर पंक्ति विराजित कांतिधरं । सुन्दर, ॥ ४ ॥ सुरगण सेवित चरण युग, दुर्घर दुष्कृत पंक विशोपण सहस करं। सुन्दर. ॥ ५ ॥ निजित भव्य जमाघ मद, चिंतित दायक मंत विवजित धर्म प्रदं । सुन्दर. ॥ ६ ॥ नरामरेन्द्र . स्तुतपाद पंकन, श्री भूषणाय मुनिभिः प्रवंदितं । श्रीज्ञान पायो निधि सौख्य दायक संपूजयतिम्म पुरंदरा वरं ।। ७ : अध्यम् ।
॥ द्वितीय जयमाला ॥ पत्ता=तिपयाइण दंति, विगण उ करंति, मत्तिय जिण उवीसयहं ।
विजई रयणां लि, इस मनि, मचिये णिहय रसहः ॥ १ ॥
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४.
सिर संवाणिहि रिसह जिणू जामदि श्रजिय जिणंदु |
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जिणं दहपय क्रमले इय कुसुमांजलि होय मोहर मे लदिए । गिरि कैलासे बाइ पदावई जिम संभत्र जियु येथे तिरद्धि, पविण दवणेहि सुमइ भंडार असुर तरु हि, पउमप्पहु परमेहि । मंदारिडि सुपास जिणु, चंदप्पड कंपेहि जिणंदह • यिलिय हुलिहिं सुविहि जिणु सीयल सीय कुसुमेहि । जिणंदह जिण सेयांस असोदियहि, वासुपूज्ज बिमलेहि ॥ जिदह विमल भंडार कं इयहि, सुबेदि तु ॥ जिणंद६० बहुम कुंदहिधम्म जिणु रत्तोप्पल शांति जियदु । जिबंदह कुजय हुल्लिाह कुश्रु जिणु घर जिस पारिय हुल्लि ॥ जिदह मल्लय हुल्लिय मल्ली जिणु सुव्त्रयकचणहुल्लि ॥ जदइखमि जिवर वालिय विगरहिणेमि निणंदृ ।। जिदह पाडल हुल्लि पास जिस बटमा कमलेहि ।। दि० बोमि प्रज्जउ श्रट्ट नई अक्षिणि अवर मियार ॥ जिणंदइस रयणांजलि विषय सहू जोगीगाह हुदेई || निदह० ॥ १४ ॥
।। १३ ।।
॥ १४
लिए ।। २ ।।
जिदद ॥ ३ ॥
जिणंदह० ॥ ४ ॥
॥
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॥ ७ ।
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१० ॥
११ ॥
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॥६४॥ 444
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गुरु पय पुज्जहुतिणि लहई जिमनपडउसंसार || जिदह • . १६ ॥ भादव शुक्ल जा पंचमि ए पंचइ दिवस करेहि । जिणंदह० ॥ १७ ॥ न्सरने मिण नाभा पह, सो निशिरपुर जाया | चिशंदह० ॥१८ ।। इय कुसुमांजलि सयल जिणु मुनिवर अखद एह। मिदहः ॥ १६ ॥ पत्ता-सुग्नर बज्जाहर, होति मग्णाहर, पुष्पांजलि विधि जेकरई । तंसगी सुरेसुर पुहवि नरेसर मोक्य महापुरि संपरई ॥
महाय॑म ॥ ॥ अथ पश्चिम दिशि पूजा ॥ आयो मेरू जिनवर मवोदर्शनांतः स पूर्वो ,
मेरूश्चान्यो विजय उदितः संस्मृतोऽन्योऽच लारन्यः । तूयोमेनिविड सुतरूम दरोमाली नामा ।।
होतेषां वैजलपतिदिशि स्थापये चैत्य विम्वान् । ॐ हीं पंच मेरू पश्चिम दिशि विंशति चैत्यालयानि अवाचतरावतर संघौपट । अब तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थारनं । भत्रमम सन्निहितो भव भव वषट् ॥ सुधा समाम शीतलैस्त्रिमार्गमा सरो जलैः मुनीश वित्त निर्मः सुवाशुध्क्षिपेशलैः । सुपंचमेरूचारुनी दिगाभितान् जिनालयान् यजामि तीर्थनायकन् स्मरेस कुमसिंहकान् । जलम्
1EXII
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.
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अपूर्व चन्द्र केसरैहिमांशु पाद शीतल,
महामनोन चन्दनैः द्विरेकराजिनन्दनः । सुपंचने० ॥ चन्दमन् ॥ अखंड कोटि तंदुलैरनेक शालि संमवैः
___ हिमांशु पाद पाण्डरी सुवर्ण पात्ररोपितैः । सुपंच. ।। अक्षतम् ॥ सरोज जाती पम्पकैः प्रफुल्ल मल्लि मालया।
___ बपाप्रश्न शासया भ्रमनिरेफ मालया ॥ सुपंच. ॥ पुष्पम् ।। नवीन भव्य पायसान सशरसोनिः
विचित्रशाक नन्य गव्य सूप भक्त सुदरैः । सुएंप. ॥ नैवेधम् ।। मसार माजन स्थित रनद्यरत्न दीपकैः
स्फुरन्म युख राखितः विपार्थतामसोस्करैः । मु पंचमे. ॥ दीपम् ॥ सुपर्व दारु यक्षप काकड समवेः
प्रधूपधूम संचयरनंत लुब्ध षट्पदैः ।। म पंच. ॥ धृपम् ॥ सदा फलान माधवी बकिंग पूग दारिमै ।
सुनानिकर बीजपूर कर्कटी करित्यको ॥ सुत्र. ॥ फलम् ॥ अ'भो गंधै रचतैः पुष्प हव्यै, दोपैथुपै. श्रीफलैश्चन्द्र कीर्तिम् ॥
वाहण्याशा संस्थिता जैन बिम्बान् पंचानां श्री मंइराणां यजेहं । अर्घम् ॥
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॥
६॥
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॥ जयमाला ॥ श्रीमन्ना कि किरीट कोटि किाणे रुमापित सर्वदा, श्रीमन्मन्दर पर्वते चिरतरं शकः कृताराधनम् ।
लोक्योदर जीव सौख्य जन धर्माधि चंड प्रभं,
वन्देतं बिन पुगवं प्रतिदिनं देवाद्रि मूर्ध्नि स्थितम् ॥ १ ॥ प्रातिहाय गण नायक जय जय, अजरामर पद दायक जय जय । .
__पाप तिमिर भर भजन जय जय, विद्यापर गण रंजन ज य ज य । २ ॥ जनन पयो निधि ताररा जय जय, कर्म कलंक निवारमा जय जय ।
सुर समाज पद वंदित जय जय, दुषण निखिल निर्कदित जय जय ॥ ३ ॥ किल्पिप सुभट विखडन जय जय, त्रिभुवन मंदिर मंडन जय जय ।
मुक्ति रमणी वशी करण सुजय जय, सकल दोष परिहरण सु जय जय ॥ ४।। अशरण शरण कुराधा जय अप, मविक जीव मा सुखकर जय जय ।
गजमद पंद निकन्दन जय जय, गर घर मुनिजन वन्दन जय जय ।। ५ ।। यत्ता-जय दोष बिहडन, त्रिभुवन मंडन, निखिल जीव शीव सुख करण ।
श्री भूपण वन्दित, पाप निहित, ब्रह्म ज्ञान भन भव शरणः || अर्यम् ॥
॥
७॥
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॥ द्वितीय जयमाला ॥ आर्या-अहम जिण थुण महं दलियं जिण मरण माणादि ।
समरे सरसति पायं चये चड्य किठिमा किट्टीः ॥ पंच मेरूह अस्सी भवनं. मयदंत वीस आधार । भवियण भाव धरि ।
रत्नालंकृत हेम जिनालय जिय घरे, पूजू अष्ट प्रकार कपूरे दीपकरे॥१॥ बीस भुवन कुल पर्वत ही, अम्सी गिरी वचार ॥ भवि० । २ ॥ सिचरसु विजयारथ ही, कुरुद्रमेहश होई ॥ भवि० ॥ ३ ॥ इक्ष्वाकार कुंडल गिरिए, मावुपोचर च्यार च्यार ॥ भवि० ॥ रुचिके गिरि चऊ. जिन भवना, नन्दीश्वर बावन्न । भविः ॥ मध्य लोक ए भवन कह्या, चउसे अट्टावन्न ॥ मवि० ॥ लाख चौंसठ असुर तणाए, चौरासी नागेन्द्र ॥ भनि ॥ सुप्रण लाख छिटोंत्तर ए छिहोंत्तर दीप कुमार । भवि० ॥ लाख लिहोंनर नीत कह्या, उदवि छहोत्तर लाख ॥ भवि० ॥ विद्य कुमर लाख छिहोंत्तर ८, दिग्तुर छहांत्तर लाख ॥ भवि० । १० ।। दीप कुंवर लाख लिहोत्तर ए छन्युवात कुमार । भवि० ॥ ११ ॥ तात कोड़ी लाख छिहोचर ए अकृत्रिम अागार ॥ भवि० ॥ १२ ॥
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६६ 44
सौध लाख वीस वह्या, अट्ठावीस ईशान
माहेन्द्र
सनत कुमर लक्ष बारह कहाा प्राठ लाख ब्रह्म ब्रह्मोत्तर पुबिइये, चैस्यालय लक्ष चार सहस्र पचास उदार पूजूं सहस्र ब्यालीस ।
लांत अरू कापिष्ठे ह्या
शुक्र मद्दा शुक्र चैयालय ए, पट् सहस्र सतार जुए, यात प्राणत आरुए, अच्युत गिरि सतसात
जिन आगार अकृत्य
उद्धार
एकादश शत आगलाए, अधः ग्रैवेयक मध्य यक जिन भवना सात अधिक उर्ध्व ग्रेवेयक जिन जाणिये, एका
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नव नवोत्तर नव भवना, पंच पचोत्तर पंच व्यंतर अरु ज्योतिष पटले, जाणो श्रागार असंख्य सहस कोटि जे जिनप्रतिमा, अकृत्रिम अरयेहिं । अष्टापद सम्मेदाचलए, पावापुरी महावीर । वासू पूज्य चम्पापुरीच, चरचों चन्दन भंग । ऊर्जयंत गिरि अरचा करोड़, पूजो नेमि जिद शत्र जय शीखर सोहामयोए, अरबो अष्ट प्रकार
।
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१३ ॥
॥ १४ ॥
।। १५ ।।
।। १६ ।।
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॥ १८ ॥
।। १६ ।
॥
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२० ॥
।। २१ ।।
॥ २२ ॥
।। २३ ।
२४ ॥
4- २५ ॥
।। २६ ।।
॥। २७ ॥
।। २८ ।।
॥ २६ ॥
॥६६॥
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।
चन्द
मांगी तुंगी गिरि सिद्ध हुवा, गजपंथे मुनिराय सुक्ता गिरि पावागिरिए, तारंगी तारक होप लूज़गिरि, रेवा तट ऋषिराय । अंतरीक्ष प्रभु पूजिए प्रणम् लोढा पास 1 सूर्यपुरे चन्द्रनाथ जिन, प्रभु पुजूं पाप इन्द्र भूषण अरचा करिए, हरपे गोविन्द गाय ॥
।
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भवि.
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। ३० ।।
। ३१ ॥
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॥ ३२ ॥
भवि. ॥ ३३ ॥
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॥ ३४ ॥
३५ ।।
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पश्चिम दिशि पूजा सम्पूर्णम् ॥
॥ अथ उत्तर दिशि पूजा ॥
पर सुदर्शन मेरु रिहोदितः सुविजयाचल मंदिर मालिनः ।
नद दिक्षु सुमेरु महीभृतां जिन पतिन सकज्ञान्विनिवेशयत् ॥ ॐ ह्रीं उत्तर दिशि विंशति जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा सनूड अ अवतर अवतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ॥ ऋत्र सम सन्निहितो मत्र भव वपट् सनिवापनम् ॥
हिमपर्वत संभव पद्म महानद सुन्दर शीतक नीर भरेः
1
मकरंद महासर भारत सारल, केसर रंजित गौर तरैः 11
-4.॥१००॥
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०१
शुभ मन्दिर पंचक ध्यानद् दिग्गस हाटक त्रिंशति चैत्यगृहान् ।
प्रयजामि मनोहर गान सुमंगल नृत्य महो व वाद्यवान् । जलम् घनसार सु कुंकुम मिश्रीत शीतल नंदन चन्दन पंक मरैः ।
वर गंध समाश्रित पद् पद् संतति मंजुळ गुंजन रम्य तरैः ॥ शुभ चन्दनं " मचकुन्द कलाधर फेन समुज्जल निर्मल कोमल तन्दुलके ।
मणिभूषितं भासुर कांचन बन्धुर भाजन रोपित सौम्य तरैः || शुभमं० ॥ प्रतं । नव a hae चम्पक पंकज कुन्द कदम्बक मन्लि सुभैः ।
स्फुट कैसर रक्तकनव्यल विंगक, मेचक वालक मूल दलैः ॥ शुभमं० ॥ पुष्यम् ॥
वर मोदक मंडक खज्जक रूपक सूपक व्यंजन हव्य रसैः ।
घृत दुग्ध महेक्षुति मिश्रित पायस तिक्वक शाक सुखद्य रसैः ॥ शुभमं• नैवेद्यम् ॥
दश दिगात लोचन बाधक तामस संचय भेदन सूर्य करैः ।
परिजित रत्न कदम्बक शोभित दीर्घशिखाधर दीप शुभमं० दीपम्
पपवनंजय मुक्त सुगन्धि महागुरु निर्गत धूप चयैः ।
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निज सौरम लुब्ध मधुव्रत निर्मित सुन्दर निष्कण चारु तरैः ॥ शुभमंः । धूपम्
सहकार लता फल दामिनिट पक्व कपित्थक पूग दलैः ।
कदलीफल जम्भल चोच सदा फल गोस्त निकोमल निम्बु फलैः । शुभ० फलम्
1.१०१.
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२०२।।
विमल कमल धारा, गंध शाल्य क्षतोषैः
विविध कुसुम हव्यैर्दीप धूपैः फलोपैः । अखिल परममेरू दिविस्थवान् चैत्य शिम्पान्,
___परचर इह म श्री भूपणाश्चंद्रकीर्तिन् । अयम् ॥ .
ॐ अथ जयमाला आनंदामृत संरूपं, चिदानंद सदोदयं ।
नामरेन्द्र संसेच, सर्वज्ञ संस्तुवे मुदा ॥ १ ॥ शक गणे: कृस पूजन मष्ट विधंसुतरं, गर्म कलंक विमुक्त मनूपम सौख्य फर. ।
श्री जिन विम्य, गणं प्रयजे. चिर पार हरं, धर्म सुर द्रुम वर्धन पुष्कर वारि धरं ॥२॥ केवल लोचन दर्शित सुन्दर मक्ति पथं, पंचमगत्युपसर्पण सत्वर धर्म स्थं ॥ श्रीजिन० ३ ॥ दुर्गतिदुःख तमोभर भंजन भानु मरं, जन्म नरांतक वर्जित किचिन पं हरं ॥ श्रीजिन० ४ ॥ शुद्ध नयाश्रित तत्व प्रकाशन सूरतरं, जन्म पयो निधि शोपण कुंभ भवं प्रवरं ॥ श्री जिन.५ ॥ श्री आदि विवर्जित मूर्ति मखंडित लक्ष्मी कर, अन्तविवर्जित रूपमनंत सुबोध धरं ॥ श्रीजिन० ६ ॥ विधाय पूजां जिन नायकस्य, शक्रोधि भक्तया गिरिराज मूर्छिन ।
श्री भूषणं मुक्ति पद प्रदेयात् सुखाधिकं ज्ञान पयोथि धम्पम् ॥ अय॑म् ।।
॥१२॥
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-३
॥ अथ द्वितीय जयमाला ॥ सुरनर पति वंद्य, नाग नागेन्द्र वंश', सकल भरिक सेव्यं, नतिकं नर्तिकीमिः ।
जनन जलधि पोतं, पापतापापहारं ,
जिन वर वर चैत्यं, स्तौमिकर्मारि हान्यः ।। चन्दौं नाग भुश्न जिन दाख, कोड़ी वि सात बहत्तर लाख ।
व्यंवर ज्योतिष के जिन गेह, असंख्य भक्यिण वन्दौ तेह ॥ १॥ लाख चौरासी सचाणु सहस, तेविसह वन्दो स्वर्ग निवास ।
मेरू सुदर्शन मध्यह लोक, विजया चल दोये गत शोक ॥ २ ॥ मेरू चतुर्थह मंदिर नाम, विद्युन्माली छे जिन धाम ।।
पंथह मेरू असी जिन गेह भवियण वन्दौं पूर्जी तेह ॥ ३ ॥ षट् कुल जिनवर मेह छत्तीस, विजयारध सत्तर सुईश ॥
सहस्र कूट कन्दौं जिन देव, सीता सीतोदा करू कंट सेव ॥ ४ ॥ अष्टापद बन्दौं जिनतार, आदि जिनेश्वर गय भव पार
धील जिनेश्वर पूनी संत, सम्मेदाचल मुक्ति लहंत ॥ ५ ॥ वायुपूज्य चम्पापुरी देध, वर्षमान पावापुरी सेब
गिरनारी के नेमि जिनद, पनौं भवियण परमानंद ॥ ६ ॥
१०३०
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________________
१२०४।।
पाण्ड पुत्र मनि अवह कोड़ि, शत्र जय चन्दौं कर जोड़ी ।
हस्तिनामपुर कुरू वंशी जिनंद, शांति कुंथु अर सेवें फणिन्द ॥ ७ ॥ वापारसी जिन पार्श्व मुपाचे, जे वंदे नाशे मन श्रास ।
नाग नरामर चर्चित पाद, लोढ़या पार्श्व हरे विखवाद ॥ ८ ॥ वंशस्थता गिरी जिनवर धाम, आगल देव धारा सन ठाम ||
तेह नयर वन्दौं वर्षमान, अम्बापुरी चिंतामणि भाण ॥ ६ ॥ मुक्ता गिरि मुनि मुक्ति निवासः तुगीश्वर पूरे मन श्राश ।
चन्दौं गज पन्था मिरिराय, वाचन गज विद्याचल ठाव ॥ १० । कुलपाक वन्दौं माणिक देव, गोम्मट स्वामी करू नित सेव ।
नव निधि इन्दौं देहि शिव वास, खेल गांव कमेठश्वर पास । ११ ॥ अम्बापुरी श्री मल्लि जिनेश पैठण सुखद मुनि सुत्रतेश ।
एण्ड वेली नेमीश्वर देव, त्रिभुवन तिला खंडव पुर सेव ॥ १२ ॥ 1; अतरीक्ष बन्दों जिन शस, श्रीपुर नयर पूरे मन आश ।।
होला मिरि इन्दों शंख रिनेश, तारंगे पूर्जी मुनि ईश ॥ १३ । सुयुगढ़ जिन बिम्ब मनोहार, आदि नाथ पालें भवपार ॥
वड़ावली पूजो अभी झरा पास, धुलेर नयर ऋपभजिन भाप । १४ ॥ पूजौं माण्डव गढ़ महावीर, उज्जयनि अब ति धीर ।
मालव मण्डन मनसी पास धरणेंद्र पदमावती से जास । १५ ।
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१०४
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११०५
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अषणाचल अढ़ी कोडी पुनीश, बड़गामपूजौं गौतम गयीश ।
जम्बू स्वामी मथुर। पुर थान, सेठ सुदर्शन पाटली पुत्र जान ।। १६ ॥ ग्वालियर गढ़ बन्दौं जिनराय, बावनगज पुर के सुख काय ।।
पाटरड़े बन्दौं जिनदेव, अशिन्धो पार्श्व करे सुर सेव ॥ १७ ॥ जाम नयर जय सहित आदीश, वर्धमान सारंग पुर ईश ।
रावण पास अचलपूर राय, पूज्यपाद मुनि प्रणमित पाय ॥ १८ ॥ हूँगरपुर वन्दौ मल्लीनाथ, सागवाड़े आदि भव पाथ ।
___ वायु पूज्य बांसवाड़े घाम, खांधु नयर शीतल जौं नाच ॥ १६ ॥ वन्दी जलधिमांही जयवंत, काशगीउ बाहुबली संत ।
नन्दीश्वर जिन गेह शवन्न, कुण्डल गिरिवन्दौं जिनधन |॥ २० ॥ पूरब पश्चिम जिनवर गेह, उत्तर दक्षिण वन्दो तेह ।
बीम जिनेश्वर क्षेत्र विदेह बन्दौं भवियसा शाश्वत तेह ॥ २१ ॥ चन्द्र नक्षत्र सु भानु विमान., ताराग्रह वन्दों जिन भान ।
त्रिभुवन महीं जिनवर सार, चंदत भवियण लहे भवपार । २२ ।। पत्ता=जय जिनवर स्वामी, पदशिर नामि, फरजोड़ी मनभाव धरी । ज्य सागर वंदित, पाप निकंदित, रत्न भूषण गुरू नमस्करी ॥ २३ ॥
इति जय माला पूर्णायम् ॥
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भर८1
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* समुच्चयाष्टकम् ॐ निर्मलेन पवित्रेण, वारिणा मल हारिणा, ।
पंच मेरूस्थ बिघाना, र्माभ्यां पूजये मुदा ॥ जलम् ।। मलया चल जातेन, चन्दनेन सुगन्धिना ॥ पंचमे० ॥ चन्दनम् ॥ धवलायत पुंजेन, खंड वर्जित शोभिना ॥ पंचमे० ॥ अक्षतम् ॥ जाति चम्पक पृष्पेन, केतकादिधनेन च ॥ पंचमे० ॥ पुष्पम् ।। वृत पाचीत पक्वान्नैः शाल्योदनेन श्रीमतः ॥ पंचमे० ॥ नैवेद्यम् ॥ तमौन्नरधि नाशाय, रत्न दीपेन द्योतिना ॥ पंचमे० ॥ दीपम् । सुगन्धी धूप धूत्रेण ना प्रियेण सतां सटा ॥ यंचमे० ॥ धृषम् ॥ श्री फलान कपित्यादि, फलेन फलदायकान् ॥ पंचने० ॥ फलम् । तयादि रभु द्रव्ये शिव सौख्य विधायकान् ॥ पंचमे० ॥ अर्थम् ॥
॥ जयमाला ॥ जम्बू द्वीप परे सुदर्शन इति, पे तथा धातकी,
खंडे श्री विजया चली निगदिती श्री पुष्कराद्धेद्वये । द्वीपे मन्दर विध दादि पदती मालाहयो मन्दरी ,
तेषु श्रीजिन मन्दराणि सततं सन्त्येव सवर्णयः ॥ १ ॥
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१०६॥
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भद्रशाल विपिनाश्रय मिट, दिनुजतसपु जिन संदिष्टं ।
पंच के जिनावरा , जनाय मिलापनिवारं । २ ॥ एकीकृत्य सु विशति संख्य, केवलनेत्र विलोकित संख्यं ॥ पंचसु • ॥ ३ ॥ नन्दन वैश्व पिता दर्श सेयं, सौमन शेष्त्र पितादृश गेयं । पंचसु० ॥ ४ ॥ पाण्डुकारूम गहनेवधेयं, यवमशीति जिनालय मेवं ॥ पंचसु० ॥ ५ रस्न विनिर्मित बहु सोयानं, सोचित समतल कोमल मानं ॥ पंचसु६ ॥ दुर्गत्रय नाना विधि चित्रं, खात त्रय जल विम्बित चित्रं || पंचसु० ॥ कांचन मय दृढ़ भिति विशाल, नाना स्तंभ विचित्र विशालं पंचसु. ॥ = कांचन कुम विराजित भृग, बहुधा वृक्ष विकृजिस भृगं । पंचस ॥ ६ ॥ अंतरीक्षरि चूम्बित मागं, किनर तुम्बर गीत सुरागं । पंचसु. ॥ १० ॥ मव्यान्तर्गत मानस्थंभ, गोपुर मंडित मानस्थंभं । पंचसुः ॥ ११ ॥ वृक्षा शोक विराजित मध्य, कल्पवृक्ष कुसुमोच्चय सध्यं । पंचसु. ॥ १२ ॥ मेदुरनाद चतुर्विधनाद्य, वीणावेणु मृदंग खाद्य । पंचमु. ॥ १३ ॥ डिडिम झझर ताल कंसालं, मद्रतार ख मूर्छितमालं । पंचसु. ॥ १४ ॥ सुर खलना ललिता व नृत्यं, हाव भाव रख विनम कृत्यं । पंचसु. ॥ १५ ॥ नवरस नाटक नौवा खेलं, परिहित नवा नव कोमल चेलं । पंचसु. ॥ १६ :। नंद नंद जय जय बहुराणं, पुष्पसु पृष्टि गत परिमाणं । पंचसु. । १७ ॥
॥१०६
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१०८ ✰✰
atra from किंकणी नादं
अभिनव बहुतर निर्मल दीपम् काखा गुरू भाव घट वरधूपं निर्मल तुल मौक्तिकमालं दशविध नाना केतन मालं । भव्य मुख निर्गत खाधुवाद। चित्र विचित्रित] तोरण बालं, विविध खनचित चंदनमालं । सुरभि समुज्नल चामर वार, चैत्यवृच बहुधा सुखकार | अष्टोत्तरशत हाटक कुस, तावत्परिमित दर्पण लभं ॥ पीठोपविष्ट जिनवर देवं, सफल लोक बिरली कृतमोहं मामण्डल मंडित जिन देहं भविक लोक विरली कृतमोह। योगीश्वर सुविहित अनुयोगं तदुपदेश बीतनुकृत भोगं । पुष्पांजलि विद्यागत शत्रू वदनुशांगत बरसु चक्र ॥ भाद्र शुक्ल तर पंचम घसे, समरूप चतुर्विध रसे त्रिसंध्यं विहित सकल पर्यं सोत्र सु आयाचित परिवर्य
॥
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पंचसु
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| पंचसु
पंचसु
॥ १८ ॥
॥ १६ ॥
॥ २० ॥
॥ २१
॥ २२ ॥
॥ २३ ॥
॥ २४ ॥
॥ २५ ॥
॥
२६ ॥
। २७ ॥
॥ २८
॥ २६ ॥
काष्ठा संघ पुरंदराद्रि महितान् श्री मेरू चैत्यालयान अर्ह द्विम्ब विराजितान् बहुतरान श्री भूषणालंकृतान् ॥ चन्दनाचत शुभैः नैवेद्य दीपैर्वर: फलैर्महामि महतः श्री चन्द्रकीर्तित्सदा ॥ ३० ॥
तीर्थ मोवर पूपैः
अर्धम् ॥
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१०६
॥ अथ द्वितीय जयमाला ॥ श्रीमद यम तीर्थेशो. जिनेन्द्रोऽनित नाम भाक्
संभवो भव संहारी, शर्म कार्योंमिनंदनः ॥ १ ॥ सुमतिः सुमतीशानो, श्रीमान्पन प्रभः प्रभुः ।
सुपायों मनवान्पूज्यश्चन्प्रभजिनेश्वरः ॥ २ ॥ पुष्पदतो लसकुन्द दन्तः शीतल तीर्थराट् ।
श्रेयान् श्रेयो विधाताच, शमपूज्यो वृषार्थितः ॥ ३ ॥ विमलो मल संहर्ता, तीर्थेशोऽनंत दायकः ।
धर्मो धर्म विदां मान्यः शांतिः योदश तीर्थराट् ॥ ४ ॥ कुथु कुठित दुर्भागों. मगवानर संज्ञकः ।
__ मल्लिकाम महामन्लो, विश्वजिन्मुनिसुव्रतः ॥ ५ :! नमि नम्र सुराधीशो, नेमीर्मदन मर्दनः ।
पाच पद्मन्द्रसंपूज्यो, महावीरोन्स्य तीर्थकृत ॥ ६ ॥ एतेऽत्रसपिणी जाताश्चतुर्विशति तीर्थपाः । श्री ही तुष्टि महाकीवि तुष्टिदाः सन्तु शाश्वतम् ॥ ७॥
।। महाय॑म् ।।
1१०६
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११०॥
सकल मे जिनालय वासिनो, गगन वेदषडाष्टमिताजनाः । ददतु शर्म निरंतरमव्ययं, सकल भव्य जनेम्य इद्यार्चिताः ॥
॥ इत्याशीर्वादः ।। ( इति पुष्पाञ्जलि विधानम) ॥ पन्च मेरु उत्थापन विधि ।
( यह विधि खास नर गुजरात प्रान्त में प्रचलित है) भाद्रपद शुक्ला नवमी के दिन पूजनादि निया हो जाने के पश्चात् निम्न विधि पूर्वक मेरु उत्थापन करे । सर्व प्रथम निम्न पाठ पढ़ते हुने नीचे से लगाकर ऊपर तक एक एक मेरु को हाथ लगावे ( स्पर्श कर आशीर्वाद ले) १ पन्च मेरु, २ दाई द्वीप ३ एक सौ सित्तर क्षेत्र ५ अस्सी चैत्यालय ५ पबमावती माता कहती हैं, शासन देदी सुनती हैं यहां करे तो वहां पावे वहां करे सो यहां पावे ।
सलिल चन्दन पुष्प शुभाक्षतैश्चर सुदीपमुभूपफलायकैः । धवल मंगल गान रबाकुलैः जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥
ॐ ही सुदर्शन मेरुस्थ जिन प्रतिमा-पो अध्यम् ॥ ऊरर का श्लोक पढ़ कर अयं चढ़ावे एवं भारती उतार कर निम्न आशीर्वाद पढ़े । पांचा मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा को करु' प्रणाम ।।
महासुख होय, महा सुख होय, देखे नाथ परसुख होय ॥१॥
॥११०
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१११०
पुष्पाजलि क्षेपणकर नमस्कार करे एवं नीचे के मेरू की प्रतिमाजी को उत्थापन कर वेदो पर विराजमान करे । इसी प्रकार ऊपर के मेरू की भी अलग २ निधिकर ( अर्ध चढ़ाना, आरती उतरना, आशीर्वाद व नमस्कार करके ) पांचों मेरु की प्रतिमाजी उत्थापन करे
1
कनक प्राइथनाभाजिनः ।
जम्बू वात कि पुष्करार्द्ध' वसुधा, क्षेत्रत्रये ये भवा रचन्द्राम्भोज शिखडि कल्ट सम्यग्ज्ञान चरित्र लक्षणधरा दरवाष्टधाना भूतानागढ बर्तमान समये तेभ्यो निभ्यो नमः
उपवति हो ।
ऊपर का श्लोक पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण करे पश्चात् मेरुजी उत्थापन कर यथेष्ट स्थान में रखदे ।
॥ इति मेरू उत्थापन विधि ॥
* पुष्पाञ्जलि पूजा *
श्रादौ दर्शन यो मेरू विनयोप्यचल स्थितः चतुर्थो मंदिरो नाम विद्युन्माशी सु पंचमः FI
11
ॐ ह्रीं पंचमेरूस्थ प्रतिमाभ्यो अत्र अवतर २ ॐ ह्रीं पंचमेरूस्थ प्रतिमाभ्यो यत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ
वषट् श्राननं ॥ स्वाहा, प्रक्षिष्ठापनं ॥
tal
१११५
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११२॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूस्थ प्रतिमाभ्यो मत्र मम सभिहितो भव २ वषट् । संन्निधापनं ॥
सन्मान
जलादिभिश्च ।
पुष्पांजलि यंत्र स्थापनम् ॥ योग्यान्, सद्भाव समर्चयत्पंच दिनानि भक्त्या ॥ ६ ॥ जलं ॥ कुकुमार्थ, गंधैः सुगन्धी
कृत दिविभागः I
स्थानान्मुनयं प्रतिपति पुष्पाञ्जलिर्भाद्रपदादि मासे, श्रीखंड कपूर
पुष्पांजलि भाद्र० । चन्दनम् ॥
शान्यच रक्षत दीर्घमात्र,
मुनिर्मलैश्चंद्र करावदातैः । पुष्पांजलिः ॥ अचतं ॥ भोज नीलोत्पल पारिजातैः कदंब कुंदादि पर प्रसूनैः ॥ पुष्पांजलि ॥ पुष्यं
小
0
नैवेद्य कः कांचन रत्न पात्र : यस्तै रुदस्तै हरिणा मुहस्तैः ॥ पुष्पांजलि● ॥ नैवेद्यम् ॥ दीपोस्त तमोभिघातैरुद्योदिता शेष पदार्थ जातैः " पुष्पांजलि० ॥ दीपम् ॥ तरुव्य कृष्णागुरु, दनायें संचूर्ण जैरूचम धूप वर्गेः " पुष्पांजलि ॥ धूम् ।। लंबिंग नारिंग कवित्पूगै: श्री मोच चोचादिकलैः पवित्रः ॥ पुष्पांजजि० । फलम् ॥ श्रीखंड कर्पूर सुगंध बामिः फलैश्च पुष्पाक्षत धृषनाद्य पुष्पांजलि भाद्रपदादिमा से, समचयेत्यंच दिनानि भक्त्या || अ T
"
|| जयमाला ॥
पत्ता-विधि सुपरउ, कंचय क्राउ, रिसिह ग्राह शिज्जिय अगि धम्म पयास, कम्मविश्वास, असुरा सुर नर थुय बल । १ ॥
मयखु
i
।।११२३
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११३:
वास्तछंद - चउणी काय चणीकाय मिलिय सुर वरहिं ।
कैलास पञय सिहरे, रहे आसिजे जिण बरगीय मंगल रवे करहि
परेमा वैजा विरु कहिय पन्भावई सुरसरा I
मा कुसुमांजलि लेवि करि जिस चौबीसह दिए 13 सु दिमि दिमि मद्दल करड कंसाल, सुविविलिय भन्दरी मेरी सालं । सुगेव विलंबा देई सुरसती, सुखच्चाहिं किरायर सुरार पत्ती ॥ १ ॥ जलंमि सुचंद अक्व सारु, सु फुल्ल चरुमिय दीवय फारु ।
सुगंधय धूव विचिच फलोह, पुष्पांजलि खिम्मल दिएण समोहं ॥ २ ॥ रिसिसर केवल गाण पचासु सु पुज्ज्हु संतारिणहि दुहणासु ।
अणोरम जाई हि अतिउ जिणंद, सेवंविहि संभव देव श्रदु ॥ ३ ॥ पचहू अहिलंद दवणेहिं, शिवालिय सुमइ हिं पूज रहीं । पफुल्लाह पउप्पहु परमेहिं, सुपास सुरु वररोहिं रिंजणु सासय श्राख विवासु, सु चम्पय चंद्रप ससिभामु सुवियलदि सुविहि जिणंदु वाहु सुपरिमण पाडल सीयल सुहंकरू वर मंदारि, तु पुज्जहु बासु पुज्न कचारि ।
सेयंमु
सु कितिहि खिम्मलू विमलू कर्यवि, श्रणंतु असोयहि सिद्ध कियंचि ॥ ६ ॥
पर्याय T
पुत्रखु पुज्जउ कंठिय
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!! ४ ।
११३
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१४||
सु कुज्जय हुल्लहिं व अलेउ, रतुष्पलि संति जिरणेसर देउ ।
बगच मुक्थु सुप्रज्जब कुंदि, जिणेसर जासु वणहि अरु यदि ॥ ७ ॥ बहुविहि मालहिं मन्लि चयारि, सु बउलहि मुणिसुन्धय तिउगरि ।
___ सु सुजल आयीचा मि यायः करंजलि होमि जिणह मुणाय : ८ ॥ फणा मणि मंडिउ पास जिणंदु, चड़ावहि बहुविहि वर मचकुंदु ।
जुदेव दुलहु र कणवीरू, सु लेवि जिणेपरु पुजनहु बीरू || ६ ॥ जि ईच्छहिं सासय सुक्खु अतुल्लु, ति इणि परि जिगह चदापहि फुल्लु |
जी भावण वितर जोइसी कपि, पुष्पांजलि ताह जिरणेसर अपि ।। १० । जे मेरू हि श्रमिय जिणेसर संति, ति बनी विस जिजेगमदति ।
कुल गिरि तीम्र अभिट्टिम देव, चखारह असीयहं कियसुर सेकं ॥ ११ ॥ विहिहि सत्तरि सउ जिणगेः कुरुमि जिर्णदह गयभवणेह ।।
जे कुंजल पवयण जिण चचारि, रुजय गिरि चारि जिणेह च्यारि । १२ ॥ चयारि "बिईगा रव जगचंद, मणोतरि तेतिय जाणि जिणंद ।।
जे संठीय दौसरी बावरण, ति सासु सहु महु देउ पमण ॥ १३ ॥ अठाइयहिबहिं विहिमि माद, पएणारम कम्प्रय भूमि जिद ।
अकित्तिम क्रित्तिम जे जिण गेहु, पुष्पांजलि ताहं जिग्गेमर देहु ॥ १४ ॥ यमुसइ भाष मुग्लिसर चंदु अभवमणि माधव गांदि मुणिन्दु ।
अकिचिम कित्तिम जे सुक्कोत्ति, ति पानिहु विमल पयासि विभत्ति ।। १५ ।
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१५
जिखेवरु बस मंगल संयसारू, ति ईसर मुत्ति रमणि गलि हरु
जिणेसर जे पुष्पांजलि देई सो सामय सुक्खु श्रखंतु लहेई || १३ |
धत्ता-सुरनर विज्जाहर, होति मणोदर ते सग्गि सुरेसर, पुहवि गरेसर,
पुष्पांजलि विधि जे काहिं मक्ख महा पुरि संचरहि
I
।। इति पुष्पांजलि पूजा समाप्तम् ॥ * अथ अष्टाह्निका पूजा
1
॥ १७ ॥ पूर्णार्थम् ।
द्वीपेऽपि नन्दीश्वर [संज्ञकेहि, मिनि मुख संस्थान् ।
जिनेन्द्र गेहान् मणि हेम मूर्ति, द्विपन्च संख्या सहितानमामि ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वर दीपे द्विपन्चाशज्जिनासस्थ प्रतिमा समूह यत्र अवतर अवतर संवापट् । यत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो मन भव वषट् ॥
कर्पूर पूर परिवृति भूरि नीर, धारामिरामिरमितः श्रम हारिणीभिः ।।
:
नन्दीश्वराष्ट्र दिवसानि जिनाधिपाना मानन्दतः प्रतिकृर्ति परिपूजयामि ॥ जलम् ।। हृद् घ्राण तर्पण परैः परि वर्ष सबै र्गन्धैः सुचन्दन रसैर्धन कुङ्कुमः । नन्दीश्व || चन्दनम् ॥ उन्निन्द्र चन्द्र विलसत्किरणावदातैः सत्कुन्द कोर कमिभैः कलमानतो नन्दीश्व ॥ श्रतं ॥ मंदार चारू हरिचन्दन पारिजात संतान भूरुह भवैः कुसुमैविचित्रः ॥ नन्दीश्व | पुष्पम् ॥ सिद्ध शुद्ध व माजनस्थैः पीयूष मिष्ट ललितैश्वरुभिर्विचित्रैः ॥ नन्दीश्व । नैवेद्यन् "
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११६॥
對
ध्वस्तांधकारनिकरैः कनकावदात दोष: प्रदीपित समस्त दिगन्तरालैः || नन्दी || दीपम् धूपै रमन्दवर सौरभ बाल गुंजद, मृगाकुलैरगुरु चन्दन चन्द्रमिश्रः । नन्दीश्व || धृ कादाडिम मनोहर मातुलिंग, जाती फल प्रभृति सौरभ सत्फलाद्यः ॥ नदीश्व ॥ फलम् ॥ द्वीपे नन्दीश्वरेस्मिन् विविधमषिमा क्रान्तकान्ताङ्ग कान्ति |
प्राग्भारप्राप्त चन्द्रद्युतिकर निकर ध्वस्त मिथ्यान्धकारम् ॥
चैत्यं चैत्यालयांश्चोज्वल कुसुम फलाद्यैरनिन्द्य प्रभावै ।
भक्त्यायेभ्यर्चयन्ति स्फुटमसम सुखरं ते लभन्ते त्रिमुक्तिम्
अर्घ्यम् ।
|| जयमाला ||
आर्या- कम्पिल्ला गवरी मन्दणस्स विमलस्स मिलणारस । आरतियवर सप्रये, राच्चति अमर
|| छन्द ||
अमर रमणीयच्चेति जिर्णमंदिरं, विविध बर ताल तेरहिं संगमपुरं ।
रमणीयो
रुडंकारणे वरघचल गुडिया, मोतिया दामवच्छच्छले संठिया |
1 १ ॥
जयि पहु रयण चामीयरं यत्तयं, जोइयं सुन्दरं जिस आरनियं ॥ २ ॥
गीय गावंति राच्चति जिशमंदिर, जोइयं तुन्दर जिराव आरतियं ॥ ३ ॥
॥ ११६॥४ -
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...
केस भरि कुसुम पय सरस ढोलंतिया, क्या छणइंद सम कंतषिय सतिया ।
कमलदल पण जिण वयण पेखंतिया, जोइयं सुन्दरं जिण प्राचियं ॥ ४ ॥ इंद परिणिन्द जक्खेन्द बोहतिया, मिलिय सुरु असुर भए राति खेलतिया ।
केमि सिय चमर जिला विम्ब ढोलंतिया, जोइयं सुदरं मिणघ आरतियं ॥५॥ ग था-गंदी सुरम्मि दीवे बावए जिणालयेसु परिमाणं __अट्टादि बा पव्वे इन्दो आरतियं कुणाई ॥ ६ ॥ छंद-मंद प्रारचियं कुणाइ दिया मंदिरं, स्यण मणि किरण कमले हि र सुन्दर ।
गीय गायति एचंति कर पाडियां, तूर वनति सागा विहगाडियं ॥ ७ ॥ गाथा-एक्के कम्मि य जिणाहरे चर चउ सोलह बाबीओ ।
जोयण लवख पमाणं, अट्ठम गंदीसुरं दीवे ॥ ८ ॥ इंद-महमं दीव सांदीसुर भामुर, चत्य चैत्यालये बंदि अमरामरं ।
देव देवीउ जद धम्म संतोसिया, पंचमं मीय गाति रस पोसिया ॥ १ ॥ गाथा-दिव्वेहि खीर रेहि गंधड्ढाइहिं कुसुममालाहिं ।
सबसुर लोय सहिया पुजा आरंभए इंदो ॥ १० ॥ छन्द-ईद मोहम्मि सगाव बमोमयं, श्रापउ सज्जि एरावयं वर गपं । ___ सब्ब दम्वेहि भवेहिं पूजा करा मिलित्र पडि ३क्खया तस्स तिहु देसया ॥ ११ ॥
. . . ॥११॥
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२१८ ! |
गाथा - कंमाल ताल तिवली, मल्लर भर भेरि वेणु त्रियायो ।
पज्जेति भाव सहिया, भव्वेहिं उज्जिया सच्चे ॥ १२ ॥ छन्द-सव दव्वेहिं भवेहिं करवादियं, सह संझिग झिगण सिद्धाडयं । भिगिनिजं भिगिनिजं वज्जये झम्लरी, सच्चये इंद इंदायणी सुंदरी ॥ १३ ॥ गायब कब्जल सलायामयं दिण्यं, हेम हीरालपंडले कंकणं :
दिये गोबरं, विराध भारतियं जोइयं सुंदरं ॥ १४ ॥ figure गुलिय दावेतिया, खियहिं खिय खयहिं जिस विम्व जोइत्तियः । पारि सच्चति गायंति कोइल सुरं, जणुघारतियं ओइयं सुंदरं १५ ॥ रुणुझुणं कारणेवरच कर कंकण, थाइ जंपति जिला हवे बहुगुणं ।
I
जुब च्वंति सुपरति ग उ खिय घरं, जिशा चारतियं जोड़यं सुंदरं ॥ १६ ॥ कंठ कइलो मणिहार फुल्ल, जिड़ थुइ घुई सोगार संतु fafe कोऊल स्यहि गरी एरं जिव भारतिये जोइयं सुंदरं ।। १७ । पत्ता:- भारतिय जे वह उम्र धोवइ, सम्गावग्ग हलहु लहर | ॐ अं मण भावद्द तं सुह पावह, दीष्णु वि भासुरण मारणइ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्व द्वीपे द्विपंचाशजिनालयेभ्यो श्र 1:
।। १६ ।।
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॥११
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यावंति जिन चैन्यानि, विद्यते भुवन त्रये । तान्ति सततं भक्त्या त्रिः परीत्य नमाम्पहं ॥
॥ इत्याशीर्वादः ॥ ॥श्री नन्दीश्वर द्वीप पूजा ।। मालिनीच्छंदः-श्रीमतीर्थाधीश संपाद पनौ, नत्वा पूजामष्टमस्याप्टवांहं ।
___ वक्ष्ये भक्या द्वीप नंदीश्वरस्य द्वापंचाशच्छल चै:पानि तम्य ।। १ । पंचवावष्ट हया, सरसेव्यं प्रमाणकः, योजनेविस्तृतो द्वीपो, माति नंदीश्वरोष्टमः ॥ २ ॥ पंचमाष्ट तु सप्तद्वि, हव्याशातमितरलं, तन्नाम्ना वेष्ठितोऽब्धिना, योजनविस्तृतो नः ॥ ३ ॥ तच्चतुर्दिक्षु चत्वारोंजनाख्योमत्यगोतमः, पोडशेतेश्चतुदिक्षु दीविकासत्य मुभिता । । दधिमुखभिधाशैला, दीर्घिकामध्यसंस्थिता; पोडशा रेजिरे नित्य, सागरे कलशा इव । ५ . तद्वापी कोणयोः संस्था, द्वौ द्वौ हि वापिका प्रति, द्वात्रिंशद्र सिकृच्छैलास्ते सर्वेचन राजिताः ॥ ६ ॥ सत्र के समाख्यातं, चैत्य स्वर्ण मय जिनः भामाश्य योजनोतुगं तदर्घ पूर्व पश्चिम । ७ ॥ सतैक योजनायाम , दक्षिणोत्तर भागयोः द्वापंचाशत्सु चैत्यानि, द्वापंचाशतयोरपि । = " एवं मणि मयैश्चूणे सन द्वीप युताष्टकं । लिखिला द्वीपभुत्तुगं पूजयंतादन्वितं ॥ ६ ॥
॥ एतत्पठित्वा पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
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ॐ पूर्व दिशि स्थित चैत्यालयपूजा ॐ नन्दीश्वरे हरि दिशि स्थित कजनाद्रि, मुख्य प्रयोदश गिरि स्थित मैच पक्तिः संस्थापयामि शुचि कार्तिक फान्गुखौर शुक्लाष्टमी प्रभृति तो दिवसाष्ट कांतम् ॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपे पूर्व दिशि संस्थि तांजनगिर्यादि पर्वत इय॑कृत्रिम त्रयोदश चैत्यालयानि अब अबतर अवतर संवशेषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सनिहितो भव भव षट सनिधिकरणं ॥ पुष्पांजनि दिपेत् ॥ रेवा कलिन्द तनया सुर सिंधु सिप्रा, नीरैः सुगंधतर वस्तुयुतैयजेऽहम् । नन्दीश्वरे हरि दिशि स्थित कज्जलाद्रि, मुख्य त्रयोदश गिरि स्थित चैत्य गेहान् । जलम् ।। काश्मीरजागुरु सिवानरसाभिमिश्रः, सलेपयामि मलयोद्भवचन्दनैश्च ।। नंदीश्व• ।' चन्दनं । कुन्देन्दुहार हार हिम मौक्तिक तुल्य वणे, गांगेय पात्र निहितैः कलसैयोजामि । नंदीश्व. ॥ अवतं॥ पुष्पांध यौध परिपीत पराग सारै, मंदार कुंदकलिकाभिरलं करोमि । नंदीश्व० पृष्पम् ।। शाल्योदनैरतितरां घृत सूप मिश्री सद् व्यंजनः रसभरैः परि तर्पयामि ।। नंदीश्व० । नैवेद्यम् । स्वीय प्रभा परितिरस्कृतमधपादै., प्रछातयामिमणि दीप च विचित्रः ।। नदीव० ।। दीपम् ॥ श्रीकाक तुंड मणि गुरू यक्षधूपैः, संधृपयाभ्यशुभ कर्म विनाशनाय ॥ नंदीश्वः ।। धूपम् । नारंग चोच कद ली क्रमुकाम बीजैः, द्राक्षाफल प्रतिदिनं सफली करोमि ।। नंदीश्व. ।। फलम् ।। नंदीश्वर द्वीप पूर्वे, जिनवर नियाभ्यांतरे श्री जिनेन्द्रान ।
माया देवेन्द्र पौस्त्रिविध परिणतैरंजनावाचलेषु ।
१२०॥
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द्रश्याप्टाभिरेभिः गुण गण निलयापूस्यत्यादराय : ते मुक्त्वा स्वर्ग मौख्यं पर पद मनघं संप्रयाति क्रमेण ॥
" अश्वम ॥ ॥ जयमाला ॥ सुर नर फशि मूर्वा शेप मौलिद्ध तेजो, मणि निकर वेभावाः सालिताद्रांबुजाता ।
जिन पति विधुवर्या यत्र तिष्ठति चैतन्निवसति जयमाला संकरिष्ये रसाला । १ ।। दक्षिणे चोत्तरे योजनानां शति, विस्तुति विद्यते सुन्दरं येऽष्टकम् ।
अंजनादौ स्थितान् बाह्य चन्द्रौ पमान्द्वीप पूर्वान्भजे सर्व चैत्यालयान ॥ २ ॥ परिचमे यो ना नांच पूर्वेशके, झस्ति पंचाशदा व्यारूएषां सदा । अंजना, ॥ ३ उन्नता योजने बाण सप्त प्रमै, तोरणः गोपुरैः के मि लक्षिता । अंजना. ॥ ४ ॥ रत्न भामंडल स्तेज साराशिमि, जैन विम्या वरा यत्र सभात्यलम् ॥ भजना. || ५ ॥ मात पर यैः पूर्व चन्द्रोपमः, पत्र रेजिरे रम्य मुक्ता फलैः । अंजना. ॥ ६ ॥ नील शोभ भृताशोक वृक्षण ते, पृष्ठ भागस्थिवे नैव यत्रा बभुः ॥ अजना. ।। ७ ।। हेम सिंहासनं रत्नमालाश्रितं, संश्रिता यत्रते सार शोभा दधुः ॥ अजना ॥ ८ ॥ दीर सिंधुच्छलद् बीचि मालोषमै, भत्यिस यत्र ते बीबिताश्चामरैः ।। जना ॥ ६ ॥
कृत्वा नाचलाद्रिस्थ, चै याना ज़य मालिका, । तेभ्य: सर्वज्ञ युक्तानाः दवाई प्राथयेशि ॥ १० ॥ पूर्णाम् ।
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२२।।
॥ अथ दक्षिण दिशिथित चैत्यालय पूजा ॥ नन्दीश्वरे यम दिशि स्थित कन्जलाद्रि, मुख्य त्रयोदश गिरि स्थित चैत्य पंक्तिः ।
__ संस्थापयामि शुचि कार्तिक 'फाल्गुणोरु, शुकलाष्टमी प्रभृति तो दिवसाष्ठकान्तम् ।। १ ॥ __ॐ हीं नन्दीश्वर द्वीपे दक्षिणदिशि सस्थितांजनगिर्यादि प्रयोदश पर्वत बय॑कृत्रिम चैयालय स्थापनार्थ पुष्पांजलिं वपेत् । अमृत जलघि तोयैः केशगजादि मिश्र, मुनियर गुरु चेतः शीतलै कुभसंन्यः ।। असित कुधर मुख्यानोन्दु संख्याग संस्था, लयगत जिन विम्वन्द्वीपथाम्यान्यजामि || जखं ॥ प्रकृति मुरभिदेहान् छिन्नसंसार मोहान्, मलय विपिन जातंरचन्दनैः कुमाद्य: । असित ॥ चन्दनं ।। हिमकर दविहाराकारधारार खंडे, विमल कनक पावन्यस्त शाजीय पुजैः ॥ यसित. ॥ अक्षतं ।। कमल कुमुद दाम्ना चंपकानेक धाम्ना सुमति प्रवर भूम्ना मालसी संमहिम्ना । असिट । पुष्पं ॥ दशदिशि गत गन्धै निसरद्वाष्प जाले, वितत्र सुरभिस पायसः शर्करायः ॥ आंसत० ॥ नैवेद्यम् ।। जिनपति शुमबोधोझासक रत्नदी, निहित तिमिर वृन्दै जमानांत दिक्वैः ॥ असितः ॥ दीपम् ॥ अगुरु सुरभिकाष्ठ च्छेद संजात धूपें, विपुल दहन संगाद्ध म जालं वद्भिः || असित || धूपम् । हृदय नयन नासा प्रीतिदैः कासगंधैः, क्रमुक पनस मोचा चोच सन्मातुस्लिगैः ॥ असित ० ॥ फलम् ।।
(इन्द्रवजा) श्री द्वीप नन्दीश्वरयाम्य काष्टा, शीतादिवसिद्धग चैत्यमाला ।
तोगादिभिः शारद चन्द्र कीर्ति, संपूजयबादरको जनौघा ॥ अय॑म् ।
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॥ जयमाला ॥
२३
( शार्दूल विक्रिड़ित छन्द) विस्तीर्णा शत योजनः स्थिर रास्तदृक्षिणे चोत्तरे । पूर्व पश्चिम भाग एवं ममलं व्यासं तदर्ध श्रिताः । उच्ः योजन पंचसभिरभोजादि विचित्रान्विता ।
स्तान्सेवे किल मति यत्र सुभगाः सर्वज्ञ चैत्यालयाः ॥ १ ॥
(विद्युन्माला ) अष्टोत्तरसत श्रृंगारोध, गांगेय यमनध माण संघ ।
नन्दीश्वर यम दिशि नगराज, सेवे धृत जिन वसति समाज ॥ २ ॥ तत वितत शुपिरधनयुत तालं, पूर्व स्थानित सर्व विशालं । नन्दीश्व० ॥ ३ ॥ उत्तम मणि नः कनक कुभ, पूर्व गुणान्वित कृत चै शौम । नन्दीरक्ष. ॥ ४ ॥ वातान्दोलित केतु व्रातं, दर्शन मात्र विदर्शित सांतं । नन्दीश्वः ॥ ५ ॥ कुंभसु शोभा भर सु प्रतीक, मोहित किन्नर देवानीकं । नन्दीश्व० ॥ ६ ॥ कां वन दंड सुशोभित छ, तेजो निर्जिन करव मित्र' ॥ नन्दीश्व. ।। ७ ।। अनघरस्न युत दर्पण स्तूपं, विम्बित देव नरोरग रुपं ॥ नन्दीश्व० ॥ ८ ॥ मलना विजिव सु चामर मालं गंगा बीचि समुज्जल बालं ॥ नन्दीश्व० ॥ ६ ॥ भंगारा द्यष्टभिद्रव्यैरष्टोत्तर शतै युताः । एभिश्चैयालयानध्यैर्हतामये मुदा ॥
॥ अर्घम ।
१२३॥
ARRIAN
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॥ पश्चिम दिशि पूजा ॥
(घसंत तिलका वृत्तम् ) नन्दीश्वरे वरुण दिग्गत कम्जलाद्रि, मुख्य त्रयोदश निरिस्थित चैत्य पंक्तिः
___ संस्थापयामि शुचि कार्तिक फाल्गुणोरु शुक्लाष्टमो भृति सदिवसाष्ट कान्तम् ॥
ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपे पश्चिम दिशिस्थितांजन गिर्यादि त्रयोदश चैन्यालयस्थापनार्थ पुष्पांजलि लिपेत् ॥
(इन्द्रदत्रा) सुराएगा तीर्थः अलैः सुगन्धः, काश्मीर कपूर पराग मिः ।। प्रतीच्य शुभ्रा दिशि खीन्दु संख्या, गस्यालयाथान जिन पायायैः ।. जलम् ।। सुगंधीकारमीर रमोध पीतैः, श्री चन्दनगहत षट्पदोषैः । प्रतीच्य० ।। चन्दनं ।। तुषार हारेन्दु निभैरखंडः, सचंदुलैन्यकृत मौक्ति कौघैः ॥ प्रसीच्य० ॥ अवतम् ॥ मंदार कुन्दाज दंब पुष्पै गेलंय गजीकृन्मौक्तिकौथैः ।। प्रतीच्य० ।। युष्पम् ॥ गांगेय पात्र निहितरनिध:, पकवान शाल्योदन सूप शाकः ॥ प्रतीच्य० ॥ नैवेद्यम् । जगत्त्रयघान्त विन श दवैः, दीपैर्लसन् कांचन पावसंस्थः ॥ प्रतीच्य • ॥ दीपम् ।। सुगंधि काला गुरु धूप गंधै ठामोदिताशाखिल खेचरास्यैः । प्रतीच्य० ॥ धूपम् ॥ रसाल मोचामल मालिग जबीर राजःइन नालिकरैः प्रतीच्य० ॥ फलम् ॥
॥१२॥
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- ११२५:
तत्याश्चात्यांजनमुखनगाग्नीन्दु संख्यालयस्थान् । देशधीशान्सलिल कुसुमैः, पूजयित्वा प्रमोद त् ॥ स्वस्थ भूत्वा जिनवर पुरो ध्यानमंगी करोति, भव्यो योसो भय निधि वरं याति सच्चन्द्रकीर्ति ॥
॥ अर्धम् ॥
॥ जयमाला ॥
( इन्द्र बच्चा )
तत्पश्चिमाशांजन मुख्यशैल, श्चैव्यस्थितान्युद्ध सुवर्ग वर्णान् ॥
स्तुवे जिनेन्द्रान् जयमालयाहं, संसार पाथो निधिपारमाप्तान् ॥ १ ॥ निज दृष्टि विलोकित लोक हितं विचरे हरि शंकर काम सुतदं जन मुख्य जिनेश गृह स्थितवंत मनंत जिनेन्द्र महं ॥ २ ।
।
सकलामल बोध सुसंगघरं, भविनां भव पाप विनाश करं सुख सागर मग्नमनंत सुखं, प्रणमामि मनोहर मुक्ति नखं ॥ निरहंकृतमंत विकास करं बहुवीर्यधरं तमकौध इरं । हत मोह तमोभर मान वलं, सुतपोवन मौत कुकर्म बलं शरदोज्वल दक्ष पवित्र मुखं, विरति द्रुम पल्लर रक्त नवं सदयं सदयं समयं समयं परमं पदपंकज संतुत देव नरें, वर
।
।
परमं पर इंसमयं
योग कदंबक लब्धिकरं
।
·
सुत० ॥ ३ ॥
सुतदं
॥ ४ ॥
सुदं० ॥ ५ ॥
सु०
T
सुतदं० ॥ ७ ॥
सुर्द ० ॥८
सुतदं० ॥ ६ ॥
१२५ ।।
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| १२६ ॥
श्लोक - नन्दीश्वर (पराशास्तां जनाद्रिस्थ सुवेन्मसु ।
स्थितान्सर्वान् जिन्नाधीशान, पूर्णाः पूजयाम्यहं ॥ १० ॥
* उत्तर दिशि पूजा
( वसततिलका)
॥ अर्थ्यम् ॥
तस्योत्तरंजन नगादि शिखीन्दु संख्या, शैलस्थ चेत्य भवनानि मनोहराणि ॥ कार्तिक फाल्गुणोरु, शुक्लाष्टमी प्रभृति सविसाष्टकान्तम् ।।
संस्था
ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपे उतर दिशि संस्थितांजन गिवादि त्रयोदशपत्र कृत्रिम चैत्पालय स्थापनार्थं पुष्पांजलि चिपेत् "
(विद्युन्माला छन्द)
निर्जर गंगा वरवर तोयें, र्गंध विमिश्रः कलिमल हान्यैः ।
श्री तदुदीच्यां जन मुख, ग्लौमित शैला लय जिनम || १ | जलम् केशर माला सुरभी रसोधें, श्चन्दन पंकै मधुकर रागैः ॥ श्रीतदु ॥ चन्दनम् ॥ तंदुल पु'हिमकर रोचि मौक्तिक तुल्यैः परिमल सारैः ॥ श्रीदु• ॥ श्रक्षतम् ॥ चम्पकमाला शतदल कुन्दै चेतक जाती कुवलय सारै ॥ श्रीतदु० " पुष्पं पायस शापोदन नत्र सर्पे, मोदक हयैर्ममिव मिष्ठैः । श्रीतदुः ॥ नैवेद्यम् ||
॥२२६॥
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१२७
दीपकला विधुरस जाते, स्तामस भैदैः रवि कर तुल्यैः ॥ श्रीतदु० ॥ दीपम् ।। धृप कलापैरगुरुसमुच्चै, धूमि नितानै जलधर नीलः ॥ श्रीतदु० ॥ धपम् ।। दाडिम राजादन फल सारैराम्रकपित्थैः शिव पदसिद्ध य । श्रीत० ।। फलम् ॥
( इन्द्र बन्ना ) नन्दीश्वरेडिक् स्थिवकज्जलाद्री, खीन्दु प्रभागस्थित चैत्य संस्थान् । यजास्यनान् जलचन्दनाय सर्वज्ञ बर्यान् शरदिन्दुकीतिन् ।
|| अय॑म् । ॥ जयमाला ॥ आर्या-नन्दीश्वराष्टमद्वीपांजन प्रमुख त्रयोदश नगेषु सुवर्ण मया क्रत्रिम त्रयोदश चत्पालयाः ।
संति तबाहप्रति मानां, जयमाला पूजा विधि वश्ये ॥ १ ॥ पन्चम सागर श्रीतल वारा, स्नान विधिं विदधुः सहदारा । फाल्गुण मास पुरन्दर चर्या, उत्तर शैक्ष जिनात्र सु पर्याः ॥ २ ॥ लिप्तसु चन्दन चन्द्र रसौघाः, रेजुर रहत कर्म मलौवा ॥ फागुण ॥ ३ ॥
न्यन्त मनोहर तंदुल मंजा, रेजुरिक्षत मौक्तिक मुजाः ॥ फाल्गुन H४ | • दौकिन पन्कज चम्पक माला रेजुर रंजिव गीत रसाला ॥ फाल्गुण, ॥ ५ ॥
स्वादित मोदक पायस मक्ता मेंनिर आत्म सु पुण्यमरक्ताः फाल्गुण. .। ६ ॥
११२७।
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१२
बोतित रत्न कदम्बक दीपाः, रंजुर रंवर नाक महीपा | फाल्गुण. " ७ ॥ भूषित पेशल गंध सुरुषाः रेजुरहव घृत मोहन रूपा ॥ कामु ८ ॥ sofia are rare कदंबाः रेजुरईल कश्मल दंभाः ॥ फाल्गुण
६
( वसंत तिलका )
नन्दीश्वरोत्तर गतांजन मुरुष शैल, बहीन्दु मान शिखर स्थित चैत्य संस्था । वेदाभ्र वेद कुमिता प्रतिमा जिनानां संपूजयामि जलजादत चन्दनाद्यः ॥ ॥ महार्घ्यम् ॥
॥ समुच्चष्याटक ॥
2
विमल कांचन कुंम विनिस्सरत्प्रचुर कुकुम पिंजर वारिणा । रस हिमांशु रसेषु वितांश्चतान, जिनवरान्दिव साष्टक पूजयेत् ॥ जलम् ॥ शुभ हरिन्मणि संस्थित कु कुनैः, रस त वि नाल गतास्यैौ । रसहि || चन्दवम् ॥ कनक पात्र गोज्वल तन्दुलै, विधुकरै रिव नैषय संगतैः ॥ रस६ि० ।। अक्षतम् सलिल अन्य कदम्बक चंपक, अमर घोरिणि पीतपराग हैः ॥ रसहि० ॥ पुष्पम् ॥ हरिहविः सम पास संचयैः घृत वरे रसैः रसनेष्टकैः ॥ रसदि० ॥ नैवेद्यम् ॥ free पाप समोर नाशकै मुनि विवोध सबै मखि दीपकैः ।। रसहि, ।। दीपम् । त्रिवि मार्ग मतैरगुरुद्भवैः सुरभी धूम भरै भ्रमर मियैः || २सहि० क्रमुक दाड़िम चोच लतोभवैः रस विशेष युतै मधुरैफलैः ॥ रर. हि ॥
धूपम् ।। फलम् ।
॥१२८||
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द्वापंचाशच्चैत्य गेहीय सन्शुिनागढे कातिके फाल्गुनाख्ये ।
स्वष्टाम वै पूजयन्त्यष्टधा ये, भव्यास्ते वै मुक्ति माना: भवति ।।
॥१२६
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॥ श्रयम् ॥
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॥जयमाला ॥ घत्ता-सकल सुह कारणु, दुग्गइ वारण, पुजा गंदातर दीव ।
प्रासादह मासउ, कातिय मासउ फागुण अवमी जिण सेवं ॥१॥
( मणुयणाइन्द की चाल) सुहम कप्पादिया, मिलति सबि सुदरा, चालिया अनुमं दीव पंदोसुरा ।
चित्त संरत्तिा सच्च भत्ति भरा, देव देवी जुश्रा जोइसा वितरा ।। २ ।। इन्द एराण्यं चढ़िय सोहाषणं, घंट स किंकिणि चामरा ढोलणं ।
कुन्थ संभार सिन्दूर संलेपणं, गच्यए आप्छरा देव देवी मणं ॥ ३ ॥ वज्जए ताल कंसाल वर महला, मजए, ढोल नीसाण वीणा दला ।
मेरी संताड़िया संख कोलाला, सद्दए सोहिया काहला भंगला ॥ ५ ॥ काविधि नए वससिरि मंडला, कात्रिनि गायए मीत रामा कुला ।
कावित्रि शच्चए धरीय एकाउला कामिवि द्धावए रम्म मुत्ताहला ॥ ५ ॥ हार चंदामला जिण गुणा संयत्वा, बोलए कामिणि करिय मण णिम्मला।
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१२६
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पंचमं मायए रामसुर किएमरा पारया तुरा दाह हहु बरा । ६ ॥ विश्व चारि बरं पंम संवासिय, सिम्मलं सीयलं पाव परिणासियं ।
धोषए कोमलं जिण पय जु अलं, दीव संदीसरे ते सुरा सीवलं ॥ ७ ॥ गंध संकम्मियं भमर भुगम, भूरि कप्पूर संवासियं संगम .
चच्चए चंदणं जिण पयजु अतं, मगर ते मुरा तुम्ह गुण पेसलं ॥ ८ ॥ अक्खुमा उज्जला हार मुत्तोपमा, खंड संवज्जिया पंच मेरोपमा ।
पुच संढोकया जिणवर भग्गए, अरकयं ठाणयं ते सुरा मग्गए ॥ ६ ॥ मोगर! चंपा सम्म गंधालया कंद मंदारया पोम्म समालया ।
जाई जूई मयानीय निमालया पुज्जए नच्छिया तेइ दियालया ॥ १.। वाष्प संदूरया क्रूर सप्पियरा पायसा पावना गोरसा सर्करा ।
विय संपाधिया फेण्या घेवरा दीव खंदी सुरेतेठवे बावरा ॥ ११ ॥ भूरि कपूर बदिय उमालणं, फार अन्धार सं फडणे कारणं ।
संठिया दीवया रयण मम्भायणं द्योतए ते जिणं कम्म संचरग ॥ १२ ॥ धू सिल्लारसं अगर संघस्सणं, पूरमा कस्सियं भिंग सिंधोरयां ।
__दुव कम्पह विदेषणं जाणं, धूपए जिणारं दिध पूजालणं ॥ १३ ॥ नालिकेराम्बया पूम बीजोरया, चीमड़ा खिरषी मूल कुम्हंड्या ।
गोत्थनी दाडिमा तिंदुका केलया, दीव णंदीसरे पुज्जए एलया ॥ १४ ॥
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अन्य उचारये भावये भावना इत्य संजोड़िया हामणं ते जिया ।
दीव णंडी परे बेहरा बापणा, राए सप्तयं ठाण सोहामणा ॥ १५ ॥ पत्ता-इह गंदीसर भाऊ, पुज्ज सुदावऊ अमिदिखाइ पुन्निमापयणं ।। सिरिभूमण सिस्सउ , रविप्सम दिम्मर, चन्द कीत्ति सोहावयणं ॥ १६ ॥
महायम । नन्दीश्वरेष्टमेद्वीपे, सर्वेऽर्ह तस्त्रिधार्थिताः । पुनातु त्रिजगत्म शांतिधारा त्रयेण वै ॥
(इति शांति धारा त्रयं दध्यात )
नाना हाय विलास विभ्रमवरान् दारासु रम्यांगजान ।
दुर्धारान्मदनेन्दुरान्गजरवीन्, बारामनोरंहसः । कीर्ति कांति मनेकधामरसम छत्रांकिता सद्रमा । ___ मेतत्पूजन तत्पराः शुभजना संप्राप्नुवंतु ध्रुवं ॥
इत्याशीर्थादः ॥ अस्ति श्री काष्ठ संघो यतिजन कलितो गच्छ नन्दी तटाख्यो, विद्या पूर्ये गवान्तेजनिशत गुरो रामसेनश्चतस्मिन , तद्वंशेरेजिरेवै मुनिबन सडिता सूरयो विश्व सेनाः ,
विद्याभूषालय परिनिमति रमनचापदांभोधिचन्द्रः ॥१॥
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तत्पट्टोइय भूधरैकतरणि, पंचेन्नरएयारणिः । श्री श्रीभूषण परिराट् दिनयते सर्वच विवा चणः ॥ तच्छिष्यो जिन पाद पन मधुपः श्री चन्द्रकीति वर: । तेनाचार्य वरेण निर्मितमिदं मन्दीश्वर स्याचं ॥२॥
॥ श्री रत्नत्रय पूजा विधान ॥ श्रीमन्त सन्मतिं नत्या, श्रीमतः सुगुरुनपि । श्रीमदागमतः श्रीमद्वक्ष्ये रत्नत्रयार्चनम् ॥ १ ॥ अनंतानंत संसार, कर्म सम्बन्ध विच्छिदे । नमस्तस्मै नमस्तस्मै, जिनाय परमात्मने || २ ॥
धौन्योत्पादव्ययानेका तत्व संदर्शन वित्थे ॥ नमस्तस्मैः ॥ ३ ॥ संसारार्णवमग्नानां, यः समुद्र मीश्वरः ॥ नमस्तस्मै० ॥ ४ ॥ लोकालोक प्रकाशामा, यश्चैतन्य भयो महः ॥ नमस्त' मैः ॥ ५ ॥ येन ध्यानाग्निना दग्धं, कर्म दक्षमलक्षणं ॥ नमस्त मै० ॥ ६ ॥ येनामानि विज्ञातः, परं परमिदं वपुः ॥ नमस्तस्मै० ॥ ७ ॥ य एव परमं ज्योतिः, परं ब्रह्म मपः पुमान् ॥ नमस्तस्मै || ८ ॥
सर्वानंदमयो नित्यं, सर्वभव हितकरः ॥ नमस्तस्मै० ॥ ६ ॥ इत्याद्यनेकधा स्तोत्रैः स्तुवा सज्जिन पुगवम् । कुर्वे दृग्बोधचारित्रार्चनं संक्षेपतोऽधुना ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि अत्र तिष्ट सिष्ट ठः ठः स्थापनम् । ॐ हीं सम्यग्दर्नन ज्ञान चारित्राधि अब मम संनिहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
||१३२।।
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संसार दुख ज्वलनावगूढ, अढ संतापमलोप शायै ।
सदर्शनज्ञान चरित्र पंक्तेजल यधारा पुरतो ददामि ॥ जलं ॥ १ ॥ रत्नत्रयं भूषित भव्य लोक, मशोकमन्तर्गत भावगम्यं ।
काश्मीरकपूरसुचन्दन चै ,, सुगन्धिगन्धैरहम यामि || चन्दनम् ।। २ ।। श्रार्या छन्दः-अक्षतमक्षत पुर्जर, शालयैः शुद्ध गन्धिभिः शुद्ध ।
दर्शन बोध चरित्र त्रितयं तन्मय ने भक्तथा ॥ अक्षतं ।। ३ ।" उद्गताच्छन्दः - विकसित कु द कुसुम शत पत्र जात समूह शोभया,
धन कर, नीर शुभ चन्दन, चर्षित चारु गंधया । अलिकुल रणित कलित मधुर ध्वनि, श्याम समूह रसालया।
सुकलितमातनौमि रत्नत्रय, मा पवित्र मालया ।। पुष्पं ॥ ४ ॥ इन्द्रवज्ञा–प्रसिद्ध रुद्रव्यमनन्य लभ्यं, यचो गुरुग्णामिव साधुसिद्ध ।
रुदृष्टि सोध चरित्र रत्न, प्रयाय नवेद्य महं ददामि ॥ नैवेद्यम् । ५ ॥ दीपः सुकपूर पराग भृगैरंगद्भिांगद्य ति दीप्यमानैः ।।
गद्दष्टि सोध चरित्र गरम, त्रयं त्रयागतिकरं यजामि ।। दीपम् ॥ ६ ॥ श्रार्याछन्दः-धूपैः कालागुरुभि. शुिद्ध संशुद्ध कर्म संधूपैः ।
दर्शन बोध चरित्र विवयं संधूच्यामि सं शुद्धय धूपं ॥ ७ ॥ इन्द्रयच!-पूगैरनयर नारिकेलैः, नारंग जम्बीर कपित्थ पुजः ।
रत्नत्रयं तर्यित भव्य लोक, शक्पारलोकं तदहं यजामि ।। फलं ।। ८ ।।
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१२३४॥
TS
आर्या छंद-जल गंधादर पुष्पैश्चरू दीपैप सत्फलैः मर्थे ।
दर्शन बोध चरित्र, त्रितयं त्रेधा यजामहे भक्त्या ।। अर्घ्य । मोशदि संकट उटी विकट प्रपात, संपादिने सकल सब हिंत कराय रत्नत्रयाय शुभ हेवि सम प्रभाय, पुष्पांजलि प्रविमला ह्यातास्यामि ॥ पृष्पांजलि क्षिपेत् ।।
है अथ सम्यग्दर्शन पूजा * पास्याभिमुखी श्रद्धा, शुद्ध चैतन्य रूपतः । दर्शनं व्याहारेण, निश्चयेनात्मनः पुनः ॥ १० द्रुतविलम्बितच्छन्दः पदाधिराज : शिला , मविता प्रतिपय अरेजिरे ।
तदिह मानसतामरसेलसद्विशतु दर्शनमष्ट विधं मम ॥ २ ॥ ॐ हां ही ह ही है। प्रप्टोमसम्यग्दर्शनावावतराववर स्वाहा ।। पुष्पांजलि क्षिपेत् ॥ अनंतानंत संसार सागरोत्तार कारणम् तीर्थतीर्थकतामत्र, स्थापयामि सुदर्शनम् ॥ ३ ॥ ॐ हा ही ह ह ह अष्टांगसम्यग्दर्शन अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्वाहा ॥ प्रतिष्ठान । अष्टाङ्ग रेष्टधापूत-मष्टक गुण संयुत । मदाष्टक विनिमुक्तं, दर्शनं समिधापये ॥ ४ ॥ ॐ हा ही ह ह्रौं है'; अष्टांगसम्पदर्शा अत्र भमसन्निहितं भव भव वषट् । समिधिकरणम् ।।
दर्शन यंत्र स्थापनम् । शरदिन्दु समाकार , सारया जल धारया । सम्पादशनमष्टांग , संपजे संयवावहम् ।। जलं.१!
%
.
.
.
॥१३४॥
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३५
I
सम्यग् •
।
चारु चन्दन काश्मीर, कर्पूरादि विलेपने' अखंडः खंडिता नेक, दुरितैः शालितंदुलः । सम्यग् शत पत्र शतानेक चारू चम्पक राजिभिः 1 न्यायैरिव जिनेन्द्र स्य, सभाज्पैः पुष्टि कारिभिः Enter it aftः सद्दीप्ति हेतुभिः ॥ कृष्णा गुरु महाद्रव्य, धूपैः संघुषिताशुभैः ॥ पूग नारिङ्ग जम्बीर, मातुलिङ्ग फलोकरैः । सभ्य जलगंधाक्षतानेकः पुष्पनैवेद्य दीपकैः ॥
सम्या.
सम्यस्०
॥
॥ चंदनं ॥ २ ॥
अक्षतं ॥ ३ ॥
पुष्पं
४ ॥
सम्बर ० ॥ नैवेद्य ॥
५ ॥
सम्पर
६ ॥
॥ ७ ॥
यस्य प्रभाराज्जगतां त्रयेऽपि
सम्बर ०
॥
॥ दीपं
धूपं
il फलं
अयं ॥
॥ इन्द्र वार
पूज्षा भवंडीह घना जनौघाः Ir
सुदुर्लभायामर पूजिताय निः शंकिताङ्गाय नमोस्तु तस्मै
॥ ॥
Mε 11
I! १ ।।
ॐ ह्रीं निः शङ्किताथ हदं जलं गंध पुष्पं, अक्षतं चरू दीपंधूपं फलं समर्पयामि स्वाहा । सुदर्शनं येन विना प्रयुक्तं, मन्तः फलं नैव भवेज्जनानां |
सुदुर्लभायामर पूजितायः निः कांतिवाङ्गाय नमोस्तु तस्मै ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं निःकांक्षिताङ्गाय महाघवं ।
यदंगतः संयम वृक्ष सेकी, तस्मात्फलं संलभते शरीरी ।
***
+-+
१,१३५०
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२३६॥
सुदुर्लभायामर पूजिताय निर्निन्दतांगाय नमोस्तु तस्मै ॥ ३ ॥
ॐ ह्रीं निर्विचिकित्सांगाय जलार्ध ॥
यदुति चारु चरित्र मेतत् सिद्धये भवेन्नैव मुनीश्वराय !
ॐ ह्रीं उपगूहनांगाय भवन्ति वृद्धा गुण
सुदुर्लभाषाभर पूजिताय निमू तांगाय नमोस्तु तस्मै ॥ ४
ॐ ह्रीं श्रमूङ्गाय जलाद्यघें म् ॥ सुरेन्द्र नागेन्द्र
नरेन्द्र वृन्दे - ईद्य पदं यद्वशतो लभन्ते 1 सुदुर्लभाषाभर पूजिताय निगूढवांगाय नमोस्तु तस्मै ॥ ५ ॥
अपघर्ष
वृद्धि सिद्धा, येनानु वृख जगति प्रसिद्धाः । सुदुर्लमायामर पूजिताय
ॐ ह्रीं स्थितिकरयांगाय जलाद्यधं ॥ सुरत्नबद्दल मतामुपेतं,
स्थापना नमोस्तु तस्मै ॥ ६ ॥
भव्यraat यत्प्रतिभासमानं 1
सुदुर्लभायामर पूजिताय वात्सल्यगाव नमोस्तु तस्मै ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं वासल्यांगाय जलाद्य N प्रबंध भूयिष्ठमलञ्चकार यच्चासने शामित मन्य लोकः I सुदुर्लभाभर पूताय प्रभावनांगाय नमोस्तु त
ॐ ह्रीं प्रभाव नांगाय जलाद्यम्
= ||
।। १३६ ।।
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॥ समुच्चयाष्टक ॥ सौरम्याहत सद्गंग, सारया जल धारया 1
निःशंकिजादिकान्यस्य, सदंगानि यजामहे । ॐ ह्रीं निःशंकिता द्यष्टांगाय जलं निवपार्म ति स्वाहा ॥ १ ॥ चाह चन्दन काश्मीर कपूगदि क्लेिपनैः ॥ निःशंकि० चन्दनं ॥ २ ॥ अक्षर दातानंच सुख दान विधायकैः ॥ निःशांकः ॥ अक्षतं ॥ ३ ॥ जाति कुन्दादिशजीव, चम्पकानेक पन्लवैः । निशकि० ॥ पुष्पं ॥ ४ ॥ खाद्यराद्य पदैः स्वाद्य सन्माज्यैः सुकृतैरिव ॥ निशंकि० ॥ नैवेद्य ॥ ५ ॥ दशायः प्रस्फुरद्रुपैीः पुण्य स्नैरिब ॥ निःशकिः । दीपं ॥ ६ ॥ धूपैः संधृपितानेक कर्मभिः धूपदायिनां । निशंकि० । धूपं ॥ ७ ॥ नारिकेलामपूगदि फलैः पुण्य फलैग्वि , निशकि० ॥ फलं ॥ ८ । (प्रार्या) जल गध कुसुम मिश्री, कल तन्दुरी कमल फलित ललिताढ्य । सम्यक्त्वाय सुभष्पा, भव्याः कुसुमांजलि ददतु ॥ अर्थ ॥ ६॥
( पुष्पांजलिंक्षिपेत ) जाप्य ह कुर्यात् । ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय नमः ॥ १।। ॐ नि:शहितांगायनमः ॥ २ ॥ ॐ हीं निकोदितांगाय नमः ॥ ३ ।
१३७।
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११३८॥
ॐ ह्रीं निर्विचिकित्सितांगाय नमः ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं निमौंत्याय नमः । ५ ।। ॐ ह्रीं उपगृहनाय नमः ॥ ६ । *ही स्थितिकरणाय नमः ७ ॥ ॐ ह्रीं वात्सल्याय नमः ॥ ८॥ ॐ ह्रीं प्रभावनांगाय नमः ॥ ६ ॥
एमिमर्जाप्यं कुपादघंचापि समरेत् ॥
॥ जयमाला ॥ श्रग्घराचन्दः तत्वानां निश्चयो यस्तदिह निगदितं दर्शनं शुद्ध बुद्ध,
तस्मादानष्ट कर्माष्टकघनतिमिरो जायते ज्ञान नरः । जानासिद्धि प्रसिद्धि शषि वचनमिदं शाश्क्तं सिदि साख्यं ।
चंचच्चन्द्रांशु शुद्धं तदहमिहमहे दर्शनं पूजयामि ॥ १ ॥ जय सम्पग्दर्शनदर्शिताश, कमचार्चितहतवनकर्मपाश ।
____ जयनिःशंक्ति निश्चित सुतत्व, शतपत्र शतार्चित मुदितसत्य ॥ १ ॥ जय निकांक्षित वर्जित किार कुन्दाचितकृतसंसारपार ।
___ जय निर्विचिकित्सित भाव भंग, पद प्रसून पूजित सुसंग ॥२॥ व्य निमूढांग महाप्र टु, शुभ चम्पक चर्चित चारू रूद ।
जय २ उपगूहन परभ पक्ष, पर मल्लिकार्चदर्शिब सुलक्ष ॥ ३ ॥
॥१३८)
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जय २ सुस्थिर सुस्थितीकरण, जातीकुसुमार्चित दुखः हरय I
कारसज्यमन्त जय २ विशाल, वैतकदल पूजिब दलित काल ॥ ४ ॥ प्रतिभावनांग जय २ वरेण, जय वसुविध कुसुमार्चितसुरेख प्र ( वक्ता ) इति दर्शनवर्ग भावन्दिसर्ग, दर्शन मिष्टमनिष्ट हरं I सुमनः सन्पुख, शर्म निकुञ्ज, सव्य जनाय ददातु बरं ॥
दर्शनाय महा
ॐ
पंचाति राति तं प्रपूतं, सद्दर्शनं रत्नम
मुक्ताः श्रेणिगताविभाति नितरां
यत्संसार
||
पन्चप्रदं पंचम बोध हेतु ।
भक्तया सुरत्नैर हमर्चयामि ॥ रत्नाञ्जलिं क्षिपेत् ॥ यत्रस्फुरत बसा,
येनालंकृत विग्रहं गृहमुचं सिद्धयंगात्रति LI महाचे भवभृतां दुष्प्राप्याम पृच्छतः
सम्यक्त सुरनमर्चितधियां, देयादनिद्य पदं ॥ रत्नांजलि देवात् ॥ मालिनीछंदः=अतुल सुख निधानं, सर्वकल्याण बीजं, जनन नलधिपोतं मन्यसः बैक पात्रम् दुरितकरू. कुठारं, पुरामतीर्थ प्रधानं, पिचतुजिन विपचं दर्शनाख्यं सुधाम्बु
इत्याश्रीषद
१३६
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४०॥
॥ अथ सम्यग्ज्ञान पूजा ॥ प्रसम्य श्री जिमाधीश,-माशं सर्वसम्म । सम्या महारत्न या पक्ष्वे विधानतः । १ । श्रीजिनेन्द्रस्यस विम्य,-भुत्तरेस महाधियः । पुस्तक स्थापनीयं चेत्तस्यैवादर्शमध्यमम् ॥ २ ॥ कल्पनातिगता घुद्धिः परमाव विभाषिका । ज्ञानंनिश्चयतो ज्ञेयं, तदन्यदव्यवहारतः ॥ ज्ञानाचारोऽष्टधासा, पवित्री करण चमः । प्रभावेन तु पूजाय समागच्छतु निर्मलः ॐ हां ही हूँ ही हअष्टांग सम्यग्ज्ञानाधार अत्रावतरायतर स्वाहा ॥ बाहाननं ॥
सम्यग्ज्ञान प्रभापूत, कर्म कर क्षयानल । पूजा क्षणेतु गृहणातु, स्थिधा (जामनिन्दिताम् । ॐ हां ही हं हो हअष्टांग सम्यमानाचार अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ वाहा ॥ प्रतिष्ठापनं ॥ अचिन्त्यमाहात्म्यमचिन्त्य वैभवं, भवार्णवो सिरि सर्वनः ।
प्रबोध चारित्रमिहान्तरान्तरं निरंतरं तिष्ठतु सभिधौमम ।। ॐ हां ही हू छौं : अष्टांग सम्यग्ज्ञानाचार अनमम सन्निहितो मत्र भन्न वषट् । सन्निधिक ॥ शरदिन्दु समाकार सारया जल धारया । बोसव समाचार, संयजे संयजावहम् ।। जलं ॥ १ ॥ कपूर नीर काश्मीर मिश्रसच्चन्दननैः । बोधतःव० । चन्दनं ॥ २ ॥ अखण्डैः खंडितानेक-दुरितैः शालि सन्दुलैः । रोधतत्व० ॥ अक्षतं ॥ ३ ॥ शतपत्रशतानेक चारू चम्पक राजिभिः । तव । पुष्पं ॥४॥
॥१४॥
-
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१४१
न्य बैरिव जिनेन्द्रस्य सानायैः शुद्धिकारिभिः । वोधतत्व० ॥ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ चञ्चत्काञ्चन संकांशः दीपैः सदीप्ति हेतुमिः : बोधतत्व० । दीपं ॥ ६ ॥ कृष्णागुरू महाद्व्य, धूपैः संधूपिताशुमैः । बोधतत्व० ॥ धूपं । ७ ॥
पूग नारिंग जम्दीर मातुलिंगफलो करैः । योधतत्व . • फलं ॥ ८ ॥ वसंततिलकाच्छंदः-मोहाद्रि संकट तटी विकट प्रपात, सम्पादिने सकलमत्व हितकराय ।
बोधाय शक शुभ हेतु समप्रमाय पुष्याञ्जलिंप्रविमलाह्यमवारयामि ॥ अर्ध ॥ सुव्यजनैाजत व्यंगभाउ, प्रभावना मारित भात्र वृद्धय
सुदुलेमायामर पजिताय, प्रयोधतवाय नमोस्तु तस्मै । ॐ हीं व्यञ्जन व्यजिताय इदं जलं गंध पुष्पं अक्षतं नैवेद्य दीपंधूपं कलमित्यायधं ।। १ ।।
पदार्थ सम्बंधमुपेत्यनीतः समग्रतामग्रपदप्रदायि । सुदुल० ॥ ॐ हीं अर्थ समग्राय इदं जलं गंध मित्याधर्ष ॥ २ ॥
शब्दार्थ श्रद्धान विधानमान, येन बन्धं सुनिबंधनेति । मुदुर्ल० ॥ ॐ ह्रीं तदुमय समग्राय इदं जलं गंवमित्याअर्ध । ३ ॥
पत्रिकालाध्ययन प्रभाव प्रदर्शितानेक कला कलापं । सुदुर्लभा. ॥ ॐ ह्रीं कालाध्ययन पवित्राय इदं जलं गंधमित्याद्यधं ॥ ४ ॥
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।१४२||
समृद्ध शुद्धोपधि शुद्धमिद्ध', सुभावमंतः स्फुरदङ्गराङ्गम् ॥ सुदुर्ल० ॥ ॐ हीं उपाध्ययनोपहिताय इदं जलं गंधमित्याधर्य ॥ ५ ॥
निनीत चेतो क्तिनोतिनीति प्रणीतमानन्त्यमनन्त-१म् ॥ सुदुर्लभा० ॥ ॐ ह्रीं विनय लब्ध प्रभावनांगाप इजं जलं गंधमित्याधर्ष ।। ६ ॥
अपन्हुते निन्हुति तो गुरुणां गुरु प्रमाणेपिस्तान्धकारः । सुदुर्ल० ॥ ॐ हीं गुवंध्ययनानप व समृद्धाय इदं जलं गंधमियावर्ष ।। ७ ।।
अनेकधामान्यवितानवद्ध प्रभावितानंतगुणं गुणानां । सुदुर्लः ॥ ॐ ही बहुमानोन्मुद्रिवाय इदं जलं गंधमित्याध्य ।८ ॥
सौरम्याहतसद्भग, सारया जल धारया । न्यञ्जनाधमनागानि संयजे जन्म विच्छिदे ॥ जेलं ॥ १ ॥ चाल चन्दन काश्मीर कपूरादि विलेपनैः । व्यंजना० ॥ चन्दनं । २ ॥ अवतरक्षानंत सुखदान विधायकैः ॥ व्यञ्जनाः ॥ अक्षतं । ३ ।। जाती कुन्दादि राजीव पम्पकानेक पश्लवैः । व्यञ्जना० ॥ १ ॥ ४ ॥ खाद्यराद्य पदैः स्वाद्यः समाज्यैः सुस्तरिय ॥ व्यंजना० । नेवेद्य ॥ ५ ॥ दशाः प्रस्फुरद्रयाः पुण्य जनैरिव । व्यंजना० ॥ दीपम् ।६ । धुपैः संधूपितानेक कर्मभिधूपदायिनां व्यञ्जना ॥ धूपम् ॥ ७ ॥
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२३1
मालिकेराम्रपूमादि फलैः पुष्प फलैरिक । व्य... ॥ फलं ' ८ ॥ जलगंधाक्षतानेक पुष्प नैवेद्य शालिना ॥ व्यंजना० ॥ अर्घ ॥ ||
मोहाद्रि संकट तटी विकट प्रात, संपादिने सकल सत्वहितंकराय । बोधाय शक्र शुभ हेति समप्रभाय पुष्पांजलि प्रविमला यवतारयामि ।। पुष्पांजलि क्षिपेत । जाय । कुर्यान । ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय नमः । १। ॐ ह्रीं व्यंजन व्यजिताय नमः ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं अर्थममाय नमः । ३॥ ॐ ह्रीं तदुभयसमग्राय नमः ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं कालाध्ययन पवित्राय नमः ॥ ५॥ ॐ ह्रीं उपाध्ययनोपहिताय नमः ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं विनय लब्ध प्रभावनांगाय नमः ॥ ॐ हीं गुर्वागनपहर समृद्धाय नमः ।। - : ॐ हीं बहुमानोन्मुद्रिताय नमः ॥ ६॥ एमिर्मजाप्यं कुर्यात, अघ अपि समुद्धरेत् ॥
॥ जयमाला ॥
।
सुग्धराच्छन्दः-व्योम्नीष व्यक्त रूपं, विमत घन मलं, मानि नक्षत्र मेक,
जीवाजीवादि तत्वं स्थगित गत मलं, यस्य दृग्गोचरस्थम् । तत्वज्ञः प्राथ्यते यत्प्रविपुलमतिभिर्मोत्तसौख्याय जज्ञ
समयाम्भोज मानु ललिस गुण मयि बोधमभ्यर्चयामि ॥ १ ॥ धन मोह तमः पटलापहरं, पम संयम संगम मार घरं । सुवि भव्य पयोज विकासमहं, प्रणमामि सुबोध दिनेश महं ॥ २ ॥
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१४४॥ ··
भृवभूरि भवार्णव शोष करं इतर दुर्जय काष्ट
कृत दुष्कृत कौशिक चार दरं निखिलामज्ञ वस्तु विकास पदं, कलिकमकर्दम शोष करंहृदयादव सर्पित कर्म जनं
जड़ता तम हारक सूर्य समं
सुमनोभव संग विभंगसमं
हृदयामललोचन लमितं
निजभासुर भानु सहस्र युतं
६
॥
।।
॥
अलि कज्जल नील तमाल तमं प्रति मद्धिक नाव निशापगमं ।
निज मण्डल मण्डित लोक मुखं, नत सत्व समर्पित सर्वसुखं ॥
|
॥
सुविच ३ ॥
भुवि● | ४ ||
||
भुमि०
सुवि० ॥ ६ ॥
भुवि
।। ७ ।
त्रिः ॥ ८ ॥
त्रिभः ॥ ६ ॥
यजामहं स्वाहा ||
चापिसमुद्धरेत् ॥
।
ॐ ह्रीं श्रष्टाङ्ग ज्ञानाचाराय इदं जलंगधं पुष्पं चततं चरू दीपं धूपं फलं स्तुति बहुधा स्तोत्र हुक्ति परायणः नाना मन्यैः समंश्रीमान संसार पाथो निधि शोष कारि, प्रबंध भूयिष्ठमनंत रूपं सज्ज्ञान रत्नं वहु रत्न भृगैः रत्नैः शुभैरविमर्चयामि रत्नाज्ञ्जलिः ॥ चिन्तामूल महादस्तदमल स्थूलस्थल स्कंधमा, नंगोपांग सदाग बैंक विसरच्छाखोपशाखान्वितः । एकानेकविधावधि प्रभृतिभिः सत्यत्र पुष्पैर्वरें देवाद्बोधवरु शिवः शिवसुखं न्यासे त्रितोऽनेकशः ॥ मालिनी छंद :- दुरित तिमिर हंस, मोतल सरोजं मदन जग मंत्र व मातंग सिहं । व्यसन घनसमीरं, विश्व तत्बैक दीपं विषय शकर जालं ज्ञानमाराघर
|| इत्याशीर्वाद ||
را
॥१४४॥
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११४५
॥ सम्यक् चारित्र पूजा ॥ देवश्रुत गुरुन्नत्ला कृत्वाशुद्धिमयात्मनः । सम्यक्धारित्र रत्नस्य वक्ष्ये संक्षेपतोचनम् ॥ १ ॥ सम्यक् रत्नत्रयस्याथ, पुस्तकं चोत्तरेणतु गणेश पादुका युग्मं, स्नपयित्वामहोत्सवे ॥ २ ॥ गोणं चारित्रमाख्यातं यत्सावध निवर्तनं । भानंद सान्द्रमानोरमा पवित्र परमार्थतः ॥ ३ ॥ त्रयोदश विधानेक भव्यलोकैक पावन । चारित्राचारकर्मेत फमलं विमल शिवः ॥ ४ ॥ ॐ हाँ ही है हौं हुः त्रयोदश विध सम्यक चारित्राचार अनावतरावतर स्वा । स्थाप मोपरि पुराञ्जलिं क्षिपेत् । श्राह्माननं । विपर कर्म महाकुल पर्वत, प्रकट कूट विभञ्जन सत्तमः ।
य इह लिष्टतु जन्म भयान्तत्रिमल हारि चारित्र महामहः । ५६ ॐ हां ही ह ह्रौं हः त्रयोदश विंध सम्यक्चारित्राचार अत्र तिष्ट तिष्ठ ठः ठः । प्रतिष्ठापनं । सकल भव्य पयोज विकास कृत् प्रकटिभाखिल भार विभावका ।
__प्रवल मोह निशाचर पारहच्चरण मानुरूदेतुं मनोम्बरे ॥ ६ ॥ ॐ ह्रां ह्री तू ही हः त्रयोदरा विध सम्पचारित्राचार अनमम सन्निहितो भव भव वषट् सनिधि करणं ।
चारित्र यंत्र स्थापनम् ।।
॥१४॥
शरदिन्दु समाार सारया जलधारया ।
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५६
सच्चारित्र समाचारं संयजे संयजावहम् । जलं ॥ १ ॥ कर नीर काश्मीर मिश्रसच्चन्दनैर्धनैः ॥ सचारित्र० ॥ चन्दनं ।। २ . अखंडैः खंडितानेक दुरितैः शालि तंदुलैः ॥ सच्चाग्नि. ॥ अक्षम् ॥ ३ । शतपत्र शतानेक चारु चम्पक राजिभिः । सच्चारित्र. ॥ पुष्पं ॥ ४ ॥ न्यायरिय जिनेन्द्रस्य, सम्मायः पुष्टि कारिभिः । सच्चारित्रः । ॥ ५ । चञ्चकांचन संकाशैदोपैः संदीप्ति हेतुभिः । सच्चारित्र: । दीपं ॥ ६ ॥ कृष्णागुरू महाद्रव्यैः धूपैः संधूरिताशुभः । सच्चारित्र० ॥ धूपं ॥ ७ ॥ पूग नागि जम्बीर मातलि फलोत्करः । सच्चारित्र ॥ फलं ॥ ८ ॥ कर्माणि हि महारोगा नश्यन्ति यत्प्रयोगतः । सच्चारित्र० । अर्थ ॥ ३ ॥ प्राणाति पातपिरति, रुपं सर्वत्र तत्वतः । पूजयामि समीचीन, चारित्राचार मचित ।। १ !! ॐ हीं अहिंसा पूर्ण महाबतायानिधामीति वाहा ॥
असत्य विरतिप्राप्त परभागमनेकधा ॥ पूजया० ॥ २॥ ॐ हीं स य महाबतायाय० ॥
चैर्याधावृत्त धृत्तारमा, सर्वथा सुमनीपिणाम् ॥ पूजया० ॥ ३ ॥ ॐ हीं प्रचार्य महाबताया ।
ग्राम्य धर्म गिनिमुक्तं यद त्रिदशैरपि ।। पूजया, । १ ।।
॥१४॥
-
-
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________________
७।
Des
ॐ ही ब्रह्मचर्य महायतावान्यं ।
सर्व प्रथ विनिमुक्तमनेकाध संयुतं । पूजया० ॥ ५ ॥ ॐ ही अपरिग्रह महावतायाय॑ ।।
न समृग, सारया जलधारया । अहिसाबत पूर्वाणि तदंगाचियामहे ॥ जलं ॥ चारू चन्दन काश्मीर कपूरादि विलेपनैः । अहिंसा० ॥ चन्दनं ॥ अवरक्षतानंत सुखदान विधायकैः ॥ अहिसा७ । अक्षतं ॥ जाती कुन्दादि राजीव , चम्पकानेक पल्लवैः । अहिंसा० ॥ पुण्यं ॥ न्यायरित्र जिनेन्द्रस्य, सन्त्राज्यः शुद्धिकारिमिः ॥ अहिंसा० ॥ नैवेद्य' । चश्च'काश्चनसंकाशैः दीः सदिप्तिहेतुभिः ॥ अहिंसा० ॥ दीपं ।। धूपैः सन्धूपितानेक कर्मभिः धृपदायिनां ।। अहिंसाः धूपं । नारि केलादिभिः पूगैः फलैः पुण्य फलेंरिष । अहिंसाः ॥ फलं ॥ कर्माणि हि महारोगा नश्यन्ति यत्स्योगतः ।
सुचारित्रौषधायास्मैददामि कुसुमाञ्जलिम् ॥ अर्थ ॥ अमष्पं सर्व लोकमां यन्मनस्वनियामक
सभीचीनं चारित्राचारमचितं ,
।
1123
पूजयामि
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... १४८ ॥
ॐ ह्रीं मनोगुप्तये इदं जलं गंधमित्याद्यर्थं ॥
ॐ ह्रीं वाग्गुप्तये इदं जलं गंधमित्याद्य ॥ शरीराश्रवसंचार
ॐ ह्रीं राम उपद
ॐ ह्रीं ईर्ष्या समितये ॥
व्यापारजाने दोष संगविवर्जितं । पूजया० ॥
ईर्षातमिति संशुद्धमतिचार विवर्जितं । पूजयामि० ॥
ॐ ह्रीं भाषा समितये य
चतुविध महाभाषा शुद्ध संयम संगतं । पूजया ||
ॐ ह्रीं उषणा समितये ॥
*
परिद्वार विनिर्मलं
ॐ ह्रीं प्रतिष्ठापनासनितये श्र
IF
शुद्धि संशुद्ध, यत्प्रवृद्ध विभागतः । पूजया०
ॐ ह्रीं आदाननिक्षेषण समितये पर्व
यस्मिनादान निक्षेप स्पात संयम वृद्धये ॥ पजया० ॥
D
व्युत्सर्गेण विशुद्ध' कर्म व्युत्सर्ग कारणं । पूजया 11
5
सौरम्हृतसभुग सारया जलधारया
1
॥१४८॥
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. . १४६
मनोगुप्ति , अपूर्वाणि तदंगानि यामहे ॥जल । चारु चन्दन करमीर कपूरादि विखेपनैः ॥ मनोगु. ॥ चन्दनं ॥ अक्षरक्षतानंत सुखद न विधायकैः ॥ मनोगु० । अक्षतं । जाती कुन्दादि राजीव चम्पकानेक पल्लवैः । मनोगु० ॥ पुष्पं ।। खाधैगद्य पदैः स्वाय: सन्नाज्यैः सुकृतरिय ! मनोगु० ॥ नैवेद्य ॥ दशाग्रैः प्रस्फुरद्रुपदीये पुष्य जनैरिव ॥ मनोगु० ॥ दीपं ।। धूषः संभूपिनानक कर्मभिः सुख कारिभिः ॥ मनोगु० ॥ धूपं ।।
नाशिकेराम्रपूगादि फलैः पुण्य फलैरिव ॥ मनोगु० ॥ फलं ।। कर्माणि हि महारोगा नश्यन्ति यत्प्रयोगतः ।
सच्चारित्रौषधायास्मै ददामि कुसुमाञ्जलिम् ॥ अर्घ ॥
( जाप्य १३ कुर्यात) ॐ हीं अहिंसा पूर्व प्रयोदश विधि सम्यक्चारित्राचाराय नमः ॥ १ ॥ ॐ ही अपत्यविरत महावताय नमः ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं चौर्यविरत महाव्रताय नमः ।। ३ ।। ॐ ही मैथुनविरत महावताय नमः ॥ ४। ॐ ह्रीं परिग्रहरित महाव्रताय नमः ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं मनोगुप्तये नमः ॥६॥ ॐ हीं आगुप्तये नमः ॐ ही काय गुप्तये नमः ॥ । ॐ हीं ईया समितये नमः ३. ही भाषा समितये नमः ॥१. ॥ ॐ हीं एपणा समितये नमः
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५०'।
ॐ ह्रीं आदान निक्षेपण समितये नमः ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं प्रतिष्ठापना समितये नमः
। १३ ५
॥ एभित्र जप्यं कुर्याति ॥ श्रचापि समुद्धरेत h
|| जयमाला ||
च्छंदः नद्वेषो वृतिपरुसहशिकताने कघोरोपसर्गे,
यस्मिन्रागोपि नस्यान्मलय कुसुमं दीयते भक्ति माना ॥
पूजयाम्पाद रे
।
स्वर्णे जीर्णे तृणेत्रा, मवतिसमतुला, पुण्य पापायनेऽपि सम्यक् चारित्रमेतत्तदह मिडम हे स्वात्मानं योगिनो यस्माल्लभते शुद्ध चेतसः नमः समस्त साराय यानि कानि तु सौख्यानि जायन्ते तानिउदशात् दौर्गतानि तु दुःखानि यहते लभते नरः लोकालोक विभागात्मा यतः प्राप्नोति केवलं यच्छ्रद्धानान्नृणां जन्म सफलं सफलं भवेत् लक्ष्मी लोचन लक्ष्याङ्ग यत्वरोति नरं वरं । नमः सभ० ॥ चक्रिणां तीर्थ कतां येन्याति पदं नरः J नमः सम० ॥ नापरं किञ्चित् योगिनो योग जन्म कृत । नमः सम ॐ ह्रीं सम्यक्त्रारित्राचाराय
। नमः समः
। नमः सर्गः ॥
७ ॥
महा
।। १ ।।
स्त्रियामलविषे
२
"नमः समः ॥ ३ ॥
॥ नमः सम० ॥ ४ ॥
। ५ ।
६ ॥
2
६ ।।
*** १५०
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१
विधायेत्थं पना पूजां चारित्रस्य विशुद्ध धीः ।
करोमि पूर्ववत्स मर्यादिकमनिन्दितम् ॥ १ ॥ स्तुत्वेति बहुधा स्तोत्रं बहु भक्ति परायणः ।
नानामन्यैः समं लोके करोत्यानंद नाटनम् ॥ २ ॥
अलंकृतायेन सदाश्रयंति सत्साधकः सिद्धि वधूवरत्वम् ।
मालामुपक्षिष्य सुरन पूतां, चारित्र रत्नं परिपूजयामि | ३ || ॥ रत्नांजलिः ॥
अन्सलीन मलीमस प्रसर जिल्लीलोन्ल सत्केवलं,
लोकालोकविलोकन क्रमगुण, ग्रामक शुद्धिं नयत् ॥
नालंकृत विग्रहाः क्षयमपि क्षीणा नरानिर्मला ।
नर्मयं प्रतिपक्ष शाश्वत तमं, बन्दे ० चरित्रं च तत् ॥ ४ ॥ शिरसा सुधीः ।
गृह्णाति व्रतनिमुक्त: मुक्तये व्रत कारकः ॥ ५ ॥ अनंतानन्त संसार कर्म विच्छिति कारकम्
देया: संपदः श्रीमच्चरणं शरणं नृणाम् ॥ ६ ।। ॥ मालिनी ॥
विरम विरम संगान्मुख मुञ्च प्रपञ्च', विसृजमोहं विद्धिविद्धि स्वतत्वं
ततोऽपि गुरुणा दत्ता - माशिषं
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१५१५
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११५२||
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कलय कलय वृत्त पश्य पश्य स्वरूपं । कुरु कुरू पुरुषार्थ निवृतानन्द हेतोः ॥ ७ ॥
इत्याशीर्वादः । ॐ जयमाला * पत्ता-यणत्तय सारउ, भव्य पियारउ, सयलह जीवह दुरियहरो ।
मणियण गण महियउ, गुण गण सहियउ, मिच्छमोह मपणास करो ।। १ ।। पणवीस दोस वजिउ पवितु, अइयार रहिउ वसुगुण विजुत्त ।
___ अढगई णिम्मल विष्फरंति , जो तिरहं देवत्तण विलिंवि ॥ २॥ णारइयवि तिस्थयरा इदंति देव वि ए इन्दिय पर लहति ।
__जे मिच्छनिय सम्मत्त हीण, दालिद्दय सिय ते धणीण . ३ ॥ मइ सुय अवही एणपज्जयाण, केवलु वि कहिज्जइ मधयाण ।
___ अण्णाणे तिएणइ भण: जोइ, कुच्छिप मिच्छत्त जई होह । ४ ॥ वोभुव हिम्मल पवणुवि असंग, परि अजिउ विकण पर मुक्ति संग ।
लोया लोहाविजयउ रि. योइ बहु भयह जउ चारित्त होइ । ५ ॥ पंचाइ महन्वय सभिदि पंच, गुण्णाउ तिणि पय जिय अवन ।
पुण पचायार तिभेय जुन, मुखि धम्म कहहि देविषद युत्त ॥ ६ ॥ पत्ता-जिहिं तिपरिण लिएर चिरू, गहणमुणे मुइ, अधउ आलस उपगुलपि । ___ जिणवर भारियः तिषण तरह विणु, मुत्तिण भएणड गण पह वि : महाई. ।'
%D
॥१५॥
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-१३।
इन्द्रवजा=दुरंत संसार वने विषण्णे, यम्भ्रम्यते येन विना जनोयं ।
भवाम्बुधौ तद्भुवि नामरत्न, रत्नत्रय नौमिपरं पवित्र ॥ १। अलक्ष्य लक्ष्य प्रतिबंधभेदी, योगीश्वरो यद्वशतः चणेन || भवाम्बु० ।। २॥ अनेक पर्याय गतेरभावाद्यस्मादनंतं लभते शरीरी । भवाम्यु० ॥ ३ ॥ जनोभवेने नजितान्तरंगं. स्वर्गापवर्गामलसैख्पखानि । भवावु ॥ ४ ॥
नारकं दुःखमसह्यमरमादुपातकानां विलयं प्रयाति । भवाम्बु० ॥ ५ ॥ प्रभावतो यस्य पृथग्जनीयाः; स्वर्गाधिपत्यं तणतो लभते । भवाम्बु. ॥ ६ ॥ हत्या विघ्नानि सर्वाणि यानि कानिपुर। कृतैः ।
सम्यरत्न त्रयं पूतं, मंगलं वितनोतु वः ॥ ७ ॥ नरामर कृतानेरुपसर्ग निवारकः । सम्यमत्न. ॥ ८ ॥ विप संपति नाशाय संपत्संपत्ति शरणम् । सस्यरत्न. ह ॥ तुष्टि पुष्टि कर नित्यं, सर्व रोगापहारकं ।। सम्यरत्न. ॥ १० ॥ यद्दारिद्रय महावन्ली दहनैक दयाननं : सम्यग्रत्न || ११ ।। संकल्पि कल्पितानेक दान कप ट्रमोपमं । सम्यगत्नः । १२ ।। यद्भाः शुद्धि सामान्यं, दुर्लभं द्रश्य कोटिमिः ।। सम्यग्रतः ॥३॥ मंगलानां हि सर्वेषां, यदेवामल मंगलं, सम्यगन. ॥ ११ ॥ दुभिक्षादि महादोष, निवारणं परापर, कुर्वन्तु जमतः शांति, जिनश्रुत मनीरः ॥ १५ ॥
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४५४.
सम्यक्सं पूजकानां हि प्रयच्छेत्यनव पदं । कुर्वत ० यस्य स्मरणमात्र विघ्ना नश्यति मूलतः पदार्थान्भवे प्राणी यत्यासादे प्रसीदतः । दृष्टाः पृष्टाः स्मृताः संतो येनंतमुखदायकाः नेपालयका निलां, नजेपास्त्रिदशैरि कुर्वस्तु सिद्धा बुद्धा विशुद्धा ये प्रसिद्ध जगतो त्रये । कुषंतु ० ॥ नानागुण माला-लंकृता निरलंकृताः 1
15
कुर्वन्तु जगतः शांति जिन श्रुत भुनीश्वराः
॥ १६ ॥
। कुर्वन्तु ॥ १७ ॥
कुर्वन्तु •
"
॥ १८
। कुर्वन्तु०
॥ १६ ॥
२० 小
२१ "
त्रिपथगा यमुनानघनर्मदा, प्रभृति पुण्य जलाशयजैर्जलैः
॥ २२ ॥
विसर्जन मंत्र
* सप्तऋषि पूजा
श्रीमद्गन्द्र हिमन्मुख निर्गताया, धुनि प्रसरिति चारू विनिर्गतायां, स्नाताननेक विधि धर्मं वरंगिकायां योगीश्वराननवरत्नधरान्समर्थे ॥
ॐ ह्रीं दक्षिण योगीन्द्र स्थापनार्थं सुमनाञ्जलि क्षिपेत् ।
॥ श्री दक्षिण योगीन्द्र पूजन प्रतिज्ञा ।
।
सुजन चित मधुत्रत रंजित, गुरू पदाम्बुज युग्ममयजे । जलम् ॥
✰✰✰ ।।१५४०
.4.
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सुरभिताखिल दिछभुख नंदन प्रभव चंदन सौरभहारिभिः ।
परिमलो कट कुकुम चंदनैश्चरणयोगुरू पूजनमारभे ३ घन्दनम् । विगत खंडमधवल प्रभैः कमलबीजप्रपितामतः ।
अति नरिव पुण्यलवैभजे, पुरूवरांघ्रि सरोजयुगं शुभम् ॥ अक्षतं ।। विकसनोत्तमवासविलमितरविकृत भ्रमरालि निसेवितः
शुचितरैः कुसुमैरहमादरात्-परिचरामि पदे परमं गुरोः ॥ पुष्पम् ।। पुस्ट मंडन भाजनगैः शि, श्वरूपतिपूर सुपरितः ।
____ अमृतजैरिज पिंड चयजे, बुनियर क्रम पंकजमुत्तमम् ।, नैवेद्य ॥ मदित सुप्रभयोत्प्रभतारका-बलिकयेष सुदीपक मालया ।।
अरूण गगनरवांशुसमुज्वलं, परिचरेभ्युज पाद युगं गुरोः । दीपन् । अविरलैप धूरकशानुज, गगनजैर्वर धूप समुच्चयैः ।
अगुरूजैहरिचंदन गधिमिर्गतिपते पदवारिजमर्चये ॥ धूपम् ॥ नयन भृग महोत्सव कारिभिः परिषतैः सुधयैव विनिर्मितः
मधुर चित्ररसैविविधैफलैः कृतमनो विनयं जयमर्चये ॥ फलम् ॥ विद्या सागर पार दर्शन बराः; काष्ठान्वयोद्योतिनः ।
स्वानंदं परमंगताः कृततपो-ध्यानाः कृषाम्भोधनाः ॥
॥१५५॥
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१५६॥
येव प्राक्तनकर्म दाव दहने मेयामहेन्द्राभि
कीर्तिमामनुकंपयंत पुरवा, पुष्पाञ्जलिः प्रार्थिताः
॥ अथ वाम योगीन्द्रार्चनम् ॥
योमार्यमोदय चलेन नित्य रं. मोहान्धकारमखिलं नयनानुरोधं यैः संयतः सकल वस्तुमयो हि लोको, दृष्टस्वदंघ्रियजनं ह्रीं वाम योगीन्द्र स्थापनार्थ पुष्पाञ्जलि क्षिपेत्
परम
|
||
दक्षिण योगीन्द पूजा
॥
मत्रकुर्वे ॥
॥ श्री बाम योगीन्द्र पूजन प्रतिज्ञा ॥
गंधमनोहर शी करेत्याद्यष्टकं देणं ॥ इति बाम योगीन्द्रपूजा प्रथमः सुर मन्युश्च श्रीमन्युर्हि द्वितीयकः 11
"
अन्य श्री निचयोनामा तुरीयः सर्व सुन्दरः ॥ पंचमो सप्तमो जय मित्रारूपः सर्वे चारित्र सुन्दरा: i
चारणद्धि समदाः वभ्रुवुर्वे मुनीश्वराः स्थापयित्वा प्रपूम्येहं तान्मुदा शांति हेतवे ।
!:
इत्युच्चार्य लिखितनां सप्तर्षिणामुपरि कुकुक्षतानि वित्ि ( उक्त श्लोक पढ़कर सप्त ऋषि की स्थापना के लिये पुष्प तथा अक्षत क्षेपण करें )
जयवान् शेयः षष्ठोविजय लालसः
।। १५६ ।।
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ना५५७I
॥ अथ प्रत्येक पूजा ॥ श्री सत्सुचारित्र विभूषितंय, तपोनुभावावत व्योममान ।
भत्र संख्यकानां समाह्वयेत सुरमन्यु संज्ञ! ॐ सुरमन्यूषे अनावतरातर संघौषट् । श्रन्न तिष्ठ तिष्ठ उ उ. यापन ।
अत्र मम सन्निहितोमव २ वषट् सन्निधिकरणम् । ॐ ह्रीं सुरमन्यु ऋषये अलम् । गंध, इत्यादि सर्वत्र प्रयोज्यं ॥
इस प्रकार ही इत्यादि मन्त्र पढ़कर अलग २ आठो द्रव्य चढ़ावे । एवं आगे भी इसी प्रकार सातों ऋषियों की अलग २ स्थापना कर के मन्त्र पढ़ कर आठों द्रव्य बढ़ावे । नैकद्यतो यस्य भूव लोको, निरामय सत्यतपोधनस्य ।
___ श्रीमन्यु रियाख्य तथा द्वितीय, तमाह्वये शांति करं नराणम् !! ॐ ह्रीं श्रीमन्य ऋपये अनावतरबतर इत्यादिना स्थापनं । ॐ ह्रीं श्रीमन्यु ऋषये जलं इत्यादि । ध्यानाग्निदग्धाऽशुभकर्मकक्ष, नि: संगवृत्त हुशील पात्र।
प्रान बुधानां सुखदं प्रजाया, आरोग्यये भीनिचयं तृतीयं ॥ ॐ ह्रीं श्री निचय ऋये आत्रावतरावसरेत्यादिना स्थापनं । ॐ हीं श्री निचय ऋषये जलाभित्यावश्यक देयं ।।
११५
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-१५॥
अनेकथा संयम तोयसकैरतपो नगो यस्य सुधर्मशास्त्र ।
___ आर्षेः फलैः संकक्षितस्तुरीय, संस्थापये सुन्दरमादि सर्वम् । ॐ ह्रीं सर्व सुन्दर ऋषये अनावतरा बतेरत्यादि । ॐ ह्रीं सर्व सुन्दर ऋषये जलमित्याइष्टकं देयं ।। चो यदीयं बहु भन्यसंघ, प्रमोदयामासजिनेशमार्गे
ऋषि गणेश गमनेत्र निष्ट, सः पंचमःसंशयवान ऋषिणाम् ॐ ह्रीं जान ऋषये अबावतरावरेत्यादि ॐ ह्रीं जयवाः। श्ये जलमित्याबदक ६ । मेधागमे यो मथुर। नगर्यो, न्यग्रोधमूलेसह परमुनीन्द्रः।
___संस्थाप्य रम्याम्बर धारणचि संस्थाये वैश्यलालसं तं ॥ ॐ की विनयलालस ऋषये अत्रावतात्रतरेत्यादि० ॥ ॐ ह्रीं विनयलालस ऋषये जलम् । इत्यादि अष्टकं देयं । यन्नामतो माथुरसर्व लोको, विमुच्य रोगान् बहु दुःख देयान् ।
सुखी हृषीक बहुधा प्रपद्य, रमेव शान्त्य जपमित्र संज्ञ ॥ ॐ हीं जयमित्र ऋषये अवावतराक्तरेत्यादि । ॐ हीं बयमित्र ऋषये जलम् इत्याद्यष्टकं ।
॥१५॥
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के समुच्चयाष्टकम् ॐ अंभोभिरंभो जयरागमि, रोते बसु यहनित्समानः
अमर्त्य मंथादि मनीश्वराणाम् प्रक्षालयामो यरपादयमा ॥ ॐ ही सप्तर्षिभ्यो जलम् यजामहे म्वाहा ।' सुचन्दनैश्चन्द्रगतैश्चशीतैः अपीश्वराणां वचनानुगीतैः ॥ अमर्थ मं० । चन्दनम् ।। ब्रह्माक्षत निम्तुप धौनरम्गः, नासाक्षि सौद्गत्यकरैश्चदीर्धेः ॥ श्रमप्त ॥ अक्षतम् ।। तपः प्रभावाजितकाम त्यक्तैर्गवानुमोदैरिव पादलग्नः ।। श्रम ॥ पुष्पम् । त्यक्त यतीशैरिवसपिपूर पूर:स्थितं भाति रसः समृद्धम् । अमर्ताः ॥ नैवेद्यम् । तपः प्रदीप्यैव विनिर्जितायौ, प्रदीपिका सेवितुमागतांस्तान् । अमर्थः ॥ दीपं ॥ वैराग्य मावेन निवेषितायौ, मुनीश्वरैस्तानपिधूप धूम्नान् । अमर्ज) ॥ धूपम् ॥ श्रासादितारंग मुमोच मोचै रन्गैनून बहुमेद युक्तः । अमा० ॥ फलम् ॥ सद्धत्तामरत्न भूपण भृताः सत्संयतानां बराम् । इज्या सज्जल चन्दनाक्षत चौः पुष्पान संदीपकैः ।
धूपैर्दिव्यफलैसु भक्ति मनसो, वे कुर्वते तेनराः ।
सर्वोपद्रय व्याधिमेद रहिताः यान्त्येनसौख्यं परम् । अ । ॐ हीं सुरमन्यु ऋषये नमः। ॐ ही श्रीमन्यु ऋषये नमः । ॐ ह्रीं श्री निचय ऋषये नमः ।
१५
।
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१६०॥
ॐ सर्व सुन्दर ऋषये नमः। ॐही जयवान् ऋषये नमः। ॐ ह्रीं विनयलालस ऋषये नमः । ॐ हीं जयमित्र ऋषये नमः ॥ एभि मंत्र जाप्यं कुर्याचंचापि समुद्धरेत् ॥
( स प्रकार ७ जाप्य देकर अर्घ चढ़ावे )
॥ जयमाला ॥ ऋषिनिकर महं सारं, नाकेश्वर सकल सौख्य दातारं ।
ईज्ययति गुण हारं, निर्मलध्यानाग्नि दहति संसारं ॥ १ ॥ अयमनिराश, जित चित्तदोपातकर्मपाश ।
___ जय जयनिष्काम, संयत मुस्मन्यु सुसौल्य धाम । २॥ भावित सुभाव, निर्वाशित पीन समेश्वराव । श्री मन्युदेर, जयविहित दविश्वरस्ववर सेव । ३॥ श्रीनिचयनोसि, सुखदातानि मलगततमामि । नष्टानियेही, जय बोधिसतो मे देवदेही । ४ ॥ निखिलनतोसिः लोकैर्भवया जय तब तपसि । जनतापहानि, सर्भदिसुन्दर सौख्यदानी ॥ ५ ।। चारित्रनीर, विद्यापितकामानल सुधीर । जयवान 'पोश, जयमोह नाम दिपनाग विष ॥ ६ ॥ दुर्गोपसर्ग, दूरीकृत तर्पितमश्यवर्ग । तत्वार्थ भाव, बैनयलालम ज्य निरभिलाष ॥ ७ ॥ ज्ञानोध गेह वरचारणदिभूषित स्वदेह । नठोरोग, जय जय जय मित्र सुत्यक्त भोग । = ॥ वत्ता इति जयमाला, भक्ति विशाला, येक्टंति भरियणनगः ।
ते सविसुखसक्ता, गुण गण रक्ता, यातिसुख बहु विघ्नहराः ।। महाई ।।
॥१६॥
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६१
येषां संग समुद्र मुद् गठमाघाताचसंपूर्णितो. बंघो भूरि नरादि कालनिचिने सुत्कर्मणां क्लेशदे । तेभ्यो भन्यजना वयोधन चराः सप्तर्षि संज्ञाभृतो । नित्यं पुत्र कक्षत्र धान्य धनदा कुर्वतु वोमंगलं ।
इत्यापिर्वाद ॥ ॥ श्री अनंत व्रत पूजन विधान ॥ प्रणिपण मशाहीरं, हो ना नि :
___ अनंत व्रततत्वस्या, नंत सौख्यस्य सिद्धये ॥ १ ॥ पर्दशं तीर्थकरेषुबंध, समायाम्यत्र जिनेन्द्रवर्य ।
अनंतनाथ जित मोह मारं, चतुष्टयानंत विभूषितागं ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री रिषभ नाथ तीर्थ कर अत्र अवतर अनतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री रिपम नाथ तीर्थ कर अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ॐ ह्रीं श्री रिपम नाथ तीर्थ कर अब सम सन्निहितो भव भव अषट् । ( ऊपर का श्लोक पढ़ कर इसी प्रकार चौदहों पुजाओं में अलग २ भगवान की स्थापना करे )
॥ अनंत यंत्र स्थापित करे ॥ देव सिन्धु यमुनादि सज्जतः सुरमिवस्तु मिश्रितः ।
पानरमृतसौख्यदायकम् तीर्थ नाथ वृषभं यजाम्यहं । जलम् ।
॥१६॥
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-१६२॥
गंधलुब्ध मधुपैः सुचन्दनैः कुकुमाच घनसार मिश्रितैः ।
कुंद चन्द्र कर हार शुभ्र, स्तन्दुखैः सुरभि शालि संभवै । देव मानव मुनीन्द्र सेवितम् - तीर्थ नाथ
जन्म मृत्यु भवताप द्वारकैस्तीर्थमाथ वृषभ यजाम्यहं ॥ चन्दनम् ।
मालती कमल कुंद केतकी, पाटला बकुल चम्पकोदगमैः । काम क्रूजर निपात तोद्यतस्तीर्थ नाथ
पायसाज्य घृत पक्व पूरिका, घेवरोदन सुशाकका न्त्रितैः पावनैश्चरुमिरिष्ट विद्धये, तीर्थनाथ
कर्म काण्ड
मोहतास हरैः शिखोज्ज्वलै-रचंद्रति घृत तेल निर्मितैः । दीपकै विमल वलीश्वरम् तीर्थनाथ
दहने
हुताशनं, चंदन | गुरुसुधूपधृकैः । गंध व्याप्त दश दिक्प्रदेशकै तीर्थ नाथ
}
मोच चोच कदलो माधवी पूगविर्मंट सुचतत्फलैः । नासिका नयन चित्त तोदे, तीर्थ नाथ
1
. अक्षतम् ॥
॥ पुष्पम् ॥
।। नैवेद्यम् ॥
॥ दीपम् ॥
"
धूयम् ॥
फलम् ॥
पानीय चन्दनवरोद्रगम तन्दुलो, नैवेद्य दीप शुभ धूप फलार्घ पादैः ॥ सं पूजयामि वृषभं जित मोह मल्लं श्री नाभिराज तनुजं जयकीर्ति धारम् || अ॥
२।१६२ ।
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A
११६३:
1
1
जयमाला • रिपम जिनेन्द्र गतभवनन्द्र', सुर नर पूजित पद कमलम् ।
मानाचा मुख शिस्टर, मनः सुसिद्धय गुण विमलम् ॥ १॥ भुषि पाप तमो भव बाल दिनं, भुत्रनत्रय पूजित षाद जिनं । वृषभं प्रणमामि जिनेन्द्रबरं, शिव सौख्य सुधारस पान करं । २ ॥ शतपंचक चापसु दीर्घ तनु, शुभ लक्षण हाटक वर्ण तनु । वृषभंत, ॥ ३ ॥ नृप नामि कुलाम्बर चन्द्रनिर्भ, मरू कुधि मसुद्भव रत्न विमं वृषभं ॥ ४ ॥ धन देव विनिर्मित कोष्ठसमं, जिनकांति विनिर्मित तिग्म विभं । वृषभ, .. ५ ॥ शत शक समचिंत पाद जं, रख भूमिनिपातितमानस । वृषमं० ॥ ६ ॥ वचनामृत सर्पित भव्य जनं, गगनांगर दुभिनाद धनं । वृषभं ॥ ७ ॥ निज दर्शन जीव कुवैरी हरं, शत योजन सौम्य सुभिक्षकरं । पृषभः ॥ ८ ॥ अतिमायिनमानव देव भरं, भुवनातिग संस्थित मुवितवरं । वृषमं. ॥ ६ ॥ पत्ता-जय वृषभ जिनेन्द्रं ध्वनिधन केन्द्र, जन्म जरान्तक मय हरणं ॥ त्रिभुवनमणि भूषं, गतपर दुषः जयकीर्ति विद्धि हि शरणम् ॥ १० ॥
॥ श्री अजित नाथ पूजा ॥ त्रिपथगामृत सागर वारिया, सुरभिवस्तुसु शीतल कारिणा ।
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जनन मृत्यु नरामय हारिणा, परियजे ऽजितनाथमहं श्रियैः ॥ ज लम् ॥ प्रचुर कुकुम पंक विमिश्रित, मलय पर्वत संभव चन्दनः ।
विविधताप रै भुवनाधिपं, परियजे....... || चन्दनम् ॥ सुरभि शालिन दुल पुंजकैः कुमुद, बन्लमहार हिमोज्ज्वलैः
मक राशनकारनाधिपं, परियजे....... ॥ अक्षतम् ॥ विकसिताब्ज सुकैरवमल्लिका, बाल चंपक मोगर पुष्पकैः ।।
मधुर गंधसमाहृतपट्पदैः परियजे..... ॥ पुष्पम् ॥ कटक धेवर मोदक परिका; बहुल पायस गव्य बरोदनैः ।
नयनचित्तहरैमरैनः परियजे....... | नैवेद्यम् ॥ शशि दिवाकर घामसमानकैः, परमकांति तिरस्कृततामसैः ।।
सुघनसारविनिर्मित दीपक परियजे ....... ॥ दोषम् ॥ अगुरू चूर्ण सु चनदन धूपकैः विगतघूमसु पावक संगतः ॥
सजन नीरद पंक्ति समानकैः, परियजे....... ॥ धूम्म् ॥ क्रमुक जंभल निम्बुक चोचकै, प्रमुख कानन मध्य समुद्भवैः ॥
सुरभिपक्व फलैनयन पियैः परियजे० ..... । फलं ॥ विमल सलिल धारा, गंधपुष्पावतोधैः,
विविध चरूमिरूद्दीय धूपैः फलोः ।
॥१६४॥
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६५॥
अजित जिनवरेंद्र पूजयाम्यदानैः
सकल विमल वो भी याद्यांत कीर्तिः ॥ ॥ अर्ध ॥ || जयमाला ॥
त्रिगत मल कलंक, विष्टपेशं विशंकं,
धृतं चरण सुभारं प्राप्त संसार पार
इव मदन मदेभं स्वीकृतापेन्द्र शोभं,
"
केवल नयन विलोकित अजित विजित कर्माहि समूह बन्दे सुनुतसु सुर sararte भस्मी कृत कामं, शरणागत केवल विश्रामं
विनमित सुरनाथं, कीर्तये लोक नाथं ॥ १ ॥ लोकं, ध्वस्त पापरिपु जनित कुशोकं
नर व्यूहं
॥
rt
॥
प्रशम बाइक कठारं, निजम निर्जित परमत पोरं श्री जितशत्र महीपतिनुजं, विजयादेवी मोहित मनुजं गगनन्दोलित चामर वृन्दं शिरसि धृतच्छत्र र पधं । रत्नत्रय संयम शुभचित्तं मुक्ति वधूरल लिप्त सुचित्तं । [यजित सूर्य कोटि भामण्ड भासं दयाकलानिधिमिमलाकाशं
I
1
॥ २ ॥
श्रजिता ॥ ३ ॥
"
अति० ॥ ४ ॥
[भजित० ॥ ५ ॥ व्यजित ॥ ६ ॥
॥ ७ ॥
faa. | = |!
वचनामृतवति गुणानं, मानस्तंभ दलित परमानं । चति ॥ ६ ॥
१६२
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4
आयुः सप्तति पूर्व सु लक्ष, संस्तुत साकेतापुर रक्षं ॥ अजित. ॥ १० ॥ मालिनी अजित जिनकस्योन्मुक्ति कांतावरस्य
विरचित जयमालां, भारपुष्पै विशाला । ___ पठति विमल भक्त्यायो जनः शुद्ध चेता,
स भवति भवमुक्तः श्री जयारत कीर्तिः ॥ पूर्षिम् ॥
॥ श्री शंभवनाथ पूजा ॥ गंगा क्षीराधितोय नि बचन समर्धमतापाप नोः ।
सद्यः तृष्णा प्रहारैः कलिमल हरणैः शुद्ध कपूरे गोरी ॥ श्रीगोज्जन्मदीदा, समवसृति सभा केवला लोककाले ।
____ सेव्यं देवेन्द्र वृन्दैः जिनपलिममलं संमवं पूजयामि ।। जलम् ॥ १ ॥ अन्तः पापाग्नोदै लयवन भर, चन्दनैः केशरायः ।।
___गंधाकृप्टेम कु भस्थल गत मधुपै, यपैयनराणाम् ।। श्रीगों० ॥ चन्दनम् ॥ २ ॥ शुभन्मुक्ताफलाभैहिमशशिकिरणोद्भासुरैः शुभ्रवर्णैः ।
प्रोबन्कुन्दावदानैः शकलविरहितगंधशालेयपुजैः ॥ श्रीगर्भो || अक्षतम् ॥ ३ ॥ मन्दारैः पारिजातैकुल कुवलयैश्चम्पकैश्चारुधैः ।
संतानै पाटलाद्य किलित कुसुमैः सिन्धुपारेरनिन्धः ॥ श्रीगर्भो ॥ पुष्पम् ॥ ४ ॥
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नव्यं गव्यैः पत्रिी श्वामिरतितो व्यंजनगंवद्भिः ।।
नित्यं नाष्पापमान, धनरम निचितैः सूपशाल्योदनःज्यैः .. श्रीगों. ॥ नैवेद्यम् ॥ ५ । कपूर बात नातेः किमुरवि किरणैः केवलज्ञान तुल्यैः ।
दोस्तान्धकारैः कनक मणिमयैः पात्रमध्याधिरूढः ॥ श्रीगर्भो० ॥ दीपम् ॥ ६ ॥ धूम्रः कृष्णागुरूत्थैः सुरपति कमलं शोघ माकृष्टुकाम
म्यद् भृगार नोये रिव पान वशात् प्रोच्छिचै व्योममार्गः । श्रीगौं । धूपम् ॥ मोचा चीचाश्रराजाइन पना समाधवी साजिगः ।
जम्बीराचोट पूगादिकमल निवहेमुक्ति कान्ता कुरामः ॥ श्री गो० ॥ फलम् ॥ पायोगन्ध प्रमूनाक्षत शुमचरूभिदीपधूपैकंबोधः । दूरीभूतोग्ररन्धं विविधरिपुजयोत्कीर्तये रत्नभूपं ॥ श्री गर्भो० ॥ अर्घ ॥
ॐ जयमाला 2 चतुस्त्रिंशदतिशय, रप्ट प्रातिहार्यकैः ।
भूषितं संभवस्तौमि धृतानंतचतुष्टयम् ॥ १ ॥ निखिलामर पूजितपादकजं, व्रतकेशरि संहत कामगर्न ।
प्रणमामि भवोदधिनीरतरं, जिन संभवमंहः पुन्जहरं ॥ १ ॥ भवदुःख दवानन मेष जल, हतमोद महारिपु दुष्ट चलं । प्रणमामि• ॥ २ ॥
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१६८।
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अच्छाय निमेष सुदेवधरं, धृत शुद्ध सुसंवम भारवर ॥ प्रणमामि ॥ ३ ॥ नख केश विवर्धन संहितं, विविध िविभूषण संसहितं ॥ प्रणमामि ॥ ४ ॥ सकलामय वर्जित संवपुशं, कनकोजबतूर्यशतं धनुष ॥ प्रणमामि ॥ ५ ॥ सुशत्तोत्तर पन्च गणेश नुतं, सुर मानव चर्चित कीर्ति युतं ॥ प्रणमामि ॥ ६ ॥ वचनामृततोपित भव्य जनं, फच पुष्प सुपल्लव नम्र बनं ॥ प्रणमामि ॥ ७ ॥ भुवने कुमताख्यतमस्तरणं, विगताश्रय देह भृतां शरणं । प्रणमामि । ८ ॥ मालिनीछंद-परमगुण निधानं, कर्म बम्ली कुठार, ।
विभवनपति मेव्यां सर्व लोकप्रदीपम् ।। दुरित तिमिर मानु संभवं संदघेहं ,
मनसि विगत सेव्य, श्री जयाद्यत कीर्तिः ॥ ६ ॥ पूर्घि ।
॥ श्री अभिनंदननाथ पूजा ॥ विविध जन्म जरान्सक शांतये, त्रिविधया मलया जल धारया ॥
शिशिरसीकर जालहतां हसा, समभिनंदन पाद युगं यजे. जालं ॥ प्रतिदिमैर्हरि चन्दन वर्षः पतितरगंधसुचन्दनी ।
असुर दारुचयेक विभावसु समभिः ........... || चन्दनं ।। २ ।।
-
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॥
८
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१६६।।
विलतदक्षत धाम लतांकुर प्रकर बीजमयः सितभाक्षतैः
___ रुचिकर भव दाहणता हरैः समभिः ..... ॥ अक्षतं ॥ ३ ॥ रतिमिवारचरिलिग्रज-मधुर मुस्लिर कैतरतामितः
बकुल चंपक मोगर पंकजै समभिः ...... ॥ पुष्पं० ॥ ४ ॥ वितुषशालिज भक्त मर्ने, श्चमिगचित पाचित संस्तुतैः ।
बहुविविमलेत पापनैः, सममि........ नैवेद्यम् ॥ ५ । महिगणैः प्रम याजिततारकः रिवसुरालयस्तिमिरापहै !
परिसर प्रसत प्रभदीप, समभि....... || दीपम् ।। ६ ॥ सुरपतेः नियमावनितु' उनादवनिवोऽम्बर मध्यगरिव
विततधूम्रभिषेणसुधूपकैः समभिपंदन....... | धूपम् ।। ७ । अमृतजैरिव रक्ष रसायनै शुभतमैर मोद विधायकैः
फसवफलवकल लब्धये, समभिनं.... .. । फलं ॥ = || सलिल चन्दन पुष्प सुतंदुनै-श्चरु सुदीप सुघरलोच्चयोः ।
प्रवरभक्ति चयोपहतेमुदा, समभि....... ॥ अर्घ ॥ ६ ॥
8 जयमाला धार्याछंद-अभिनंदनमबहार, भुवन त्रय वन्ध मौख्य दातारम् ।
नौम्युज्यल गुण थारं, ध्यानानक दग्ध संसारम् ।।
॥१६६।।
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विर्यध निसंघ विरोप विदोष, विकाय बिमाय तिोष विशोष ।
सुरोग्ग नेत्रसदाकृतसेव, जयाभिसुनंदन तीर्थ सुदेव ॥ १ ॥ विरोग विभोग वियोग विदेह, विपुत्र विशत्र विट्ठ त्रिगेह ॥ सुरोरग. ॥ २ । विमंत्र धियंत्र वितंत्र विगंध, विरोध विशोध विरोध विरंध्र ॥ सुरोरग० ॥ ३ ॥ विनेत्र वि मित्र विशत्रु विदार, विमृत्यु विभृत्य विनृत्य विभार ॥ सुरोरग." ४ ॥ विचित्त विवित्त विपस्त्व विमोह विशंस चिदंश विवंश । सुरोरम० ॥ ५ ॥ विभास बिपास विदास विलोक, विकेश विदेश विवेश विशोक !। सुरोरग० ।६।। विदान विमान विपान विगीत, विधर्म विकर्म विशर्म विमीत ॥ सुरोरग० ॥ ७ ॥ धत्ता-अभिनंदन जिनवर, पुक्ति वधूवर, नाशित कर्म कलंक भर ॥ जयकीर्ति सुस्त्राकर, धर्मदयाघर, जय जय भवजल नीरतर ॥ महा ।।
ॐ श्री सुमति नाथ पूजा ® सुरवास समुद्भुदैस्तायैः कपूर यासितैः ।
हेमभृगार नालस्थैः पुमति प्रार्चयाम्यहं ॥ जलम् ॥ १ ॥ सुगन्धद्रव्यसम्मिश्रे, श्चन्दनैर्मजयोद्भधैः ।
मृगाक्षवास घृष्टैरच, सुमति ...|| चन्दनम् ॥ २ ॥ अक्ष शालि संभूत रूज्वलेश्चन्द्र संनिभैः ।।
सुशप्रात्तालितसार, सुमति.....|| अचतम् ॥ ३ ॥
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११७०!
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केतकी पारिजातैश्चः चम्पकेश्चीम रंजुकैः । मन्द कुन्दोद्भवैः पुचैः सुमति
नानाविधैश्व पकान्नै, सद्यस्तन घृतोद्भवैः
"
विशिष्टै मोदकैः सुमति दीपेश्रभासरैः
हेमर
स्थानैः,
विपुला लोक कैदी सुमति
कृष्णागुरु मकै रम्यैः धूपैर्वासितदिङ मुखैः धूम्रपाना बिद्याषाढ्य, सुमति नारिकेलादि नारंगैः कपित्थैनपूरकैः । काफलैर्भयैः सुमतिं
नीरैश्चन्दन संयुतैः सुकुसुमैः शान्य क्षतैरक्षतैः । नानाज्यादि सुवक्व फलै, रब' तिये नित्यशः,
भावी धूप संयुत
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!! गुण ! :) !!
॥ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥
|| दीपम् ।। ६ ।।
॥ धूपम् ॥ ७ ॥
॥ कलम् ॥ ८ ॥
गंवसहितैः नैवेद्यसार ब्रजेः
1
स् वांछित प्राप्नुवंतिसततं जयकीर्ति चन्द्रोषितम् ॥ ॥
|| जयमाला ॥
राज्यं प्राज्य गजादिः कामकमला, गेहं तुरङ्गान्वितम्
यः श्रीमानमिरूप वस्तु निचितं त्यक्त्वाचित सर्वतः ॥
॥ १७२ ॥
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श्रामण्यं समनाप केवल मयं, ज्योतिः परं प्राप्तवान्,
हंगो हुमति प्रयच्छतुतरी तीर्थेश्वरः पोऽधुना ॥ १ ॥ गुण गण भूषितज्ञान करंडं, संसाराम्बुधितरणतरंउं ।
पन्दे प्रशमित कुनय समूह, सुमतिंप्रदलित कर्म समूह ।। २ ।। मर्भाधानेहरिशत सेयं, दिक्कुमारिकृतमातृनिपे । बन्दे प्रश० ॥ ३ ॥ मेरूशिखरकृतजनुरभिषेक, रोधः प्रसरित कीति निषेकं । वन्दे० ॥ ४ ॥ विभुवन जन नयनोत्पल चन्द्र, ध्यानाध्ययन विनिर्जित तन्द्रं ।। धन्दे० ॥ ५ ॥ रूधिर दुग्धचित धर्मसुशात्र व्यंजन लक्षण लक्षित मात्र ॥ सन्दे० ॥ ६ ॥ वज पभ नासच शरीरं, समचतुरस्राकार गंभीरं ॥ चन्दे ॥ ७ ॥ मलवर्तित सममात्र स्वरूपं, निस्वेदं ज्ञानामृत कूपं ॥ चन्दे० ।॥ फ्ट चत्वारिंशद्गुण गौर, कौसलपुर परिपूरित पोरं ॥ चन्दे० ।। || दुर्धर योग चरित्रसुधरणं, कृतसम्मेदाचल शिववरणम् ॥ बन्दे० ॥ १० ॥ मालिनीच्छेद-अनुषम सुखकर्ता, दःख संत बहता,
प्रहत जनन कालः, स्फोटित घटान्त जालः । स जयतु जिन नाथः पंचमः प्राञ्जितात्मा,
सकल विमल मृतिः, श्री जयायत कीर्तिः ।। महापं ।।
॥१७२
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१७३॥
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॥ श्री पद्म प्रम पूजा ॥ विलिम्प पति वाहिनी, प्रभृतितीर्थ म्यादको
सुरेन्द्र वचनोपमैः सुधनसार संवासितैः अमेयमहिमाकरं विकच पद्म भासा निधि
___महामिसुर सेवितं जिनवरेन्द्र पनप्रभं । जलम् । ११ प्रभूत मलयोद्भवै. सरस केशलि श्रितः
मिलिन्द निकरोद्भवत्सास राज्य कारकैः ॥ अमेय० । चन्दनं । २ ॥ तुपार हेम चुकास सिधरी श्रुकोजले ,
सुगंधश्न शानिज सुहिमुवित बीजाङ्कः ॥ अमेय || अद तम् ॥ ३ ॥ कदम्ब सुख मल्लिका बल कुद नीलोत्पलैः,
मेरू कुसुमोक”विकच सिन्धु वाराम्बुजैः । अमेय० ॥ पुष्पम् ॥ १ ॥ विराज्य परिचितै,घटक सूप शाल्योदनैः
क्षधामनिवार विमल हेम पात्रस्थिते. ॥ अमेय० ॥ नैवेद्य ॥ ॥ ५ ॥ दिगंत तिमिरापहै मिहिर कोटि राशी प्रभैः
प्रबोधनिकरैरिय स्फुरित दीप पनैः रन । अमेय० ॥ दीपम् ॥ ६ ॥ मिलिन्द मुख कारऔरगुरू संगधूपोद्भवै ।
रदभ्रगुरुधूपकै निचित सर्व काष्ठाम्बरैः ॥ अमेय० ॥ धृपम् ॥ ७ ॥
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0
॥२७४
रसाल फल कंदली मुक चोचराजादनः
महामधुर माधरी फल सु चित्तपूगर्दितः ।। अमेय० ॥ फलम् ।। ८ ॥ पयः सुरभिपुष्पकेश्वरूभिरक्षतै दीपकः । ___ फलेस्तुलधुपकै यति कीर्ति कीर्तितम् ॥ अमेयः । अर्थ ॥
॥ जयमाला ॥ पत्ता-जयवीर दमाकर, गुलरत्नाकर, मुखकर निर्मलशीस । जिनकमल दिवाकर; कलिमल हरजिन, पमपम शिव नारी बरं ॥ १ ॥ अजरामर केवलं लम्धिर, शिवतौरुष सुधारस पानकरं ।
प्रणमामि भवोदधिपारकर, मिनपनन विभासुर नादरं ॥ २ ॥ फ्मसंयम भावकमारघर, शनयोजनसौम्य सुभिवकरं; ॥ प्रणमामि० ॥ ३ ॥ कलि कल्मष पंक सुशौचबरं, भानार्जितगद्यसुवर्णव ॥ प्रणमामि० ॥ ४ ॥ निज भार भानु सहस्र रूवि, कृतदुर्धर काम का शुचिं ॥ प्रणमामि. ।। ५ ।। अभिमान महोरून तोदकर, मुखरस्न नदीपसारतरं ॥ प्रणमामि० ॥ ६ ॥ सविवेक गृहं हत मृत्युप्रदं, कुमतान्धतमोपहध्यानपदं ॥ प्रणमामि ॥ ७ ॥ कमलांकितसुन्दर देहधा, कमलापनि सेचित बोधभर ॥ प्रणमामि ॥ ८ ॥ हरि शकरपात सुदर्प हरं, हरिताप असंयम लब्धिवरं ॥ प्रणमामि ॥६॥
AVM
।
॥१५४
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शार्दूल विक्रिड़ितछर-विद्यासागर पार दर्शन परः काष्ठान्यो द्योतका,
स्वालानंद पयोधिमध्य विलसत्कन्लोलकेली करः । भास्वदिव्य पयोज कांति फलितः पयग्रमा समः ।
जीयाद्रनमुनीश दीक्षित त्रयो कीर्तिस्तुमः संततम् ॥ महा ।।
॥ श्री सुपार्श्वनाथ पूजा ॥ श्री तीरसागर सुरम्य तरण जातः भृगार सारमुख निजिव चारूतोय: ।
देवेन्द्र चन्द्र नुत पाद पयोजयुग्म, तीर्थकरें जिनसुपार्श्व मध्यजामि || जलंम् ॥ सदगंधद्रव्यपरिपूरिन चन्दनौयः, सन्कु कुमाभघनसार विमिश्रितागः ॥ देवेन्द्र, ॥ चन्दनम् ।। क्षीरोद बारिज समज्वल फेन कपैरिन्दु प्रभा निर निर्मल तंदुलो पैः ॥ देवेन्द्र " अक्षतम् ।। मंदार चम्पक पपोज कदम्म जातः पृन्दारक प्रथित वृक्ष विशेष पुष्पै ॥ देवेन्द्र . ॥ पुष्पम् । श्राज्य प्रपत्र घन चारूतरोद्यमोज्यैः, मदधैवादिभिरनीक विधानबुक्तैः ॥ देवेन्द्र • ॥ नैवेद्यम् ।। दीः सुहंसततिदीप्यभिधाम तुल्यैः अष्टापद प्रभृतिनिर्मितभाजनस्थैः, । देवेन्द्र० ॥ दीपम् । श्रीमगिरीन्द्र मलयोनचारुधूयः, गंधोरूमिहयभि समाहत पंट् पदोथै ॥ देवेन्द्र ॥ धूपम् । दाना फल प्रभुखदादिम मातुलिगः, कनाम्रपूग कदली फज नारिकेतः ।। देवेन्दः । फलम् ॥ - मार्ग धपुष्प शुभ तन्दुल मोज्यदीपैः, धूर्फजावलिभिरेव जयाधकीतिः ॥ देवेन्द्र अर्घ ।।
GNkor
॥१८१
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११७६ ।।
ॐ जयमाला
जिनेन्द्र शंकरं स्तौमि, सुपार्श्व नाम धारकम् ।
सुतरां सेवितं पार्श्व यत्पदं शिव सौख्यदम् ॥ १ ॥
त्रिभुवन पतिनुत चरण सरोज: ब्रह्मचयंजित सबल मनोजं । at Fatas लोन देहं केवलज्ञान सुधारत गेहूं ॥ १ ॥ नील वर्ण सुन्दर शुभकार्य, निर्जित मोह महारा वन्दे ० ॥ २ ॥ परम निरंजन कृतपदा, दिनकर कोटि तिरस्कृत मासं । चन्दे
Ca * ३ ।।
।
द्वादश गण धर्मामृत पोषं दिव्यध्वनि योजन शुभ घोषं लेश्यान्यान शुक्ल सुधरणं भव मीतानां निर्भय शरणं ॥ अष्टादश दोषैश्चत्रमुक्तं संख्यातीत गुणैः संयुक्तम् ॥बन्दै ।। ६ ।।
वन्दे ० ॥
५ ॥
"
बन्दे० ॥
पूजा (=) ॥
मालिनी छंद - अखिल गुण निष्टानं संयतानां प्रधानं, दुस्तितिमिरंहनं, मोह माया प्रणाशं । जगति जगति स मुनायेंग हारे, जिनवर वर नाथ श्री सुपार्श्व नमामि । महा
चन्द्रप्रभ
जिन
॥ श्री स्वर्ग सिन्धु दारणा, सुधाम गौर धारिणा
क्ति सौख्य कारिया, योपमृत्यु हारिया
४ ॥
1
॥१०६ ॥
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. . . ॥१७७||
निर्जराहि मर्यनाथ, सेवितांत्रिमष्टर चन्द्रभास मर्चयामि तीर्थनाथ मीरवरं ।। जलम् ।। १ ।। शीतलेन वदनेव, केशरेणवासिना,
गंध लुब्ध षट् पदेम, पाप ताप हारिणा | निर्जग. ॥ चन्दनम् ॥ २ ॥ पुष्यशालि बीनकै रिपात्रहारपाण्डुरैः
न्यशालि संसौरमण्ट कोटि तन्दुलैः । निर्जतः ॥ अक्षतम् ॥ ३ ॥ सिन्धु दार कलिका, पुण्डरीक मल्लिका ।
पारिजात केतकी, कदम्ब कुन्द चम्प । निर्जरा ॥ पुष्पम् ॥ ४ ॥ नव्व बव्य । तूप भक्त सक्त पायसः
यसनाध्य पूरिका सुमोद कादिभिर्वरः ॥ निर्जरा० ॥ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ दीपक मनात, निर्मितः शिंखोजले,
बामपात्र वजितैः सुपात्रमध्यसस्थितः । विजा ॥ ौपम् ॥ ६ ॥ अोम भाग संनतरनचे धृष धूम्रकै
नीरदालि समिमैः कुकर्म गर्म दाहयः । निर्जरा० ॥ धूपम् ॥ ७ ॥ कनकान नारिकेल मीजा की
गोस्तनी कपित्थ घुगराज भक्ष्य दाडिमः । निर्जरा० ॥ फलम् ॥ ८ ॥ और गंधपुष्पका सादि हुल्य दो ।
भूप धूम्र सत्फलैः बयाध कीर्ति सेवितम् । निर्जरा० । अर्घ । । ।
१७
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二
|| जयमाला ||
चन्द्रप्रभ जिन जय स्वमंशृतिमय जन्म जरादि पिचवरं । बन्दे शशिदेवं विगतसंदेहं सर्व जीव करुणा निकम् ॥ १ ।। जय चन्द्र चंद्रांशु व जय चन्द्रपुरी सुरवित्र करुण I
जय बज्र वृषभ माराच काय, जय दौर रूधिर वर्जित कषाय ॥ २ ॥ आदिम संस्थान निःस्वेद खैर, मल वर्जित तर्जित पुरुष बेद ।
जय जय रूप शुभ सतयांग, अमित वीर्य प्रिय वचन ॥ ३ ॥ अतिशय दस राजित सदी गाय, जय घाति कर्म दिनु विनय पात्र जय देव निर्जिता तिशपशेष वसुविधा भूषित सुदेश ॥ ४ ॥ सदनन्तचतुष्टय धरणवीर, जय सहख नाम सागर गंभीर
जय समंतभद्र सुख करणरूप, वारासि प्रणमित सकल नृप । ५ ।।
"
घसा - अष्टम तीर्थकर, पार तिमिर हर, चन्द्रप्रभ शशि कांतिधरं जय रक्त भूरा, भुवन त्रिदुषण, जयकीयें जय लचकरं । महार्थं ॥ ॥ श्री पुष्पदन्तनाथ पूजा ॥ ६ ॥
दुग्धाम्बुधि प्रमुख तीर्थं समुद्वैश्च तोयैः सुशीतल यः परिवः
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गीर्वाण सार नरनाथ मुनीन्द्र सेव्यं, श्री पुत्रपदंत जिननाथ महं यजामि । जलम् ॥ १ ॥
॥१७८॥
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श्री चन्द्र नैमलयभूधर संभवेश्च, काश्मीर चन्द्र मिलिरलि झंकृत ॥ गीयो० ॥ चन्दनम् ॥ २ ॥ श्री राज भोगवन शालि समग्र जाते . शी तन्दुल्लैर मृतफेन हिमाम् वर्णैः । गीर्वाण. ॥ अक्षतम् ।। ३ ।। संतान चम्पक नमेरू कदम पुष्पैः सौरम्परागमिनितालिकदम्बकैश्च ॥ गीर्वाण ॥ पुष्पम् ॥ ४॥ शाल्योइन प्रचुर गव्य नुनूप शाकै,-न्यून घेवर युतैश्च हविविचित्र । गीर्वाण० ॥ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ दीपोन्हौ स्तिमिर राशि शिना गटन: एम तिमणि भामुरांगैः ॥ गीवांग ।। दीवम् ॥ ६ ॥ कृष्णागुरू प्रमुखशुद्ध मुगंध द्रव्यैः धूपैर्विदीपित दिगंतर शुनदेशैः : गीर्वाण ॥ धूपम् ॥ ७ ॥ श्रीनारिकेल पनसाम्र सुधीज पूरैः, राजादनादि कदली फल दाडिमैश्च ।। गौर्वाक्ष । फलम् ॥ ८ | पानीय गंध कुसुमाक्ष त पक्ष हव्य: दीपैश्च धूप फलकै जयकीर्ति सेव्यं । गीर्वाा. ॥ अर्थ ॥ ६ ॥
॥ जयमाला। घत्ता-श्री सुनिधि शिनेन्द्रम् परमानंद, सेवित सुरनर वर मिकरं । ___वन्देऽहं गुण, त्रिभुवनजं, दीमज्ञान परिन करम् ।। १ ।। जगन्नाथ सेव्यं, जगदय पादं जगन्मित्र मान्यं, ताशेष साई ।
___ यजे भावशुद्धयान्वह पृष्पदंत, शुभैरष्ट द्रव्यैः शशिज्योति कान्त ॥ २ ॥ बिमोहं विशोकं विरोग विदेह, विमायं विकार्य विलोभं क्लेिहं ॥
महाधीर बीरं, महाबुद्धिरूपं, महाज्ञान भानु नरेन्द्रादि भूपम् ॥ ३ ॥ महाशीलधार भवाल्लब्धपारं, महानव्य हारं महाकर्म कारं ॥
1१७६
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महामेरू शिखरे कृतम्नानमानं, परदेव देवैः स्तुमध्यान मानं ॥ ४ ॥ समानंद रूपं सदानंत वीर्य, सहानंत साक्ष्यं सदानंत धैर्य ।
सदा सिद्धि याहं सदाकर्म दाई; सदा मोह भानु सदा कामराह ॥ ५ ॥ पत्ता-जय सुविधि स्वामिन शिवाद्गामिन् हरिहर चर्षित पदकसल जपकीर्ति सु जयकर, कलिमल चयहर, क्षीर नीरसम कीर्तिधर । महा !!
॥ श्री शीतल नाथ पूजा ॥१०॥ अभर सिन्धु समद्भव सज्जलैः. सुघनसार पराग घिमिश्रितः ।
परम पंचम बोध निधानक, दशम तीर्धकरं परिपूजये ॥ जलम् ॥ १ ॥ मलय भूधर संभव चन्दनः, सरस केशर चन्द्र सुगन्धितैः : परम ॥ चन्दनम् ॥ २॥ शशिकरामृतफेनसमानकैः, सुरभिशालि समुद्भर तण्डुलैः ॥ परम. ॥ अक्षतम् ॥ ३ ॥ परिमलाहृत षट् पद पंक्तिभिः यकुल चम्पक मोगर पुष्पक । परम. ।। पुष्पम् ॥ ४॥ प्रबल गयस गव्य सितान्वितैः, सुरभिभाजन मध्यसमाश्रितः ॥ परम ॥ नैवेधम् ।। ५ ॥ सघनसार समुज्यलदीपकैः, परिनिरस्कृत दिग्गज तामसै ।। परमः ।। दीपन ।। ६ ॥ अनल साहुत धूपसु पावकः, गगनमार्गगतैरलिझतैः ॥ परम ॥ धूपम् ॥ ७ ॥ फलसु चोच रसाल पुनिम्बु, प्रमुख दाडिम पक्ष फलैवरैः ।। परम, ॥ फलम् ।। ८ ।
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शालिनीच्छन्दः-नीरामोदै, पुष्पकैम्त दुलोवैः हव्यैदीय सत्कलैः धूप धूम्रः । पूज्य श्रीमच्छीतलंपूजयामि मोहाघ्निं श्री जयाच तकीतिः । अर्थ ॥३॥
जयमाला 8 आर्याचन्द- तिनोतुसुख ममूह, शीतलनाथस्तीथंकृता दशमः ।
वांच्छित फलप दध्यात् मन्यानांतीर्ण भव-सिन्धु । १ ॥ शीतलनाथं श्रीपति वंद्य, वन्देऽहीन्द्र नरेन्द्र विनन्यम् ।
नवति चापमित रम्य शरीरं, हेमरूचं गुण वृद्धि करी ॥ २ ॥ श्रीढ़ भूपति देहसुभूतं, मातृमुनन्दोदर परिसूतं ।
एक लक्ष पूर्णयुः सहितं, सम्मेदाचलगुक्ति सुमहितं ॥ ३ ॥ एकाशीशतगणपति राज, त्रिंशत्कोशसभाविभ्राजं । पता-जाय शीतल नाथः, पातकपाथः, भवज़ल तारण कर तरणं । जय भव भय भंजन, जनतासंचन, जय कीर्ते निश्चल शरणं । महा ॥
॥ श्री श्रेयांसनाथ पूजा ॥ ११ ॥ रथोद्धताच्छन्द-वधुनी प्रमुख तीर्थ सज्ज लै,- मिश्रित सुरभिवस्तु शीतलैः ।
पाचनरमृतसौख्य दायकम् श्रेयसः पदयुर्ग यजाम्यहं । जल ॥ १ ॥
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॥११॥
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२८२०
चन्दनैर्मलय भूधरो
केशराज्य घनसार मिश्रितैः काम कुंजर भद्दा मृगेश्वरं श्रयस
हार कुन्द कलिका समुज्जलें, पेशलेश कलशालितंदुलैः क्षीरसागर गंभीरमीश्वरं, श्रेयसः मल्लिकानल निकुन्द केतकी, पारिजात नव मोगरा । दिभिः तार्थ फल लब्धिहेतवे, श्रीयसः
घृतवरेन्द्र स्वादुकैः
नासिका नयन चित्त तोप, पूरिका पावनैश्चरूमिर संपदे शिखोज्वलैः दीपकैः सुघनसार
श्रेयसः
...... # नैवेद्यम् || ५ |
सूर्यधाम:
मिभितैः
देव नाग नर नाथ सेवितं श्रयमः पद ॥ दीपम् ॥ ६ ॥ हिसार गुरु धूप धूम्रके, व्याप्नुवद्भिरनुले नभोगणं । मोहनीय घनवल्लि वारणं श्रेयसः श्रीफला कदली सुमाधवी, बीजपूर परिपक्व निम्बुकैः । मोक्षरूपफलसिद्धिकारणं श्रेयसः
॥ ध्रुवं ॥ ७ ॥
I
|| चन्दनम् ।। २ ।
॥ अक्षतं
।। ३ #
पम् ॥ ४ ॥
॥ फलं ॥ ८ ॥
मालिनीच्छंद' - विमल सलिल धारा, गंधपुष्पाक्षतो, शुभचरुवरदीपैः धूपयुक्त फलोपैः सुखकर जिनश्रेयांसं यजे चार्धदानैः त्रिभुवन मणिभूपं, श्रीजयाद्य त कीर्तिम् ॥ अर्धं ॥ ६ ॥
१८२ ---
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·· ८३ ।
श्रेयान् दिशतु वः
श्रयो •
|| जयमाला ||
धर्मामृत पयोनिधिः
एकादशो जिनोध्येयः मुनीन्द्रोध्यान निश्चलः ॥
जय जिन श्रेयान् जिनदेव नमः, जबधीर कृता मर सेव नमः ।
जय सर्व कर्ममल रहित नमः, जय २ त्रिभुवनपति सहित नमः ॥
जय सकल गुणाकर वीर नमः, जयशुक्लध्यानधर धीर नमः ।
जय मदन दवानल मेघ नमः, जयनिराधार जन नाथ नमः ॥ जय गुण गणसेवित पाद नमः जय जलधर ध्वनिसमनाद नमः । aप सम्यकचारित धरण नमः ॥ जय पुण्यांमोनिधिचन्द्र नमः जय व्यक्त मोहमद माय नमः । कर्मकलंक दह दखाकुकुल मंडनं ।
जय कनक कांतिवर काय नमः प्रता— श्रयान् श्रयेोधः,
जयकीर्ति जयकृत, दुति तमोहत, पन्चेन्द्रियमन दंडनं ॥ महार्घ ॥ ॥ वासू पूज्य जिन पूजा ॥
शालिनी छंद - गंगा देवा सिन्धु तोयेंः, तृष्णा तापघ्नैरर्घदानानुभाजं ।
नित्यं दिव्य प्रातिहार्पाष्टकाढयं, तीर्थेशं तं वासुपूज्यं यजामि ॥ जलं ॥ १ ॥ श्री खंडेश्च कुंकुमाद्येरनिद्यः, मृगोदवृत्तेः करैश्चन्द्रकार्यः ॥ नित्यं दिव्य ॥ चन्दनं ॥ २ ॥
॥१३३॥ ---
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Swam
मुक्ताकारैस्तन्दुलैः सत्प्रशस्वैः कोटिबंदं संश्रितैः पेशलांगैः ॥ नित्यं दिय० ॥ अक्षतं ॥ ३ ॥ श्री संतान जसत्पारिजातः, देवद्र्णो गंधवद्भिः प्रसनैः ॥ नित्यं दिम्य० ॥ पुष्पं ॥ ४ ॥ दिव्यामोदैः प्राज्य नैवेद्यवधैः दिव्यद्योति गैध गापायमानैः ॥ नित्यं दिव्य० ।। नैवेद्य ॥ ५ ।। सन्माणिक्य बन्ध कपूर जातैः स्निग्धैदीयोति ताशाखिलांगैः ॥ नित्यं दिव्य० । दीपम् ॥ ६ । गंधोदार: धूप जालं बहद्भिः, व्याप्तधूपैः शुद्ध कृष्णागुरुयैः ॥ नित्यं दिव्यं ।। धूपम् ॥ ७ ॥ जंबीराम्रः कन नारिंग पूर्गः, पमिश्रः श्रीफलै बीज पूरैः ॥ नित्यं दिव्य० ॥ फलम् ॥ ८ ॥ शार्दूलविक्रिडित छंद-वागंधोद्गमतंदुः शुभ चरू, दीपैरव धूपैः फल.
रत्र्यदों विवर्जितं जिनवर, श्री वा पूज्य यो । काष्ठासंघ; सुरन भूषणपदद्वन्देऽलिचक्रोपमं ।
सरि श्री जयकीर्ति सेवित पदं, श्रद्धादिभक्तया मुदा ।। अर्घ ॥ ६ ॥
॥ जयमाला ॥ इन्द्रवज्रा च्छन्दः-श्री वासुपूज्यो विदधातु शांतिम् श्री, संघकस्येह सदा जिनेन्द्रः ।
चम्पापुरी प्राप्त महोदयरच, पूर्वागधारी शिशु ब्रह्मचारी . १ । वसुपूज्य कुलाम्बर पूर्ण शशी, रवि वंश विभूषण वित्त वशी ।
बितनोत सुखं वसुपूज्यमुतः शिव साध धर्मक्षमादियुतः ।। २ ।। हरि शंकर सेवित पाद कजः शुभचिंतन नाशितः पापाज । वितनोतु ॥ ३ ॥
॥१८४॥
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धनराज विनिर्मित सत्सुखदः, पिफजीकृत काम कपाय मदः, विवनोतु. ॥ ४ ॥ निज केवल चोधित लोकभरः, निज घेवक बांछित सौख्यकार, वितनोतु. ॥ ५ ॥ धरमी धर पूजित तीर्थ यरः, बरबोध विनाशित प्रोहभरः । क्तिनोतु० ॥ ६ ॥ यचा-वसुपूज्य जिनेश्वर, घर तीर्थेश्वर, मुवनेश्वर चर्चित चर ॥ श्यकीर्ति सुखाकर, दुरित तिमिर हर, त्रिभुवन र मंगल काणं . ७ ॥ महाधं ॥
ॐ विमलनाथ पूजा सकल तीर्थ सदन वारिभिः, सुरभि शीतल मावविशेषकैः
विविधताप हरैः सुख्न हेतवे, विमलतीर्थकरं परि पूजवे ।। जलं ॥ १ ॥ सफल गंध समन्धित चन्दनैः, परम ताप निवारण कारण ।
___परिमलाहत षट्पद पंक्तिमिः विमल'... ॥ चन्दनं ॥ २ ॥ अनुपमैरमृतामि समुज्ज्दलैः, सुरभि शालि समभव तंदुलैः ।।
उभय पक्ष विखंडित को टिभिा, विभ....... !! अक्षतं ३ ॥ परिमलोत्कट पुष्प भवरैः; वट्टल चम्पक पाटन मल्लिका ।
___ कमल मोगर जाति समवैः , विमला ...... ॥ पुष्पं ॥ ४ ॥ नक वर्ण घृतैः फल माजन श्चरूवरैर्वटकाव्य मुपायसः ।
नयनचित्त सु नासा तोपदैः विमल... ... ॥ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥
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पनि विमान समान सनिर्मलैः दिपल केवलज्ञान समानकैः ।
सुचनसार विनिर्मित पर्तिभिः विमल... ... । दीपम् ॥ ६ ॥ मलय पर्वत कक्ष समुद्भवै रति सुगंध पदार्थ विमिश्रितैः ।
गगन मार्ग गते शुभ धृपकी बिमल० ..... ॥ धूपम् ॥ ७ ॥ फलभरै भुवि दाडिम मोचकै, पनत कम्र कपिन्थ कलिन्दकैः
परिमलोघ सुपच मनोहगः विमल ......... ॥ फलम् ॥ ८ ॥ जलादि सच्चन्दन पुष्पकोवैः सदक्षतहरूप स दीपधूपैः फलेयजे श्री विमलं जिनेन्द्र, जयादि कीर्ति प्रणतं महान्तं ॥ अर्थ ॥ ६ ॥
ॐ जयमाला ॥ मालिनीच्छंदः -विमलतर सुकीर्ति, तैजस व्याप्त मूर्ति । सकलगुणगरिष्ट, प्राप्तलब्ध्या वरिष्ठं ।
विमल जिनबरेन्द्रम्, सिद्धयेस्तौम्यतन्द्रं, त्रिभुवन पतिनन्य, भव्पवृन्दाभि बंद्य... । श्री जिन मन्दिरे, भावना संयुतं, नृत्यये अप्सरा हावभावान्त्रितं ॥
भाषनी यंतरी, खेचरी, भूचरी, कन्यदेवी मरी, ज्योतिषी किन्नरी ॥ १ ॥ विभ्रमादि विलासः सदा मंडितः, कोकिला कइला सप्त स्वर मंडितः।
मादिमा घेई घेई पाइसंचारणं, धमपधों धमपो मादलाधारणं ।। २ ॥ योगणि योगणि गयेन्मन्डलं, शब्दये भौं भौं भी भौं भूगलं ॥
दुमि दुमि दुमि दुमि दोदलं गजये, झूमिकै भूमिकै घूघरी घूमरैः ।। ३ ।।
।
॥१८६।
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रेणुकः रेणुकै झल्लरी झूमये, तूर वजंति गाणा विहप्पाडियं ।।
पीयमी पीयमी वंश विशालये, खीसिपी खोणिसी केस कंसालये ॥४॥ द्रु' हु मंद्रु द्रुमं शंख घन शब्दये भौभि भौमि भौमि भौभि भेरी रव शब्दये
मेरमा स पंच राग मेव मल्हार ये, राग पट्त्रिंश संगीत सद्व रये ॥ ५ ॥ नीर गंधादिभिः द्रध्यकै श्चारये, गीत नाट्यादिभिः पुष्पकैरचये ।
श्री विमल नाय को देव देवीसरे पूजितोऽष्टधा विभु द्रव्यसत्समुत्करैः ॥६॥ घत्ता-निखिल यतिनिसेव्यं, देव देवेन्द्र सेन्यं, विमल गुण समुद्र, केवलज्ञान चन्द्रं ॥ अमितगुणगणेन्द्रं. पोह कृष्णा दिनेन्द्रं, नमतिभमति नित्य, श्री जपायतकीर्तिः ॥ महाधं ॥
॥ श्री अनंत नाथ पूजा ॥ सुर नदी नद तीर्थ समुद्भवैः कज़पराग सुपिंजरितै जलैः ।
स्फुरदशोक धरारूद संभितः परमनंतजिनेन्द्रमहरजे ।। जलं ॥१॥ सुघनसार विमिश्रित चन्दन, परिमलागत भृङ्गसमानुलैः !
त्रिविध तापहरै भकारकैः परमनंत ........ ॥ चन्दनं ।। २ । विशद मौक्तिक संनिम शालि जै, मधुर दिव्य वचो मृत वर्षणः ।
__ परि निषिक्त सुरांदिश दो गणं, परमनंत .... ॥ अक्षतं ॥ ३ ।। प्रचुर रत्नपरिष्कृत सत्कणैः, कनक दंड किंकणिका युवैः ।
नव कजैश्चमरैः परि वर्जितैः परमनंत...... ... ... । पुष्पं ॥ १ ॥
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॥१८॥
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११
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वटक मोदक घेवर पायसै श्चरूवर वृत्तशर्करयान्वितैः
त्रिविधमुक्कट विष्टरमाश्रितैः परमनंत...... ॥ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ तिमिर नाश कर मणिदीपकै, निजमहः परिधीकृत चन्द्रकैः ।
____ कनक कोटि प्रभा वलयांकितैः, परमनंत . " । दीपम् ॥ ६ ॥ अगुरू चन्दन धूप भरैरैरदित नंदन ताड़ित ढुंदुभि ।
ध्वनि घटाहत देव नरोग्गैः परमनंत"..... ॥ धूपम् ॥ ७ ॥ सुकदली फल चोच रसालकै जनक चन्द्रयुताना कारगौः ।
त्रय विभूषित सुन्दर विग्रह, परमनं .." ॥ फलं ॥ ८ ॥ शालिनी छंद-पाथोगधैः पुष्पकै स्तंदुलोधै हव्यदधु पकैः श्रीफलाय: ।
स्वभूनाथैरचितोनंत नायो, देयान्मोक्षः श्री जयाद्य तकीर्तिः । अर्थ ॥ ६ ॥ जिस कलश में अनंत रक्खी हों उसमें : ॐ हीं अहं हं सः अनंत केवलिने नमः,, इस मंत्र के १०८ जाप्य देकर बाल वस्त्र से कलश का मुह बंधकर कलश मांडने पर विराजमान करके पश्चात् जयमाला पढ़ना चाहिये
॥ जयमाला ॥ शावू ल विक्रोहितच्छंद -यो भोगेऽखिल भृपादित पदो, राज्यं परं प्राप्पवान् ।
मक्ति प्रकल सुरेन्द्र सुन्दर शिरः, कोटी प्रमाद्योता ॥
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॥१८८
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१८६]
पश्चाद्यश्च निम्बरः किल वा तपास सर्व मुदा ।
श्रीमत्तीर्थमनंत माशु शिब्द, तं तीर्थनाथं भजे ॥ १ ॥ स्वर्ग विमानात् कृत भृ वासं, कृत मध्यामत पंचक नाशं ।
नौमि चतुर्दशकं जिनदेवं, देवासुरनर कृतपद सेघ । २ ॥ सुरपति वंदित गर्भ कल्याणं, मेरू शिखर कृत जन्म स्नानं । नौमि० ॥ ३ ॥ दीक्षा समये शिक्किास्टं, भूचर खेचर पति सु न्यूदं .. नगि. ॥ ४ ॥ ज्ञानावसरे सभा प्रवेशं, धनपति विरचित कोष्ट निवेश ॥ नौमि० ॥ ५ ॥ मानस्तंभ विदारितमान, किन्नर युगली कृत वर गानं ॥ नीमि० ॥ ६ ॥ छत्र श्रय लोक त्रय शोभ, दुरीकृत मायामद लोभं ॥ नौमि० ॥ ७ ॥ दिव्यध्वनि नाशित पर मोह, वैर रियजित जी। विद्रोहं ॥ नोपिः ॥ ८॥ क्रोश चतुष्टय दुख निवार, लोक त्रय भव सागर सार । नौमि० ॥६॥ अशोक तरु दर्शनहतशोक, भामण्डल प्रति बिम्बित लोकं । नौमि. ॥ १० ॥
समेद शिखर मुक्ति श्री धरणं, लयकीर्ते य कारण शरण ॥ नौमि ॥ ११ ॥ एलिनीच्छन्दा-वितरति भवनाश, दुष्ट कर्मारिवाशं. जिनवर वर चन्द्रोऽनंत नाथो विद्रो । त्रिभुवन शुभकीति, रत्नभूषाप्त मूर्ति, रगुषित सुख पूतिः श्रीजयाद्यत कीति ।
महा' ।
4
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१६०
एतेनाग नरामरेन्द्रमुकुटैः सधृष्ट पादाम्पुजा ,
___नामेपादि जिनाः प्रशस्त, वदनाः प्रांतस्त्वनंतारूपकाः । श्री रत्नादि विभूषण प्रतिदिनं, प्राध्यें ज्योत्कीर्तिनः । मक्तया संस्तु सदा चतुर्दश जिनाः कुतुनोम गलं ॥
इत्याशिर्वादः ॥
-
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अनंत व्रत के जाप्य
ॐ ही अह हमः अनंत केलिने नमः ॥
( द्वादशो के जाप्य ) ॐ हीं दी ह्रीं हौं हूं सः अमृत वाहने नमः ॥
( त्रयोदशी के जाप्य । ॐ ह्रीं अनंत तीर्थ काय हा ही इ ह्रीं ह्रः असि पाउसा सर्वशांतिं कुरू २ स्वाहा ।
। चतुर्दशी के जाप्य ) ॐ ही अहं हंसः अनंत केरली भगगन अनंत दान लाभ भो..ोपयोग धीर्याभिवृद्धि कुरु २ स्वाहा ॥
॥१६॥
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( अनन्त मोचन मन्त्र ) ॐ हीं श्रीं अह सर्च कर्म विमुक्ताय अनन्त सुख प्रदाय अनन्त तीर्थ कराय नमः पूर्वानुवन्धित सूत्र मोचनं करोमीति स्वाहा । ऊपर के मन्त्र को पढ़ कर पहले का बन्धा हुआ अनन्त सूत्र छोड़ना चाहिये ।
( मनन्त बन्धन मन्त्र ) ॐ ही अई' हे मः अनन्त तीर्थ'कराय सर्व शांति कुम २ सूत्र न्धनं करोमीति स्वाहा । ऊपर के मन्त्र को पढ़ कर नवीन अनन्त बांधना चाहिये ।
( अनन्त बनाने की विधि ) अनन्त सोना, चांदी अथवा सूत्र की बनानी चाहिये जिसमें १४ गांठे नीचे लिखे अनुसार १६६ गुणों का चिन्तवन करते हुये बगानी चाहिये प्रत्येक गांठ पर कम से चौदह २ गुणों का विन्तवन करे । १४ तीर्थ का
२४ जीव रक्षा १४ प्रतिकरण
१४ नदी १४ कुलंफर
१४ भव्य नीव राशी १४ अतिशय
१४ रत्न १४ पूर्व
१४ स्वर १४ गुणस्थान
१४ तिथि १४ मार्गणा
१४ अन्तराय निवारण
१६११॥
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॥१९॥
इस प्रकार १६६ गुणों का चिन्तवन कर १४ गांठ वाली अनंत बना पश्चात् अनंत ब्रम का मांडना मांडकर श्री अनंतनाथ तीर्थकर की प्रतिमाजी बिरानमानकरे एवं नवीन अनंत को भी कलश में रखकर कलश को भगवान के समक्ष मांडने पर विराजमान करे । पश्चात् श्री अनंत नाथ भगवान का अमिपैक कर पूजन करें । पूर्णाहुति के बाद अनंत व्रत की कथा पढ़कर मोचन मंत्र द्वारा पूर्व की अनंत छोड़कर बन्धन मंत्र पढ़ते हुवे नतीन अनंत दाहिनी भुजार धारण करे ।
अनंत बनाते समय पढ़ने के १६६ गुण ( मंत्र ) (अनंत प्रत के उद्यापन में इन्हीं १६६ गुणों के अर्घ चढ़ाये जाते हैं )
१ चतुर्दश तीर्थ कर मंत्र १ ॐ ह्रीं सद्धर्म प्रवर्तकाय ऋषभनाथ तीर्थंकराय नमः ।
, काठक रहिताय भजित जिन देवाय नमः । , शिवंकरराव संभव तीर्थकराय नमः । . लोकाभिनंदकाय अभिनंदन स्निाय नमः । , क्रोधाधुन्मथकाय सुमति तीर्थंकराय नमः । १. पद्मप्रभ तीर्थंकराय नमः ।
॥१२॥
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१६॥
', कन्दोन्प्रथकाय श्री मुपार्श्व तीर्थंकराय नमः । , श्री चन्द्रमा नीशाय नमः । # श्री पुष्पदंत तीर्थकराय नमः । , श्री शीतलनाथ तीर्थ कराय नमः !
श्री श्रेयांस तीर्थ कराय नमः । ., श्री वासुपूज्य शीर्थ कराय नमः । , श्री विमल नाथ तीर्थंकराय नमः । , श्री अनंत नाथ तीर्थ कराय नमः ।
२ चतुर्दश प्रकीर्णक मंत्र ५५ ॐ ही सामायिक क्रिया युक्त मुनये नमः १६ । चतुर्विंशति जिन स्तुति प्रतिपादकाय मुनयेनमः ।
,, त्रिकाल देख वंदना युक्त मनये नमः ।
, प्रतिक्रमण क्रियायुक्त मुनये नमः । १६ , गुर्शदिक धर्मऋद्धि विनय क्रिया युक्त मुनये नमः ।
दक्षाग्रहण शिक्षादि युक्त मुनये नमः । २१ , दशकालिकोपदेशकाय मुनये नमः ।
॥१६
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२२ ॐ हीं उत्तराध्ययन रत मुनये नमः । २३ , कल्प व्यवहार युक्त मुनये नम : २१ कलमाप घुम्न गुनो नाम. ..
, महाकल्योपदेशकाय मुगये नमः । २६ , पुण्डरी कोपदेशकाय मुनये नमः । २७ , महापुण्डरीकोष देशकाय मुनये नमः । २८ , अशीति कोपदेशकाय मनये नमः ।
३ चतुर्दश कुलकर मंत्र २६ ॐ ही प्रतिश्रुति कुलंकराय नमः । ३० । सन्मति कुलंकराय नमः । ३१ । क्षेमकर कुलं कराय नमः । ३२ । मंधर कृलंकराय नमः ।
सीमकर कुसंकराय नमः । ३४ , सीमंधा कुलकराय नमः ।
विमलयाहन कुलंकराय नमः । ३६ , चक्षुष्मान कुलं कराय नपः ।
ITEr.
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. . २५॥
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३७ ॐ ह्रीं यशस्वान कुलंकराय नमः । ३८ , अभिचन्द्र फुलं कराय नमः । ३६ , चंद्राम कुलकराय नमः ।
मरुदेव कुलकराय नमः । ४१ , प्रसेन जिव कुलंकराय नमः । ४२ , नामिराय कुलकराय नमः ।
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४ चतुर्दश अतिचय मंत्र ४३ ॐ ह्रीं सद्धि मागधी भाषात भगवते नमः । ४४ , मैत्री युक्ताय ममवते नमः । ४५ , सर्व ऋतु फल पुष्याय पादपाय जिनाय नमः । ,, श्रादर्शतल सन्निभ रत्नोभ् युक्ताप भगवते नमः ।
सुगंधितायुयुक्ताय जिनाय नमः ।
सबै जनानंदकाव जिनाय नमः । ४६ , निर्मल भृभाग युक्ताय निमाय नमः । ५० , दिव्य गंधोदक वृष्टि युक्ताप जिनाय नमः ५१ , पद्मोपरि पाद न्यासाय जिनाय नमः ।
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॥१५॥
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1१६६॥
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५२ , बीमा दि गाम्य संपनि युवतार निनाय नमः । ५३ , निर्मल गगनातिशय युक्ताय जिनाय नमः । ५४ , अन्यदेवालानन युक्ताय जिनाय नमः । ५५ , धर्म चक्र युस्ताय जिनाय नमः | ५६ , अष्ट मंगल द्रव्य मुक्ताय जिनाय नमः ।
५ चतुर्दश पूर्व मंत्र ४७ ॐ ह्रीं एक कोटि पद प्रमाणाय उत्पाद पूर्ण गाय नमः । ५८ , एणवति लक्ष पद प्रमाणाय अग्रायणी पूर्णय नमः । ५६ , सप्तति लक्ष पद प्रमाणाय वीर्यानुवाद पूर्वाय नमः । ६. , प्रष्टी लक्ष पद प्रपारच अस्ति नाति प्रवाद पूर्वाय नमः ।
, एकोन कोटि पद प्रमिताय ज्ञान प्राद पूर्वाय नमः ।
, पथिक कोटि पद प्राणाय सत्य प्रवाद पूर्वाय नमः । ६३ , पड विशति कोटि पद प्रमाणाय भात्म प्रवाद पर्वाय नमः । ६४ , अशांति लवाधिक कोटि पद प्रमाणाय कर्म प्रबाद पूर्वाय नदः । ६५ , चतुरशीति लेक्ष पद प्रमाणाय प्रन्याख्यान पूर्वाय नमः । ६६ , पाठी लक्ष द्वि कोटि पद प्रमाण विद्यानुवाद पूर्वाय नमः ।
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॥१६॥
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६७ ॐ ह्रीं पड़ विंशनि कोटी पद प्रमाण कन्याण बाद पूर्वाय नमः । ६८ , त्रयोदश कोटि पद प्रमाण प्राणानुवाद पूर्वाप नमः । ६६ , नब कोटी पर प्रमाण किया विशाल पूर्वाय नमः । ७० , सार्द्ध द्वादश कोटी पद प्रमाण लोक विन्दु पूर्वाय नमः ।
६ चतुर्दश गुणस्थान मंत्र ७१ ॐ ह्रीं मिथ्यात्व गुणास्थान स्थितानंत मन्य जीव गराये नमः । ७२ ,, सासादन गुणस्थान पति सम्यग्दृष्टि जीव राशये नमः । ७३ , मित्रगुणस्थान स्थित भर जीव सम ।। ७३ , अग्नि गुण, स्थान स्थित सम्यग्दृष्टि भव्य जीव राशये नमः ।
" देशवत गुरुस्थान स्थित भव्य जीव राये नमः । , अमन गुणस्थान स्थित मुनिभ्यो नमः ।
अप्रम न गुणस्थान स्थित मुनिभ्यो नमः । , अर्ष करण गुणस्थान श्रोणि द्वय मुनिभ्या नमः ।
, अनिवृति करण गुणस्थान स्थित मुनिभ्यो नमः । ८० , सूक्ष्म साम्पसय गुण स्थान स्थित भुनिभ्यो नमः । ८१ , उपशांत कपाय गुपस्थान स्थित मुनिभ्यो नमः । ८२ , क्षीण कषाय गुणस्थान स्थित मनिराशय नमः ।
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८३ ॐ हीं सयोगकेवली गुण स्थान स्थित मनिभ्यो नमः । ४ , अयोग केवजी गुणस्थान पति मुनिभ्यो नमः ।
७ चतुर्दश मार्गणा मंत्र ८५ ॐ ही स्वादि गति हेतूपदेशकेभ्यो नमः । ८६ ., एकेन्द्रियादि जीव रक्षकेत्यो नमः । ८७ , पटकाय जीव रक्षक मुनिभ्यो नमा 12 , योग मार्गणा ज्ञापकेभ्यो नमः ! ६ ,, वेद प्रग रहित मुनिभ्यो नमः ।
, कपार विध्वंस केम्पो नमः , ज्ञानोपयोग युक्त जिनेभ्यो नमः । ., सामायिक संघमोसारक मुनिभ्यो नमः , चक्षुरादि दर्शन झायकेभ्यो नमः ।
॥ पट लेश्योपदेशकेभ्यो जिनम्यो नमः । है, भव्यामध्य मार्गणा प्रकाश वेभ्यो नमः । १६ : मम्यक्तबोपदेश केभ्यो नमः । ६७ , संत्रा संझि मानणा भेद कर फेभ्यो नम । १. , आहारक मार्गणो देश फेभ्यो नमः ।
1१६५
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८ चतुर्दश जीव समास मंत्र & ॐ ह्रीं पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव रक्षकेभ्यो नमः । १०० , अपर्याप्तक पृथ्वी कायिक जीव रक्षकेभ्यो नमः । १०१ : पर्याप्तक अपकार्षिक जीर रक्षकेभ्यो नमः ।
। अपर्याप्तक अपकायिक जीप रकम्पो नम ।
यति बस पारि श्रीपर कभ्यो नमः । १.४ अपर्याप्तक तैजस कायिक जीव रक्षकेन्यो नमः ।
पर्याप्तक वायुकायिक जीव रक्ष केभ्यो नमः । ,, अपर्याप्तक वायु कायिक जीव रक्षकेभ्यो नमः । ,, पर्याप्तक वनस्पति जीव रक्षफेभ्यो नमः । 1. अपर्याप्तक पनगति जीव रक्षकेभ्यो नमः ।
पर्याप्त द्विन्द्रियादि विकल त्रय रक्षकेभ्यो नमः ।
अपर्याप्तक द्विन्द्रियादि विकलत्रय रक्षकेभ्यो नमः । १.१५ , पर्याप्तक एन्चेन्द्रिय जीव रक्षक मुनिभ्यो नमः : १ १२ ,, अपर्याप्तक. प.चेन्द्रिय जीव रक्षक मनिभ्यो नमः ।
०
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॥१६॥
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६ चतुर्दश नदी मंत्र ११३ ॐ ह्रीं जिन विम्ब समन्वित गंगा नये नमः । ५१४ , जिन विम्म समन्धित सिन्नु न नमः ।। १ १५ . जिन विन्ध समन्वित रोहिताय नमः । ११६ । जिन बिम्म समन्धित रोहितात्याय नमः ।
, जिन बिन्ध समन्वित हरित नर्थ नमः । ,, जिन धिम् समन्धित हरिकांनाय नमः । .जिन विध समन्धित सीता न! नमः ।
जिन विम्य समन्धित सीतोदा नद्य नमः ।
जिन बित्य समन्धित नारी नय नमः । १२२ , जिम विम्ब समम्मित नरकांता नद्य नमः ।
,, नि चिम्म समन्धित सुवर्णकुला नय नमः । १२४ , जिन विम समन्धित रुप्य कुलायै नमः । १२५ , जिन बिम्ब समन्वित रक्ता नय नमः । १२६ , जिन पिम्म समन्वित रक्तोदा नये नमः ।।
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२.१॥
१० चतुर्दश भुवन भव्य जीव मंत्र १२७ ॐ ह्रीं निगोदस्य भव्य जीव राशिभ्यो नमः । १२८ , महातमः प्रभोद्भुन भन्य जीव रशिभ्यो नमः । १२६ , तमः प्रभोद्भुत अन्य जीव राशिभ्यो नमः । १३० , धूम प्रमोद्भूत मन्य जीव गशिभ्यो नमः । १३१ ,, पक प्रभाश्रित भव्य जीव राशिभ्यो नमः ।
, वालूका प्रभास्थित भव्य जीव गशिभ्यो नमः । १३३ , शर्करा प्रभास्थित भव्य जीव राशिभ्यो नमः ।
रत्न प्रभाश्रित भव्य जीव गांशम्यो नमः । ,, तिर्यग्लोगस्थित भव्य की राशिम्पो नमः । , ज्योतिर्पटलानित भव्य जीव राशिभ्यो नमः ! ,, कल्पगली भव्य देव राशिभ्यो नमः
,, अवेयका गित भव्याहमिन्द्रेभ्यो नमः । १३६ ,, नानुदिश विमानस्थाइमिन्द्रेभ्यो नमः । १४० , जियादि पंच विमान थाइमिन्द्रेभ्यो नमः ।
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१२.
।
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११ चतुर्दश रत्नाधिपति चक्रवर्ति मंत्र १४१ ॐ ह्रीं सेनापति रत्नाधिपति चक्रवर्तिभ्यो नमः १४२ , स्थपति रत्नाधिपति चक्रवतिभ्यो नमः १४३ , हर्म्यपति रत्नाधिपति चक्रवर्तिभ्यो नमः १४४ ।। द्वीप रस्ने कृतासनेभ्यश्चक्रवतिभ्यो नमः । ., विज याद्धोपन्नाश्वाधिपति चकार्तिभ्यो नमः
स्त्री रत्नाधिपति चक्रवर्तिभ्यो नमः १४७ , पुरोहित रत्न संसेवित चावतिभ्यो नमः
, चक्र रत्नाधिपति चक्रवर्तिभ्यो नमः १४६ , चर्म रत्नाधिपति चक्रवर्तिभ्यो नमः १५० , मणि रत्नाधिपति चक्रवर्तिमगे नमः
, काकिणी रत्नाधिपति चक्रवर्तिभ्यो नमः १५२ छत्ररत्नाधिपति चक्रवतिभ्यो नमः १५३ , असि नाधिपति चक्रवतिभ्यो नमः १५४ , दंड रत्नाधिपति चक्रपतिभ्यो नमः
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311
१२ चतुर्दश स्वर मंत्र
१५५ ॐ ह्रीं अकार स्वर दिने पमाय नमः
१५६
आकार स्वर वादिने
वृषनाय नमः
१५७
इकार स्वर वादिने
वृषनाय नमः
१५८
ईकार स्वर वक्त्र
यृपमाय
नमः
१५६ उकार स्वर भेद कथकाय नमः
१६० ॐकार स्वर भेद ज्ञायकेभ्यो नमः
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१६१ ऋकार स्वरोपदेष्ट्र वृषभाय नमः
ऋकारस्वरोप देश काय वृषभाय नमः
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लुकार स्वरस्य वक्तार वृषभाय नमः
१६४
कार खरोच्चारकाय वृषभाय नमः
१६५ एकार स्वर देशिने वृषभाय नमः
१६६
ऐकार स्वर प्रकाशकाय घृषभाय नमः
१६७
कार स्वरोपदेश काय वृषभाय नमः
१६८
कार स्वर कथकाय जिनाय नमः
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२४॥
१३ चतुर्दशतिथि मंत्र
१६६ ॐॐ ह्रीं प्रतिपदि स्वरूप निरुपक अष्टादश दोषरहिताय जिनाय नमः द्वितीयविधिमाश्रित्य सागारानगार धर्माय नमः
१७०
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१७१
तृतीया तिथि माथिव्य दर्शनादि रत्नत्रयाय नमः
१७२
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१७८
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१८०
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१७४ षष्ठी तिथि माथित्य सर्वज्ञोदित पट् द्रव्येभ्यो नमः
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१७५ सप्तमी तिथिमुद्दिश्य सामादिकादि सप्त संयमेभ्यो नमः ।
१७६ अष्टमी तिथिमाश्रित्य सिद्धाष्ट गुणेभ्यो नमः १७७ नवमी तिथिमाश्रित्य सर्वज्ञica नव नयेभ्यो
दशमी तिथिमाश्रित्य दशलाक्षणिक धर्मेभ्यो एकादशी तिथिमाश्रित्य
35
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12
52
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चतुर्थी तिथिमाश्रित्य प्रथमानुयोगादि वेदेभ्यो नमः ।
पंचमी तिथिमुद्दिश्य पंच परमेष्ठीभ्यो नमः
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एकादशांगेभ्यो नमः
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द्वादशी तिथिमाश्रित्य द्वादश विधतपेभ्यो नमः i
त्रयोदशी तिथिमुद्दिश्य त्रयोदश प्रकार चारित्रभ्यो नम : चतुदशी तिथि माथित्य अनंत तीर्थकराय नमः
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१४ चतुर्दश मल त्यक्ताहार मुनि मंत्र ॐ हीं पूयमलातिरिक्ताहार ग्राहक मुनिभ्यो नमः । " अस मल रहित आहार ग्राहक मुनिभ्यो नमः । " पर मल रहित पिण्ड विशुद्धये नमः । , अस्थि मल रिक्त पिंड विशुद्धये नमः । , चर्म मल रहित पिण्ड विशुद्धये नमः । , नरव मल रदित पिण्ड विशुद्धये नमः । ,, कच मल रहित पिण्ड विशुद्धये नमः ।
मृत विकलत्रिक मल रहित पिंड विशुद्धये नमः । i, मरणादे कंदमूल त्यक्त पिण्ड विशुद्धये नमः । , यब गोधूमादि बीज मत रहित पिण्ड विशुद्ध्यै नमः । , मूल मल रहित पिण्ड विशुद्धये नमः । , बदर्यादि फल मल रहित पिण्ड विशुद्धये नमः । , तुष कण मल रहित पिण्ड विशुद्धये नमः । , कुडमा रहित पिड विशुद्धये नमः ।
। इति अनंत निर्माण मन्त्राधिका
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२०६॥
* अथ महाभिषेक *
"
श्रवय असया, घट्ट सहरसाइ अट्ट कोडी ऊ रक्खंतु मे सरीरं देवासुर पणमिया सिद्धा ।। १ ।। भात्मांग प्रत्यंग परामर्शन मन्त्रः
ॐ अर्हमुख कमल वासिनी पापांत कारिणी भूत ज्याला महत्रा प्रज्वलिते सरस्वति मम पापं हन हन दह दह चाँ चीं तूं चौं नं नीर घवले अमृत संभवे
वं फट् स्वाहा fl
ॐ नमो वायु मृदुनात्मना ह्र फट स्वाहा
अथ शची करण विघा द्वय मन्त्रः
कुमाराय सर्व विघ्न विनाशनं महीं पूतां कुरुम्वाशु सुगन्धी
( इति भूमि संशोधनम् )
ॐॐॐ प्रज्ञालपामि भूभाग, पृष्ठि नाग सहस्त्राणि
मनपाम्यहं ॥ भूतलेस्मिन्चरंति ये 1J
तेषामाह्राननाय च
सेर्पा संबोधनापात्र,
प्रसिचामृतेने मां भूमि सम्मार्जयाम्यहम्
#
I
(भूमि संमार्जनं )
२०६ 4.4
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ॐ मेघ कुमाराय श्रं हं सं वं टं ठं चः फट् स्वाहा, इति भूमि संमार्जनम्, सौगन्ध्य संग मधुव्रत तेन संवर्धन वि आरोपामधेश्वर वृंद बंद्य, पादारविन्दममि वं जिनोचमानाम् ॥ ( देवत्या मनश्च चंदन तिलकं कुर्यात् )
"
प्रत्युप्त नील कलशोत्पलपद्मराग, निषेत्करप्रकर व सुरेन्द्र चाय ॥ जैनाभिषेक समयेंगुलि पर्व मूले, रहम खुली यकमहं विनिषेशयामि ।
सम्यक विनद्ध नव निर्मल कल्याण निर्मितमह कटके
इति मुद्रिका धारणम्
रत्न पंक्ति, रोचिवृहद्वलय जात बहु प्रकाशं " जिनेशं, पूजा विधान ललितेश्वरकरोमि ॥
कंकण धारणम
पूर्व पवित्र तर सूत्रविनिर्मितंयत् प्रीतः प्रजापति रन्य चदंग सांगः ॥ सभूषणं जिनमहं निजाय, यज्ञोपवीत मह मेष वा तनोभि पुन्नाग चंपक महीरुद किंकरात, जाति प्रसून नव केसर कुंददृष्टं
#t यज्ञोपवीतं
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I
देव स्वकीय पद पंकज सत्प्रसादात् मृध्नि प्रमाणवति शेखर कंदवेऽहम् । शेखरं || ये संतिके विदिह दिव्य कुल प्रद्रुताः नागा प्रभूत बन्न दर्प युतार बोधाः संरक्षणार्थम मृतेन तेषां प्रचा लयामि पुरतः स्नपनस्य भूमिम्" भूमिशोषनम् ॥ श्रीरार्न वस्य वय शुचिमिः प्रवाहः, प्रचालितंसुर ब
दवारम् ॥
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अत्यु यम द्यतमह जिन पाद पीठं, प्रचाजयामिभव संभव वाप हारिः ॥ पीठ प्रक्षालनं ।। प्रत्यग्र तार तर मौक्तिक चूर्ण वर्णैः, श्रृंगार नाल मुखनिर्गत चार गंधैः ॥ शीतः सुगार्धगिरतीन नानै विजये स्नपनसार समारमेऽहं ॥ मलस्नपनं ॥ इंद्राग्नि दंश्वर नैऋतपाश पाणि, वापत्तरेण शशिमौलिफणींद्र चन्द्रम् ॥
आगत्य यूय मिह सानु चराः सचिन्हाः, स्व स्वं प्रतीच्छतु पनि जिनयाभिषेक ॥ दिग्पालर्चनम् ।। पुण्याह मसुम होति च ममल्नाांन, सर्व प्रहृष्ट मनसश्च भवंतु भव्याः ॥ पुण्यो दकेनभगवंत मनंत कान्ति, महन्त मुन्वन तनु परि वर्तयामि ।। पुष्पा क्षतोद कावतारणम् नाथ त्रिन्नोक महिताय दश प्रकार, धर्माम्बु वृष्टि परिषिक्त जग त्रयाय ॥ अर्धमहा गुणरल महार्ण नाय, तुम्यं ददामि कुसुमैविश दाक्षतैश्च ॥ पुष्पाक्षतावतारणं ।। जन्मो त्सादि समयेषु यदीय कीर्तिः, सेन्द्राः सुराः प्रमद भार नुताः स्तुवंनि तस्या ग्रतो जिनपतेः परया विशुध्या, पुष्पाञ्जलि मलय जाद्र मुपातिपदं ॥
॥ पुष्पाञ्जलि श्री खंडा वतारणम् ॥
(अथ अई प्रतिमां नेतु गत्वा पूजां कन्या इदेस्तोत्र पठयमान मानीयते ) आगत्य देव्यैर्जननी प्रपूज्य, नीचा वि भूत्या नगराज भूनि ॥
मृगेन्द्र पीठे वर पाएड कायां, निवेश्य पूर्वाभिमुखं जिनेन्द्रम् ॥ १ ॥ क्षीरो: तोयैरमरोप भीतैः, प्रियंगुसञ्चंदन पद्म मिश्रीः ॥
आपूरिता नष्ट सहस्त्र संख्यान, प्रगृत्य सत्कांचन रन् कुमान् ॥ २ ॥
२०६
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२०६।।
श्रतोद्य गीतध्वनि मिन्द्र घोषैः, रवेरितै नंद जयेति शब्दः ॥
शिक कृत कर्मकांड, प्रकाशयन् भक्तिरसषेवे ।। ३ ।। नीच्या सुरैर्यः परया विभूत्या, मेरो विशाले शिखरं वि
}
संस्नानितो रत्नमयैश्च कुमैं सौवरायकेश्चंदन चतिः ॥ ४ ॥ स्वयं वं तीर्थंकरं प्रधानं हिरण्य गर्भं पुरुषं पुराणम् ॥
fararat नित्यमनन्त कीर्ति, सयोगिनं ध्यान विशुद्धिभ्यं ॥ ५ ॥ सुदर्शिनं दर्शित सर्व तत्वं लोकेश्वर शान्त तनुं सुरूपं ॥ ज्ञानात्मकं ज्ञान समस्त तत्वं निरम्बरं बीत समस्तरार्ग ॥ ६ ॥ भवार्णवतीर्णमुद्रार सत्यं सत्यं न कल्याण विभूति युक्तं ॥
॥ ७ ॥
आता नेत्र वरपद्मपाणि, रजोमल स्वेद विमुक्त गात्र' तं पुण्यं सुगतं महान्तं कल्पाखकं मंगलमुत्तमं च 11 तपोनिधि चांति दयोपपन्न, समाधिनिष्ठं त भूरि धारं ॥ ८ ॥ अनंत धामाचार मिन्द्र जुष्टं सुराइतानेक सुतारनर्थ्यम् ॥"
छत्र पूर्णेन्दु निभेन गीतं, अशोक वृोग सुपल्लवेन ॥ ६ ॥ भामंडलेन प्रतिमा प्रभेण वयागिरा चामर चारु पंक्त्या ||
विभाति नित्यं सुरपुष्प वृष्टया तं देव देवं मुनि हृदयं ॥ १० ॥ वेदेषु शास्त्रषु तमेव गीतैः भूतै सुभाव्यैरिति वर्तमानैः ।
गुस्तुतं देव निकाय मुख्यै, निरंजनं शाश्वतमव्ययं च ॥ ११ ॥
२०६ ॥
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मंत्रा चरात्निंगित वाग्मिरुन्चे,
रत्ना चत पुष्पाणि
जिनेन्द्र चंद्रं परया विभूत्या संस्नापयामि प्रवरासन स्वम् ।। १२ ।।
॥ अथ प्रतिमा स्थापनं ॥
यः पांडुकामलशिलागतमादि देव, संस्नापयन्सुर वराः सुर शैलमूनि ॥ कल्याण मी सुरहमतो संगमपुर पर उदय हिन्द ॥
इति प्रतिमा स्थापनम् ॥
ॐ श्वेतवर्ण स्फटिक मणि विनिर्मित सहस्त्र योजन प्रमाणं पंच कोश प्रमाण मुखं क्षीरो दधि जलपूर्ण पूर्वोत्तरस्यां दिशि कलशं स्थापयामि
ॐॐ ह्रीं अनन्तमा अनन्त गुरु गर्वित नादं नंद नाम प्रथम कलशं स्थापयामि कलशेषु स्थापितेषु सोदकानि सपुष्यापि साक्षतानि सहिरण्यानि चिपामि स्वाहा
ॐ पूर्व दक्षिणस्यां दिशि नील मणि विनिर्मित सहस्त्र योजन प्रभाग भद्र नाम द्वितीय कलशं स्थापयामि,
पुष्पांजलि क्षिपेत् ॥
ॐ ह्रीं दक्षिण पार्श्वमायां दिशि पीत व विनिर्मित सहस्त्र योजन प्रमाणं जय नाम तृतीय कलशं स्वापयामि, शेषं पूर्व३त् ॥
२१० ।
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परशा
ॐ पश्चिमोत्तरस्यां दिशि रक्त मणि विनिर्मित महस्र योजन प्रमाणं विजय नाम चतुर्थ कलशं स्थापयामि, शेवं पूर्ववत् ॥
सत्पन्लार्चित मुखान् कलधौत रौप्य । ताम्रा(कूट घटितान् पयसा सुपूर्णान् ॥
संशयतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान ॥
____ संस्थापय मि कलशान् जिनवेदिकान्ते ॥ कलशेषु स्थापितेषु सोदकानि सपुष्पाणि साक्षतानि क्षिपामि खाहा, चविताश्चन्दनैः पूरी; धुमिदेषिताः ।।
शोभिताः कलशा ये च, पुष्प पल्लव धारिणः ॥ एतत्पठिच्या चतुः कोणेषु स्थापित कलशानामुपरि पुष्पाणि क्षिपेत् दध्युज्नलाक्षत मनोहर पुष्प दीपैः ॥ यात्रार्पितं प्रतिदिशं महतादरेण ॥ त्रैलोक्य मंगल सुखाशय कामदाह । मारार्ति तव विभोरव तारयामि ॥
मंगलातिकावतरणम् ॥ ॐ मघोनः ककुभागे, दर्भ निर्भन्न विनकं ॥
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THI
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मा१२
भोगैश्या भिवृद्धयर्थ, दिपामि क्षिप्र कल्मषं ।
इति इन्द्र दर्भः ॥ ॐ पूर्वस्यां दिशि कुडलांशु निश्य, व्यालीढ़ गएड स्थलन् ॥ शक्र मूर्धनि बद्ध साधु मुझटं, सहद मैगवतम् ॥ पत्नी बांधवभृत्य वर्ग सहितो, देवं समाहानये ॥
पाद्यार्धा चत दीप गंध कुसुमं, दत्तं मया गृहताम् ॥ ॐ पूर्वस्यां दिशि क्षीर जलधि संजात डिण्डीर पिण्ड पाण्डुर शरीर शोमां, गुण निर्मित चारु चाप सहशोन्नत पृष्ठ वंश पार्श्व विलम्वितं, घंटा युगल कराल टंकारं मुखरित दिगन्तरं, सुवर्ण रूचिर नक्षेत्र माला विराजित कुंभस्थल नभस्तन तुग तरूयपुष्माए पैराबत मभिराज मारुः कर कलश कुलिश रश्मि रंजित समस्त भुवनं, नाना विध महामणि रचित शिखर शेखर बिन्यास शोमि तोनमांग, प्रसाद चिन महत्तर सुर परिषदानुपातं पौलोम सहितं, सपरिजनं सपरिवार इन्द्र देव माह्वानयामहे, स्वाहा ॥ हे इन्द्र आगच्छ २ इन्द्राय स्वाहा ।
इन्द्र महनराय स्वाहा, इन्द्रपरि जनाव स्वाहा, इन्द्रानु चराय स्वाहा, नये स्वाहा, अनत्माय स्वाहा, सोमाय स्वाहा, वरु णाय स्वाहा, प्रजापत्ये स्वाहा, ॐस्वाहा भूः स्वाहा, भुवः स्वाहा, स्व. स्वाहा, ॐ भूः स्वस्त धाय स्वाहा,, इन्द्र देवाय स्वगण परि वृताय इदं अयं पाद्य गंधं पुष्पं दीपं चरु' बलिमक्षतं स्वस्तिक यज्ञभागच भावानिवेदितं यजामहे प्रतिगृ यतां प्रतिगृ यामिति स्वाहा
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८३॥
लोक पाल ग्रहानन मंत्रः
इन्द्र
यस्यार्थं क्रियते कर्म, सुप्रीतो मत्र मे सदा शांतिक पौष्टिकं चैव सर्व कार्येषु सिद्धिद
संतापापनोदार्थ,
प्राणिनां प्रक्षिपाम्यहं ॥
च, सर्वज्ञस्पनोसेव ॥ इति अग्नि दर्भः ॥
P
दर्भ हुताशनाय
ॐ अग्नि पालित पूर्व दक्षिण दिशं
छागारोहणमच सूत्र वलयः स्वाहा संयुत मुज्वलांगमहसं संशब्दये संमुदा IF देवाधीश महेशदासमुचितं गृह्णातु दीपादिकं ॥ पा । ॐ पूर्व दक्षिणस्यां दिशि चल चदुलगुरू पृथुल प्रोथभाभि नवमील नीरज वर्ण तस्करं कार्तस्वरमयमधुर वद्युच्चरिक मालिका, परित कंठ कंदलं महंतं चागमादं ज्वल ज्वलन स्फुलिंगं, पिंगल विलोल लोचन युगलं, मलयज बलचाच मालि कोयलक्षित दत्तिएकराय अखंड कमंडल मंडल वाम हस्त प्रकोष्ठ, प्रहृष्ट सुंदर दार परिवार परिगतं यज्ञोपवीत पवित्र देहं श्रग्नि देवमाहवानयामहे स्वाहा, हे अग्नि श्रागच्छ २ श्रग्नये स्वा तीक्षणं दक्षिणाशापं, दर्म लक्ष्या समीक्षितं
||
चिपाम्यभिषेकारंभे, मारंभ विधित्सया
पिंगोमनेत्रद्वयं
व्यग्रोग्रहश्वांगुलिम्
11
॥ कुतुमांजलिः क्षिपेत् ॥
二
||
It
1
इति यम दर्भः L
॥२१३ ॥
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२१४॥
ॐ भासीनं सिति वर्णमाजि महिषे, वैवस्वतं च स्वयं ।।।
दूरोल्लासित दंड मोडल सुजा, संदविणमा निशि ॥ ___ उग्रं व्यग्रं परिग्रह निजनिजे: कर्मव्यथा कारये ॥
गृह्यादेप बलि बलि जिनयतेः, स्नानेय मानीयुतः ॥ पाद्यपः ॥ ॐ दक्षिणस्यां दिशि अंजन धरणी धर समाना कार निष्ठुर खुर पुटपात निर्दलित कुलाचल शिलावलं, दप्पोद्भट विकट विषाण कोटि विलेखन स्फुटित सुर शैल कटकं, त्रिगुणी कृत भुजंगभूषणं, परिणद्धकंधा, विषम तम शीलं, महिपमारूद, प्रचंड मजदंड, भ्रमित दंडोऽमरित सकल मही मंडल, कर परिवार, मित्र कलो पेतं, यमलोकपालमाहबानयामहे स्वाहा, हे यम लोक पाल आगच्छ २ यमाय स्वाहा ॥ ॐ नराण दिग्भागे । निः शेप क्लेश नाशनं ॥
विदधे दर्भ मारब्ध । जिनेन्द्राभिषवक्रिया म् ॥ इति नैऋत्य दर्भः ।" ॐ आशा दक्षिण पश्चिमा निज पला, दाक्रम्य लोके स्थितं ॥
नत्यं दृढ़ मुगन्। प्रहरणं, भीमं कला पृक्षगं ॥
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२१४1
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अस्मिन्पुण्यमहोत्सवेऽह. मचिरादाम त्रये यक्रमा ॥
दादत्ता मय माष शेष कलितं, पन्यादि युक्तं करू ॥ पाद्यार्घः ॥ ॐ दक्षिण पश्चिमायां दिशि धूमधूम्र सटा टोप भासुरोख्यपुष, अभिनवविशदरोदनानु कारायजनित समस्त जन कौतुकं, निपुणोप लषितं सूक्ष्म पुत्माक्ष वुध बुध युगं रक्षण रूढ़ बरट कलाप कुसुम सम देह दीप्ति संशयेत, नब जलद पटलं; सफल परिच्छिद समन्दितं, नैऋत्य देवमाहगनयामहे स्वाहा, शेषं पूर्ववत् ॥
ॐ लोक्य नाक्षाय, नमस्कृत्य जिनेशिने ॥
वरुणस्य हरिभागे, स्थापयेदर्भद्भुतम् । वरुण दर्भः ॥ ॐ पद्मिभन्याश्रित दंत दंति मकरा, रूढ़ भुजंगायुधं ॥ मुक्ताछि मभूषणं चवरुणं, काठां प्रतीच्याश्रित ॥ भार्या संयुतमाह्यायामि जगता, मीशस्य पूजा क्षणे ॥
प्रीतः स्वीकुरुतामसा वषिमया, संपायमर्यादिकम् ॥ ॐ पश्चिभायां दिशि संतत जलनि मज्जन जनित पांडर कपिल वर्ण, उदऽशुडान पुष्कर निर्गत शौकर सार विन्दु दन्तुरित कुंभ • पीट, कठोर केतकी विशद दंत किरणां कर तिरस्कृत कपोत मद मलिनमाव, जलरिमारूढ़', निर्मल मुक्ता फलोपचित्त तार हरि वृक्षः स्थलं, सजव नागराज पाशपात्त प्रारब्धं, शक दोर्मद शालि संपन्न', पल्पादि संयुतं वरुण देवं, समा बानयामहे । पाहा, हे वरूण आगच्छ २ वरुणाय स्वाहा ॥ शेषं पूर्ववत् ।।
ॐ मातरिश्व विदिमागे, विश्व विश्वं धरा प्रभो ॥ अभिषेक समारंसे, दर्भ गर्भ प्रकल्पये ।
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१६॥
ॐ एकस्यामपि पश्चिमोत्तर दिशि, स्थानेसदा सर्वगं
I
वायुं तुंग कुरंग पृष्ठ गमनं हस्तस्य वृक्षायुधं
*
देवं संप्रचलच्छ शेर घटने, दाररुारे समं
if
सम्यक संप्रति बोधयामि भवता, पाद्यादिकं गृह्यतां "
ॐ पश्चिमोत्तरस्यां दिशि चलाचल चरणामि घात स्फुटित घरावर शिवरदेशं, नव यौवन सुपद्रवं निज जब निर्जित मनोवेगं हरिया देहावयव हस्तप्राप्तं महीरुह महा युद्ध कृत
ן
बल समुद्भूत स्वेदोदविन्दु प्रसर प्रशमित मार्ग मारूद, सहज गमनाय संरंभ, प्रकंपमानं, समस्त रिपुबल प्रभंजनं, शशि भाजनंच, वायु देव समाह्वानुयामहे स्वाहा हे वायु श्रागच्छ २ वायवे स्वाहा, शेषं पूर्ववत् ॥
ॐ यक्ष रीक्षत सत्क्षेत्रे, क्षिपामि क्षणविज्ञम् ॥ याग दीक्षाक्षणे क्षेमं,
विधित्सुदमं मुत्तमम् " यक्ष दर्भः ।।
ॐ हंसी घेन समुह्यमान मनवें, प्रेस डिमानवः " पृथु पुष्पकं धनपतिः प्रोच्चैरुदीच्यादिश कान्तैरय्सरसां कुलैः परिगतं शक्त्यायुधं बोधये
FI
॥
गंधरः प्रतीतुतरा, मत्रार्हतः पूजने ॥ पायार्थ :
॥२१६ ॥
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ॐ उत्तरस्यां दिशि रंभाष साकर चरमाभर मणिगण भणकार श्रवण रिहित सुर गण रमा माकं, हा विणा पट पाहिति; जीमत पटलं, रसना बंधन प्रबल मुक्तामय, दाम शोभमान हेम दंडोपेतं, पुष्पक विमानमारूद, अनादर मुक्त शक्ति प्रहारोपार्जित, समर संघट्ट विजय मुकुट संघटित रत्नाकरण, विरचित्ता संडल चाप प्रपंच धन देव्यादि दिव्य महा पुण्य, परिवारो पेतं, किं कुबेर देवमाह्यानयामहे स्वाहा, हे कुभर, आगच्छ २, कुवेराय स्वाहा । शेष पूर्ववत ।
ॐ सर्वस्य शौतये शांतं, नत्या श्री घृत लक्षितं ।
वर्धमाने समैशानं, विदधे दर्भिणी दिशा ॥ ईशान दर्भः ॥ ॐ ईशान वृष षष्ट गणशतै, रावध मागलि ॥ हस्तो दस्त कराल शल मयदं, पूर्वोत्तरस्यां दिशि ॥ नागैराभरणै रलकृत मलं. काले हयामि स्व ॥
पात्र द्राक्प्रति गृह्यतामिहमहै, पुष्पादि काम्यर्चनम् ॥ पाद्याः ॥ ॐ पूर्वोत्तरस्यां दिशि दपीद्धारित मंदाकिनी पंकज मंडित विशंकट कुटिल विपाण कोटि उत्कृष्ट हाटक पटित कल, कूणित किंकणी सनाथ प्रलकमान गल कंबलोनतैः पूर्णकं धरं, धराश कैलाश धवलिमा लंघयंत, वृषभमारूद, भुजंगराज रज्जू संयुतं, केतकी कुसुमदस दाम सुरभि मौलि सरल शुमा युद्धोत्पादित प्रतिकुलवर्ति सर्वांग शूलं दिग्य कुल योषित् अशेष विभूषित समाजन समेतं ईशानदेयं समाइशनयामहे ॥ स्वाहा हे ईशान आमच्छ २ ईशानाय स्वाहा ॥ शेर्ष पूर्ववत् ॥ . . .
॥२१॥
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१
॥
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दशका
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ॐ प्रज्वाल्य पश्चिाग्नि, प्रसिंच्याम्य म्टतनिलि ॥
हप्तयः परही महाहीना, सहस्त्राणांच तावतां ॥ नाग दर्धः ॥ ॐ तिष्ठन्तं कमठस्य निष्ठुरतरे, पृष्ठे धराशा प्रभु ॥ नागेन्द्र फए चक्र बाल मणिमि, यस्तांधकारोदयं ॥ आरक्त द्विसहस्त्र लोचनमुखं, कर करोम्यग्रत ।।
स्तन्नाम्नैव मनु पियेण बहुधा, गधेन संप्रीयतां ॥ पागाः ।। ॐ अधररयां दिशि कठिन चक्रा कारोन्नत मध्य पृथु पृष्ठकं कुल सामथाष्ट गुण शरीर सामर्थ, चार चरण संचरण पराजित पवन रभसं, कूर्मराज पृष्ठमारूद, शिर सहस्त्र चूड़ामणि मरीचि बिडवित, शस्त्समय विमल नक्षत्र चा: स्थूल स्फूर्त मुक्ताफल हारासंकृत, परीत कंठ कंदलं सपद्मावति परिजनं, भूत धात्री धरणं धरणेन्द्रदेव, समानानयामहे ॥ स्वाहा ॥ ॐ धरणेन्द्र देव आगच्छ धरणेन्द्राय स्वाहा
ॐ दर्भकांड समादाय, विश्वपिनौवखंडनम् ।।
हिपामि बम्हणः स्थने, भक्त्या वाह्यं महामहे ॥ मोम दई ॥ ॐ उध्वयां दिशि सिंह दाहन मुड वातानु नातं स्फुरत् ॥ कांति कैरबदाम रम्य वपुष सोम, सविश्या समम् ॥
श्रत्युग्न ग्रहमण्डलस्य सकल, व्योमैक चूडामधिं ॥
पूजाया गपये प्रतीच्छतुतरा मे, पोत्रगंधादिकम् ॥ पायाधं ॥
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२१॥
ॐ ऊर्ध्यायां दिशि कुटिल दंष्ट्रा रूप बाल, चन्दां धवलित, दिक्प्रदेशं, खर नरवर कुटिल जर्जरित गर्जव वृन्दनान्त, धनदश सटाटोप भासुरोख वपु, केशरिणमारूद, निरुपम काय कांति संदिमान, कुमद स्नजं, तार तारागण परिवार परिगर्त, रोहिणी समन्वितं सोम देवं समाहूयायाम, स्वाहा ॥ हे सोम श्रामच्छ र सोमाय शहा, शेपं पूर्ववत ॥ इति दश लोक पालावाननम्
ॐ स्थानासनाप्रतिपत्ति योग्यान् सद्भाव सन्मान जलादिभिश्व || करोमि पूजा मिह दिक्पतीनां ॥ जलम् ॥
जैनाभिषेके समुयागतानां श्रीखंड कर्पूर कुंकुमाः, गंधैः जैनानिमुपागतानां
सुगंधी कृत दिग्विभागैः
H
करोमि हामिह
दिनपतीनां
शान्य क्षतैः रचतदीर्घगात्रः, सुनिर्मलैश्चंद्र करा
वहातैः
दिक्पतीनां
अक्षतं ॥
जैनाभिषेके समुपागतानां करोमि पूजामिह भोजनीलोत्पलपारि जातैः कदंव कुंदादि वर प्रबैं जैनाभिषे ॥ पुष्षं ॥ नैवेद्यकैः कांचन रत्न पात्रै, यस्तैरुदस्तै र्हरिया हस्ते || जैनाभि ॥ नैवेद्य ७ दीपोत्करेच्चन्त वमोभिघातै, रुद्योतिता शेष पदार्थ बातेः " जैनामि | दीपं ॥ तगार कृष्णागुरु चंदनायें। संवर्ण जैरुतम घृपवगैः ॥ जैनाभि ॥ धूपम् " लवंग नारिंग कपित्थ पूग, श्रीमोच चोत्रादि फलैः पवित्रैः ॥ जैनाभि ॥ फलम् ॥
11
"
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चंदनं ॥
IRPA
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||२२८||
भी चंदनाचत च वर दीपमित्रै, विकाश पुष्पांजलिनासुमत्या ॥ जैनाभिषेके समुपागतानां करोमि पूजामिह दिक्पतीनाम्
ॐ संस्थाप्य पीठं शशिख शुभ्र सपीप देशे जिन पठिकस्य ग्रहान वादित्य सुखानथैतान् यजामि गंध
प्रमवाक्षतोयें।
मध्ये तु भास्करं स्थाप्य शशिनं पूर्व दक्षिणे । दक्षिणे लोहितोंगंच,
1
उत्तरेण गुरु विद्यात् पूर्वेष तु भार्गवं पश्चिमे तु शनिं विधात्, पश्चिमोत्तर के केतुः स्थाप्याः वै शुक्ल तन्दुलैः ॐ पर्वस्यां दिशि सप्तदंकननु, छेद कुसुम प्रभं
॥ ॥
यदृष्ट्वा दुगणं प्रमोक्षततनु, स्यात् श्री भृदब्जा करः ।
बुधं पूर्वोत्तरेण तु
"
"
राहु दक्षिण पश्चिमे
पृथ्वी तोष्ट शतं विहाय गमने यो यो जनानां व्रजेत् ॥
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|
|| ग्रहपीठ स्थापनं ॥
कालश्च प्रमितश्च येनभुवने सूर्या दर्मं ददे ॥ सूर्य दर्भः
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माध्वान्तममितं जगदिदं निर्दोष मामासते ।
संगम योगिनाभि चतुः, शंखे सहत्र क्रमात् ॥ सिंहे मोच तुरंगमा चतिभृतां यानैः प्रति स्यन्दनं । बिम्बं यस्यतु सप्तमांशसहितं,
क्रोशस्य कोशत्रयम् ॥
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६२१॥
यं वर्षसहस्त्र युक्तमुदितं यस्मिन्स्थितं जीवितम्
रक्तैश्चामर वस्तु केतु कुतुमं, छत्रर्ध्वजैराजितम् ॥"
आत्मीयायुध बंध वाहरु वधू, भृत्यव पूर्वान्वितै
यस्मिन्य महोत्सवे जिनपते, मंव्यांबुजानंदनैः ॥ बंधन एकभक्त पयसा, सपि तुडा संयुतं "
श्री खंडागुरु कुंकुमैः सहितै रेलाव रांगो कटैः 11
+
पुष्पैकिंशुक पाटलोच जपा, बन्धूक पद्मादिभिः
||
11
तोर चव दीप धूप सफलैः त्वां संयजे भास्करम् ॥
हे सूर्य आगच्छ सूर्याय स्वाहा अर्क काष्ठे चीर खांड घृत रक्तध्वजा " सूर्य ग्रहानुचराय स्वाहा: सूर्य महत्तराय स्वाहा, आदित्याय स्वाहा, सोमाय स्वाहा, भौभाय स्वाहा, बुधाय स्वाहा, बृहस्पतये स्वाहा, काय स्वाहा: शनैश्चराय स्वाहा, राहवे स्वाहा, केतवे स्वाहा, ॐ स्वाहा, भूः स्वाहा, भुवः स्वाहा, ॐ भुवः स्ववाय स्वाहा, ॐ सूर्य देवाय स्वगुण परिवृता इदम पाच गंध पुष्पं दीपं धूपं बलिमत्ततं स्वस्तिकं यज्ञनागं च यजामहे प्रति गृह्यताम् प्रति
च
गृह्णामिति स्वाहा
यस्यार्थं क्रियते कर्म सुप्रीतो भव सदा ॥
शांतिकं पौष्टिक चैत्र, सर्व कार्येषु सिद्धिः ॥ कुसुमांजलिं क्षिपेत् ।
॥२२१ ।
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॥२२॥
ॐ अग्नेयां दिशि सप्तचाप वपूष, रौप्याद्रि दीनान्वितम् ॥ धर्मग्लान समस्य मुदित ं यस्यायुरा
पम्यं वत्सर लक्ष युक्त
अष्टाशीवि दल ग्रहैः परिवृतं राज्यंगना नायकम्
कैरकानं, नाना प्रमोदप्र वेदितम् 13
अष्टाविंशति संरूप विघ्यय सहितं पंचाननाधिष्ठितम्
यस्योच्चंच चतुः सहस्वमितिभि
पट्षष्टाख्य सहस्त्र नंद शतकं, पंचोत्तरा सप्ततिः 0
कोटा कोटिभिरात ताम्बर तले, तारागणैः सेवितं उत्पाद प्रभवं जिनेश्वर महं, सोमं समाह्वानये
ॐ विश्वं यस्यत योजनंतु विततं क्रोश त्रिभागाविन्वतं ॥ सासत्यष्ट शतेषु योजन वरै',
र्यानैः प्रतिस्पन्दनम् ॥"
2
11
पंचास्येन वृपाश्चका कृति धरैः निमिषेकसमये, मार्यादिभिः संयुतं शुभाश्रपम चामराम्बरधरैः,
पालाशोत्थसमित्प्रयक्च चहमि, देध्याज्य चीर धृतैः
सध्दपैः सरलान्वितरच,
॥
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सोम दर्भः ||
पृथ्वीतलावास्थितं ।
भक्त्याभि योग्यामरैः G
||
क्षत्रध्वजासं कृतं
"
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सत्तिलाद्यर्चामिरिन्दु जे ||
हे सोम श्रागच्छ २ सोमाय स्वाहा शेषं पूर्ववत् || नैवेद्य कराम्बु पलाश ईंधनश्वेतध्वजा
।: २२२
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२३॥
ॐ दक्षिणस्यां दिशि तस्थ वासं, निधूम धूमध्वज देह दीप्ति ॥
उत्पादजं सप्त धनुः प्रमाणं चक्र यजे पन्य दलायुतं "
उत्तर गोलार्द्ध निर्भ जयाधं द्विक्रोशमात्रद्विमहस्त्रसंख्या ॥
सिंहेभ गोरवा कृतयो भियोग्या, बहन्ति यानं प्रतिपस्यविम्बं ॥ भौमदर्भः ॥ ववध्यता खदिर ईश्वर सहित नैवेयं
ज्यूयेन दशभि विहाय
वसुधा, यो योजनानाम्यरे ॥
पत्नी बांधव मृत्य वाहन सुहृत, शस्त्रायवर्णान्वितं 11
तो लोहित चन्दने घुसणे, दर्पश्च रक्ताचतैः ॥
धूपैखं जुसेलगुग्गुल गुड, स्योयेग कर्पूरेजै:
नैवेद्य गुड शर्करा घृत युतैः शीतोदक प्लावितैः ॥
गंवा सकतुभिः सुखदिरां, गार प्रजुष्टै मैनाक
द्राक्षेक्षा रखें. रमक कुसुमं संसेवनाचे फलैः ॥
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यज्ञोऽस्मिन् परितर्पयामि बहुश, श्रीलोहिताय ग्रहे ॥ स्वाहा शेर्पा पूर्ववत् ॥
हे मंगल आगच्छ २ मंगलाय
ॐ यातुधानि दिशं स स्थिति ग्रहं पुस्तकं न्यस्त हस्ते स्मिता या जंचारू सूत्र स्थालंकृतोर स्थलं ददाहवोऽहमाहयानये ॥ बुधदः ॥
॥२२३॥
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१६२४ ।
ॐ नैऋत्यां दिशि सप्तकामुक सनु, भिन्नन्द्र नील द्युतिः
साष्टाशीति मुताष्ट संख्य शतके, स्पार्ध कोश प्रभं ॥ sti दिव्य हरी गोश्वनि करै, भौमोक्त संख्येः रथैः
पन्याद्वायुर कन्मपां बहुविधां बुद्धिं सदेयाद्बुधः वारणाम्बर लसच, ज्ञोपवीतध्वजैः
नीलैरावप
नीलाम्मोरुह दाम चारु चमरे शराजितः सर्वतः सशाज्योदनैः
सत्क्षीरः स्वर मंजरी भव सभीeपवनैः
"
11
||
धूपैर्खजुर सान्धि बुधमहं, लागाधिरूढ़ पजे
॥
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11
बुध आगच्छ २ बुधाय स्वाहा शेर्ष पूर्ववत्
ॐॐ पश्चिमायां दिशि संस्थितं वाक्पतिग्रहं पंकजाख्यं बलिनाक्षमालाकरं गंवं शान्य चव पुष्प धूपप्रियं चार्च हतो महास्मिन्महेशं शब्द ये गुरुदर्भः समडि ईंधन नील ध्वन सहितं नैवेयम् । करोत्सेधं सुवर्ण प्रभ F
ॐ पन्यैकायुधमष्टविंशति,
धात्रीतोर सबर्जिते नवशते, शत योजनानां दिवि "
ज्ञेयं पश्य रथं सुमेरुमभित, स्तोकेन क्रोश प्रभं ।
मुष्टांगरि इस्ति गोऽश्वनि करें, दिव्यौ सहस्राष्टक ॥ इस्तं व्यस्त सु पुस्तकं बहु मविं, यज्ञोपवीतां कि तं
पीतैरंशुक
पुष्पदाम चमरे, क्षत्रध्वजै भूषितं ॥
॥२२४॥
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-
अश्वन्धोध समित्प्रपक्य चरुमिः, शाल्योदनाय रहम् ॥
पदमस्थं प्रयजे जिनेश्वरमह, वाचस्पति संग्रह ॥ हे बृहस्पति आगच्छ २ वृहस्पतये स्वाहा, इति पीपल ईधन पीत धजसहित नैवेथम् :: शेपं पूर्ववत् ।। ॐ वायु देवोषिताशा श्रितं, स्कुर द्रोवि ज्वालाचल नागपाशायुधं ॥
दिए का गुरहे हमानिष्टितं, सातामो हमस्मिन्रिमतं सद्ग्रहं ॥ शुक दर्भः । ॐ वायव्याशा भितोयः, शशविशद तनुः सप्तचाप प्रमाणं ५
देहोरंधोक्षमाला परिकरि प्रकरो, . प्रम्ह सूत्रांकितोः ॥ सूर्यादेको नवत्यामुपरिंगतो, योजनानां जनोय ॥
___दृष्टीयं जीय लोके परिणयन, जिनस्थापनाघं करोति ॥ दिव्यं यस्योनहन्ति न्फुरदमलरुचि, क्रोशमात्र विमान ॥
_ सिंहेभ्यो चाश्व मुख्य तुहिन किरण, जश्चाद्य संख्या प्रमाणं ॥ यस्मिन्पन्यं प्रतिष्ठं शत युत मरुजै, जीवितं वत्सराणाम ॥
पालाशोन्सेधपक्वैः सघृत गुरु युतैः, सांस्थितं तर्पयामः ॥ हे शुक्र प्रागच्छ २ शुक्राय स्वाहा, खे, जई धन नैवेधं, शेषं पूर्ववत् ।। ॐ उत्तरस्यादिशि स्फुान्मेच कांग, घ तिं कृ.पण यज्ञोपवीतादिभिः ॥
भूषितं चात्मदात्रकन्वितं, देव देवाभिषेकेशनिमब्दये ॥ शनिदर्भः ।।
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॥
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-२२६॥
* उदीच्यांदिशि संस्थितोज्जननिमः, पल्याई जीवीमतो ।।
____ मंद सप्तशरामनोन्नत तनु, नेत्याल देशतिः । मार्तण्डात्मन्न योजनो परिगतं, कृष्णाम्बरायै युतं ॥
बस्य स्पंदन माइति सततं, क्रोशा मात्र दिवि ॥ दिव्यांगादिनि साहिम मितयः, सिंहभगोवा जयः ॥
सच्छी सुशमी समनिशितै मारे, खिलतंदुलैः ॥ साज्यश्चारु गुडैः शनीश्चर महं, संतर्पयामो वयं !
धूपैः सर्ज रसोस्कटैगुरु बुतैः, सुतेतरा वाये । हे शनीश्वर आगच्छ २ शनीश्वराय स्वाहा इति कृष्हाध्वजसहितं नैवेघम् पूर्वोत्तरस्यादिशि चाष्ट विंशति, करोभता दिव्य तनूदपातिया ॥
आजानु बाहुनिज शक्ति वास्तभः, सर्व गृहीवात्रिषडा यगोस्तुमे ।। राहुदर्भ । ॐ किं चिद्धीन जिनोक्त योउनमित, चन्द्रादधोगं सदा॥ ।
दिव्यं यस्य विमान मंजननिर्मः कृष्णां करोयैद ॥ बिम्ब रश्मिभिरूद्ध गाभिरमलं, पर्शवसानेपि ॥
श्री मलाहु महाग्रहं जिनमहे, दूर्वादिभिस्तं यजे । हे राहु आगच्छ २ राहवे स्वाहा शेष पूर्ववत्
।
॥२२६1
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ॐ केतुः स्फुरत्केतु सहस्त्र विग्रहो, रिष्ट ग्रहाख्यो ररिमंडलादधः ।
बजेदरिष्टान विमान संस्थितं, जिनाभिषेके बसुदर्भ मादधे केतु दर्भः ॥
ॐ ईषन्नन तरैकयो जनमतं, धूत्रौध धूम्रविषम् ॥
यस्य स्पंदनमृद्ध गासित करें, राच्छादयेाकम् ॥
दर्शान्ते प्रतिपतिता वुदयनि, षण्मासि परमाखितम् ॥
रिष्टं सप्त धनुन्तनुं ग्रह महं, केतु ं च सम्यक यजे ॥
हे केतु गच्छ २ केतवे स्वाहा ॥ शेषं पूर्ववत् ॥ स्थानासन्दा
प्रतिपत्ति योग्यान्, सद्भावमन्मान जलादिभिश्व
जैनाभिषेके समचेसमेतान् नवग्रहान्शान्ति करान्यजामि
॥
||
जलं गंधं चतं पुष्पं नैवेद्य दीपं धूपं फलं पुष्पांजलिं क्षिपेत्
चीरार्णवो सुरंग तरंगगौरं कस्तूरि का मोद विकृष्ट तुगम् ॥
रोपनोदाय ददामिधीतं भक्त्या ग्रहेभ्यो वर वस्त्र मुख्य वस्त्रम्
अथ क्षेत्र पालार्चनम् ॥
सद्य नाति सुगन्धेन, स्वच्छेन बहुतेनच ॥
स्वपनं क्षेत्रपालय्य, तैकेन प्रकरोम्यहम् || लाचनम् ||
१२२७॥
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Gall
शश्वत् सुमौन्दय सुनिर्मलेन, सयेन हैंलेन गुडान्जितेन ॥
श्री क्षेत्रपाल बहुविघ्न शान्त्यै, संस्नोमि सिंदूर कृतानु लेपम् !" पानीये घनसारकैः सुमनसे, श्चंद्रा तैरक्षतैः ॥
रवि नाविधैः श्री फलैः 能
संक्लीष्टा समपात नाशनपरैः, क्षेत्राधिरस्यायतः
"
तद्वभाक्ति पदारविंदमभितः संचर्चयामो वयम् ॥ ॥ इति क्षेत्र पालानं ॥ श्रर्घ ॥
इत्ये लोक पालाः ये, समाहूताः मयाधुना ॥
निजासनेषु ते सर्वे, सम्यक विष्टंतु सादराः ॥ १ ॥
विवाहित्य निःशेषान् सहायाः संतु ते मम् ॥
सप्त धान्यैश्वधैतेषां जले दद्यात् समाहुतिः ॥ २ ॥
सस्तन लघु गोमय पिंडिकाभिः यत्पारि वचक मिद कियते विनस्य । तस्नेहज्यभितमहो नहि लौकिकेन, रक्षादिनाकिमपि माध्यमिहस्तदेवैः ।
इति गोमय पिंड का बतरणम
सुवि कुंद कलिकोज्जल चारुभक्त, पिंडान खंड गुरु मंडित विग्रहस्थं अत्यादरानिपतेरव तारयामि, निर्वाण संभवमहासुख लव्त्रयेऽहम् ।।
॥२६८।
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२२६॥
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6 इलिभक्त पिंडिका बतारणम् . पूता वनौ पतित शीतल भूति पिंडैश्चंद्रांशु खंडधवः कर कुड्मन्नस्थै, भारमार्थमष्टविधकर्स महेन्धनस्य, बोकेश्वरस्य परिवर्तनमा तनोमि
। इति भस्म पिडकावतारणम् । हस्त द्वयाग्र कलितामलतार्ण जूटः कोटिस्थितन शिखिना सुख दर्शनेन ॥ निर्दग्ध कर्म रजसो जिननायकस्य, नीराजनं सटिति दरत एब कुर्वे ॥
a इति नीरांजनाः वतारणम् दूरावनम्न सुर नाथ किरीट कोटि, संलग्नरत्नकिरणच्छविधमरांधीः ॥ प्रस्वेद तापमल मुक्तमपि प्रकृष्ट, भन्या अलैजिनपति बहुधामिपिश्च ॥ ॐ जिन पतिमतिरिव सर्वजन जीवनैः,
सज्जन मनोभिरिव स्वच्छ तमैः, तर्फ शाख रिव बुद्धि बर्द्धनैरनुपचार प्रसादित,
स्वामि सन्मान दानखिसंतर्पकः, पौवना रंभरिखमनोहर ,
___ चतुरस्त्र बन्धु जन संमुत, रिव सदा क्लादने हैतुभिः, शशिकिरण प्रकरैरिवातिशीतलैः , नदीनद वापी कूप तड़ागसरोबरादि,
-
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-||२३०॥
शुचितमः प्रदेश संभूतैः ,
शुक्लाभिरं भोभरनेभिः ॐ एतानि जिनानागसंग मंगला निदाद्य तप तप्त सकल जगतापापनोदन दक्षानि, जिन चरणाराधना शकस्य, संबद्धन कराणि, स्नान सलिलानि जगतः, शांतिं कुर्वन्तु साहा, ॥
जलस्नपनम् ॥ पुण्य भिः प्रसर्पत, परिमल सहित, रक्षत रखतांगैः,
पुणे पुष्पद्भिरन्त श्चरुभिः, शुभवरे, दीपयमिः प्रदीयैः ।। धूपैः सव्य नव्य रूप हत गुणैः, संफलैः सफलाध्यैः ॥
पुष्प जल्योय युक्त, स्त्रिभुक्नमहितं, संयजे देव देवं ॥ मर्यम् उत्कृष्ट वर्ण नब हेम रसाभिराम, देह प्रभावलय संगम लुप्त दीप्तिं ॥ भाग घृतस्य राम गंध गुणानु मेयां, वंदेऽहत, सरम संस्नपनोप पुक्तां ॥
ॐ बिर्लानि जावरूप रस धारा समुज्जलायाः, उदयमत बाल तरणि किरणारुणारुवा, नवजल घरधीर ध्वनि हेतु समुन्मिरवतरल ताडदंड बिडंवन कारिएया, श्रेष्ट मंजिष्टा निर्यास वर्ष मुपहनन्त्या, मनः शिलाभंग समुत्थित रेणु पिंजरयानि सुख सहकार हरि दाथि निप्पंद मनो हरया, सुगंधि कमल मकरंई कणिका रजपुंजपिरितमिधान देशं, निजय ति निभवेन, जनयन्त्या मृदुपयन रिसर्पमान, परमामोद सुरभि कृत, समस्त ककुभागया, धनसार सौरमभर समहत्या
.
.
.
२३०
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२३१॥
स्निग्ध शुचि विमल घृत धारया, भगवतमहन्त संस्नाप यामः ॥ धर्म स्निग्धमनोज्ञशाकं विदधातु भगवानिति साहा ॥
* इति धृतस्नपनम् ॐ पुण्यै चीभिरित्यादिन पुष्पांजलि * संग शारद शशांक मरीवि जाल, स्यन्दैरिवात्म यशपामि वसुप्रबाहै। ॥
क्षीरें जिनाः शुचि तरैभिपि च्यमानाः, संपादयतुमम चित्त समीहितानि
ॐ अध निष्कथित पलधौव द्रव्य समिमेन, सरसमयं प्रसन्न महत्पथ, प्रस्थित राजहंस श्रेणि सदृशेण, चन्द्रबिंबारितामृतरस प्रशहानुकारिणा, स्निग्धोपइसित, सरस्वतिहसितेन, परनान्दोलित दुग्ध सिंधु प्रराह लोल कन्लोश लीला दधानेन, जिन दर्शन कुतूहलेन, रसातल महायागतस्य शेषस्य शरीरेण, बद्दीधी भूतेन धवलितम्नायच, सर्वमेव जिनायतनं शंख दर्भादि वोत्कीणं पुण्य हृदयादिम्बाहनं, बुद्धि नांशु बिम्ब मिवोदितं, नीहार गिरि निदर प्रक्षालितमित्र, देवराज महंग जदंत मध्यमिव, चन्द्र शिलाइषित मित्र प्रकुर्वाणेन, शरदभ्र वृन्देनैव, दूर्वाभृतेन, यज्ञोपवीतेन, क्षीरोदधि सर्व स्वेनेय, शुचिना वीर पूरेण, भगवन्त अहंत स्नापयामा, निरवधि यशः अस्माकं करोतु भगवानिति स्वाहा ॥
इति दुग्धस्नपनं पुण्यै वाभिरित्यादिना अध्यम् दुग्धाब्धिीचि चय संचय फेनराशि, पांडुच कांविमव धीरयतामतीव ॥ दनांगवा जिनपतेः प्रतिमा सुधारा, संपद्यतां सपदि बारितसिद्धयेवः ।।
२३१
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३२||
ॐ पुंडरीक खंड केतकी प्रसुनदचारदातेन, स्फटिक मणि कुट मन लोनियतीव, चंद्रातप प्रकारेण, कनक महीधर तट विकट कोटि घटित नक्षत्र चौद विशदेन, कुसुम कुदा सित सिद्ध पार छायो पामितेन, अमृतफेन पिड इव पांडुरी छतेन, पारद रस धाराभिरिव धौतेन: परमपिध्यान संपद्विशे षेणेव, कृतमूर्ति परिग्रहन जिननाथ यशसेव भुक्ने मयमानेन, पिंडी भूतेन कास कुसुमविकास कांति कान्तेन, सत्र शुक्लैरिव विहित संविभागेन, कैलाशोपल पट लेनेच, कोमल तामापन्न, दना भगवन्तमर्हन्तं स्नापयामि, शुभ शीतल ध्याने नारमा संयोजयतु, भगवानिति स्वाहा ॥ दधि मपनं ॥
ॐ भक्त्या ललाट तट देश निवेशिवोच्चैः ॥ इस्तैः स्तुता: सुर वरा सुर मर्त्य नाथैः ॥ तत्काल पीलित महेतु रसत्य धाराः ॥
सपः पुनातु जिनविम्ब गतेय युष्माम् ॥ ॐ सकल मनोमिचित स्वादु भावेन राजा वर्तशिला पपिताः कल्याण रेखापि संगेन, विविध सुगन्धि द्रव्य संचय परिमला मौदरिस्कृत कब्बलयेन, नियवादेन, इक्षु रसेन, भगवन्तमहन्तं स्मापयामि स्वाहा निर्मलमज्ञानं अस्माकमुत्पादयतु भगवानिति स्वाहा ।
इति इक्षुर स स्लपनमा सुखादु ऋष्य गुरु कोमल नारि केल, स्थूल प्रभृत फलनिमल पारि पूरैः ॥ संसार सागर समुत्तरौक सेतु, भूतं जिनेन्द्रममितः परिषेचयामि ॥
||२३२।
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आर.३||
ॐ निरुपमहत सुमहत जेरत मधुरत रस धृप्त प्रति गवा परिम्ला. स्निग्धमश्रुतण स्वगुण ग्राम समग्रता समधिक स्पृह मियानां निखिल भुवन जन नियह नयनसंदो हो। मानंददा व्यसनिना, केषाचित्संफुल सेफालि कोल्ल सुल्लोहित यांतीनां, अधरित विराग पचरा घट सौष्ठवाना; केपांचित्समुल्लसत्सीत शरीरीष पुष्प भरित द्य तीनो, न्यक्कृत विद्यो योतमान मरकत कलश विलासना, केचित्प्रषिकासित चंपक प्रसब प्रीति दीप्तीनां; अभिभूत शुभशात कुंभ कुंभि सौभाग्याना, प्रभूव भूरिगरि गंभीरोद्धर कुहराभ्यन्तरामानां, लनवा सिच्यमान परिनिर्मित रुचिर द्वार, प्रणाल सनाथ सुललित निजामाग, सर सदुरीस्पति त्यति नव तर नीर दुर्दिव्यनव्यति कराणां, नारि केलि फलोत्कराणां, कतु जन्माभिषेक विवुध परि वृदा संगता, यप कीर्ति लोंके कृष्णेऽपि चन्द्रा तपशिवद रुचा चेति ते, जात शंका । मून्ये यो तुग भाषा कनक शिखरिणं, पृष्ठ सौधर्मधाम्ना ।
दुग्धाब्धिः शंकयै वस्फुरतामविधुः, पंचमं चार्णवान ॥ प्रोद्य द्राका मृगांक प्रति नव किरण, श्रोणि संमेद भूरि ।
प्रश्च्योतश्चंद्रकांतोपतविमज जला, सार पूर प्रपन्नः ॥ प्रालेयाम्मृणाली मलयज कदली, हार कलहार शीतैः ।।
रेतैस्तोय प्रवाह, जग दधिपति, तजिनं स्नापयामः ॥ श्री मज्जैनेन्द्र गात्रतिति धरणि पत, भि जगंभा प्रवाहः ।
रच्योतत् पयूष राशी द्रव रस विभव, स्फडिं माधुर्य धुर्यः ।।
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२३४||
विश्वामेनों प्रसर्य द्वहल कल कलं, मेदिनी अश्नु पानः ।
___स्तादैनः शातयेनः क्षपित जगदद्य, चोच तोयौंच एषः ॥ ॐ ही भी क्ली ए' अहं हं संरा तंबई है सं सं तं तं पं पं भी भवी वी ची द्राँ द्रीं द्रावय द्राश्य नमोहतेभगवते श्रीमते पत्रितर नालि कर रसेन जिनमभिषिच यामि स्वाहा,
।। इति नालि केर रसेन स्लपन॥ श्री शात कुभ कलशोद्ध तशुद्ध वर्णः, सकुकमाम मधुराम्ररस अकैः रागादि वरिपरि मईन लब्ध कीर्ति, श्देती कृता समभुवनपयामि वीरं ।
ॐ निरुपम मद कल कल कंट वचन रचन चातुरि चमत्कार सहकाराणां, श्रामोद भर भरित दिगंत राल विर संधाना अनेक शुक पिक कंठ माधुर्य धुरीणां, पंचम कोका कलित ललित श्रुतीना, विभूति बहुत परिमल पृथुल फलभागणां, अभिनव धन यटल श्यामल द्वेदोतीषां निंदी थीर मधुर झंकार मुखरित शाखाम्टमृगाणां, गगन चुम्बितां दोशित पल्लवाना, निजमहिम विनिर्जित वर्जितरुणां, अमंदभ करंद अवधारित शुद्ध बोधैः सिद्धरस रिवाखिल सिद्ध कारक मरकत मय कपि कार फल संमृत्यै हत्तप्त सुवर्ण प्रभैरप्पामोद सुभगैः धनद निर्मित पंचाश्चर्यैरिव माणिक्य पुष्पराग प्रयास विधु दर्शितं रत्नत्रयारपरिव सुदर्शन पर्वतार स्थितमहं तुम्हा भिषकोत्सब मनोहरै रति पवित्र तमान रस: फल संभूतः ॐ तुष्टि करैः पुष्टि करैः पक्व पुष्पैर्मधुरैर्मनोहरः गुरुवननरिव गुरुमिश्वानरसै स्नापयामि स्वाहा ॥
॥२३४॥
भाम्ररस स्नपनम् ।।
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ॐ संस्नाषितम्य घृत दुग्ध दधीनुगः ॥ ___ सर्वाभिरौप घिभिरहे तमुज्वलाभिः ॥
उद्घति तस्य विधाम्यभिषेक मेला ॥
बचीय कुकम रसोत्कट पारि पूरैः ॥ ॐ पलाति बला सहदेवी, मलयजा जात्य कुकुम एला लवंग कंकोल नाम केशर महौषषि पृष्ठाः पणि शाला परि मुद्पर्शि माषपणिं जय विजय| अमृता सुगंधा सुरदारा जौवक ऋषभक काकोली धीर काकोली विशदा मोहिनी शता वरी ही बेलि कादि औषधिगण मिश्रितेन इन्द्र हस्तोनिता भरण विमिश्रितेराजित श्रोत्रप्रवाहं पच बर्ष लिट्गत शोभा प्राप्त साश्चर्येश अनेक देशंगना विरचित जय जए शब्दात्पन्न कोलाहला गत भन्य जीव कृत श्रद्धानेन, बहु शुम सुगंध वस्तु निक्षिप्ता जीव जल प्रवाह मंदाकि नी प्रमाणेन, नानाविघदे शोत्पम सौंषधि परिमल सुगंधि कृत समस्त चैत्य अवनेन, सौंषधिपयः पूरेण सकल विमल केवल ज्ञान दर्शन जिनेश्वरं संस्नापयामि, चतुर्गति क संसार दुःख मस्माकं ममवान् स्फोट यत्चामंति स्वाहा ।
" सर्वोषधि मंत्रः ।। ॐ नमो ईते भगवते श्रीमते त्रैलोक्य गुस्वे त्रिदशेश्वर मणि मुकुट मस्तक स्पष्टी कृत बिमल रुचिर पर कनक विकृत स्फुट लटर मुकुट किरीट कोटि परिमंडित मरफतेन्द्र मौन महा नील चन्द्रवान सूर्य कान्त पद्मराग पुष्पराग बनौदर्य प्रति विविध प्रकारानेक रन चूडामणि गुण गणो
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दय स्फुरद्गुरु विद्य द्विलास लोल ज्वाला कुल प्रभा कलाप मालालंकृत पात पंकज दयाल धर्म तीर्थ कराय धर्म नाय काय श्री मत्सिद्धार्थ राज कुलाम्बरोदिताय विविधानेक विमल सम्पूर्ण लावण्य गुण गणोदयामिरामावि शय विशेष केवल ज्ञान किरण प्रकाशित सकल जगत्रय भव्य जन प्रति बोधकाय श्री बद्ध पान दिवा कराय असुर सुर मुनि गण मनुज्ञ प्रतिमोह प्रकर्षमति संशय मूढ़ संकल्पान्ध कारोच्छेदन कराय इभ्या अवतपिएका ज्ञानां सर्वदर्शिनां अष्टो तरसहस्त्र मक्षण व्यंजनविधि त्रित जलदमल कमज्ञ विलासविसद्धि ल झचिर वर चरणानां चतुनि शति तीर्थ कराणां वृषम जिनेन्द्रा दीनां वीर जिनाधीश पर्यन्वाना अत्र बुधोत्पत्ति मतुलया परम माया देवाश्चतु जिंकायाम हणिगण भवन वासी व्यन्तर ज्योतिर्गण विधाघर चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव सिद्ध चारण किमर किं पुरुष महोरग गरुड़ गान्धर्व यक्षरासस भूत पिशाप गज गय महिष वृषमवर तुरंग मकर स्वकर भवमर रह करीण बराहाप्टापद गुरू व्याघ्र हरिगड चक्कुट कुरूर करंड सारस कलहंस चक्रवाक बलाका पद रथपान किमान बाहनाधिरूड़ा वर कनक किंकिणि काना मुकुट मुक्त्तादाम कलाप मालालंकृत विवुधा कीर्णविभाग शरदमल पूर्ण चंद्रद्यु तिहर वर विकृतोद्धत क्षत्रायुधं चामरमणि ध्वजयताकावर शंख पटह दुन्दुमिमेरी तालकाइल मृदंग तुर्य बेणु बीणा पल्ला बल्लरी प्रमुखोत्कृष्ट फलकल प्रतुभित समुद्र योपसिंह निनाद सहर्षा तुल घोष कोलाहल समततोन्य घुति विभमान् रिकता पर्द्ध'इव दर्शयन्तां विमल रूचिर माणिक्य कनक रजतमय ज्वलइमन ॥ लंकार प्रलंब घर हार कुडलांगद मणि केयर कटक कटि सूत्र मुकुट धरा रूचिर आपलं नव यौवन मदनोन्मादक विमल जलावति विमुल गंभीर नाभि प्रजाय मानसिति रूचिर घर रोम राजि विभूपित त्रियलित रंगतनु
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॥२३६॥
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मध्यांजन नील केशर मार कमलापतन यान सकल शशि बदन पीनोन्नत पयोधर बिम्बाधर विपुल जपन श्रृंगार देषविभूषित स्मित हसित विमल विलास लावण्य हावभाव ललित पृथु शिथिल रसना गुख गण कलादिमिदिव्य देवांगनाभिश्चाप्सरोगध सहितामिः शक्र प्रबोधिताः देवगणाः मत्तभ्रम मर किलकि ली मृदु मधुर वचन लसित फुल्ल बन्नी गुन्म द्रुमपतित पुष्प वासिता नेक द्रम मंडप कानन बनदरी गुहारण्य
तल नितम्ब संशोभित मंदर कूटै अनेक रत्नोज्वल कूट कोटि परि मंडितो विधिना सिंहासने संपादपीठो - निक्षिप्यतान् जिनेन्द्रा लोक्य महितान् त्रैलोक्योद्योतकरान् देवाधिदेवान् स्नापयाश्चक्रिरे । यथा
कोकनद कुमुद कुवलय कल्हार सौगन्धिक चंपक पुन्नाग बकुम तिलक सहकाशोक कुवक कर्णिकारक केतकी कुल्ल शाल तमाल दाहिम मातुलिंग पियंगु नव यूथिकाः वासंतिका जाति मन्लिका माधवी ककुम रक्तोत्पल कुटज कोरंट पाटली कुंद मंदार कदंव कदली सिन्दुवार प्रभृति जल स्थल जनानेक पंच वर्ष सुरमि कुसुमोपहार पुष्प पास धूप दीप विचित्र नृत्य गीत दिव्य स्तोत्र मंन्द्र पवित्र मंगलाभिधानः क्षीरोदधि सलिल कुसुमपरिपूर्ण मंगल रजत कलशैः एवं कृताभिषेका, इहाप्यनेक गंधोदक परिपूर्ण कल शैरभिषेवनं प्रतिगृत्यतामिति स्वाहा
इति सर्वोपधि स्नपनम् । इप्टैमनोरथ शतैरिव भव्यपुसा, पूर्णः सुरणं कलशै निखिताकतानः ॥
संसार सागर विलंघन हेतु सेतु, मालावये त्रिभुवनैक पति जिनेंद्रम् ॥
ॐ जाबनदरजातादि. मय कलश बदन विनिर्गतेन बोपल संघातेनेर द्रन्यतामुपदितेन पालेय गिरिणेव द्रवी भूतेन जिनस्नपनाय स्वयमागतेन धनांत हरिण लांछन मरीचि कलापेनेव रासी भूतेन
. . . ||२३७॥
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११८
स्वच्छाया दयाधन मुनिमनोभिरिव निमितेन नवी नवीनाकुश छायापहारिणां हारि हरिण तरसतर लोचनप्रभा प्रवाहिया, परकीय यशः प्रकाश सज्जन गुण विमलेन मुक्ता फांशु बाला मालाकालयता पीयूषर सेनक, सर्वेन्द्रियाणां प्रणिन, करेण निमस तया लोचनानंदमुत्पादरता सुमंधि कमल संबंधितया घाणे न्द्रियाप्यायनमादधत समुचित शिशिर तया स्पर्श सुख मुय जनपता गंध जिधासयानुयातु मधुकर झंकारेण श्रवणमानंदपता चितया चांतः करण माज्जेता, रजनी पति ज्योति परि स्पष्ट चंद्र कान्त शिवाइन सम्मिश्रितेन भच्छ स्फटिक छाया शुभ्र मा सलिलेन भगवन्तमर्वन्तं मापयामः, सर्वमभिलषित मस्माकं करोतु भगवानिति स्वाहा ।
इति चतुः कलश स्तपमम् ।। द्रव्यैरनल्य धनसार चतुः समाय, रामोद वासित समति दिर्गालैः ॥ मिश्री कृतेनषपसा जिन पुगवानां त्रैलोक्य पावनमहं स्नपनं करोनि ॥
ॐ यथा लब्ध सुगंध पदार्थ संयोग सुंदरेण केनचि दुनिन्द्रारविंद मकरंद रचित चारु चंद्रिकेन, फेनचित्पुष्पित कुमुद कुचलय रज पाया मोदितेन, केनचित्प्रचल दलि कतिध कारी सौगधिकगंध सम्पन्धेन, अपरैरपि बलनात बसुभिर्वहुन परिमला कारिभिः सुरभि कृतेन, सम र पर्याश्रित लवंग पृक्षात् पतित रप्त पुष्प निष्पंद संग संजनित हृद्य गंधेन, प्रविक सच्चंपक कुसुम समूह वासितेन, साधुगंधा धाणे मुदित मधुकर फुल्लरवि चावालितेन, मृदुपटु निमज्जदैरातदान संक्रान्ति सुरभी कृत मंदाकिनी प्रवाह पराजय कारिसी करि कलशमान चंदनानोद कांघ देश फिनिश्रित रस धारा विकासेन, कुम पूरादि
॥२८॥
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२३६॥
संसर्गेण, सुगंधिना बहुविधेन गंधोदकेन, भगवन्तमर्हन्तं स्वापयामः सुरभित वनांत कीति मस्माकां करोतु भगवानिति स्वाहा ।
* अष्टक क
सद्गंधतोय: परि पूरितेन, श्री खंड मान्नादि विभूषितेन ॥
इति गंधोदक स्नपनम् ॥
पादाभिव प्रकरोमि भृत्यै, भृंगार नालेन जिनस्य भाजलं
काश्मीर पंक हरि चंदन सार सांद्र कपूर पर रचितेन विलेपनेन ॥
अव्याज सौख्यय तनोः प्रतिमां जिनध्य, संपर्चयामि नत्र दुःखविनाशनाथ चंदनं ॥
तत्काल सक्ति ममुपार्जित सौरूप दीज, पुण्यात्मरेणु निकरैरिव संगलद्भिः ॥
पुः कृतै प्रतिदिनं कलमावतोयैः पूजां पुरोविरचयामि जिनाधिपानां गतं ॥ अम्भोज कुंद बकुलोत्पल पारि जात, मंदार जाति विदलनयमालिकाभिः ॥
}
देवेन्द्र मौलिविरजी कृतपादपीठं, भक्त्या जिनेश्वर महं परि पूजयामि पुष्पं श्रत्युज्वलं सकल लोचन हारि चारू, नानाविधा कति निर्वेद्यमनिंद्यगंधं ॥
पाव माम मनवीयासिहेम पात्रे, संस्थापितं जिन वराय निवेदयामि नैवेद्य ॥ निष्कज्जल स्थिर शिखा कलिकाकलाप, माणिक्यरश्मि शिखराणि विनयमिः
सर्पिभिरुज्वल विशाल तराजलोके, दीपै जिनेन्द्र भवनानि यजे त्रिसंध्यं ॥ दीपं ॥ कपूर चंदन तक सुरेन्द्र दारू, कृष्णागुरू, प्रभृति चूर्णवि धान सिद्धम् M
॥२३६॥
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२४.।
नासाक्षिकंठ मनसां प्रिवधूम वर्ति, धूपं जिनेन्द्र पुरवो बहुधा दिपेह ॥ धूपं । वर्णं नवानि नयनोसवमानईति, यानि प्रियाणि मनसोरस संपदा च ॥
गंधेन सुष्टु रमयति चयानि नासा, तस्तैः फलैजिनपते विदधामि पूज। । फलं ॥ एवं यथाविधिमनागपि यः सपर्या महत्तवरता पुरस्सर मातनोति ॥
काम सुरेन्द्रनर नाथ सुखानि भुकवा, मोबासमप्यमयनंदि पद सयाति ॥ मध ॥ पत्ता-सिसिव निम्मलु हाजा, सियछ प्रभामंडलु पिहन, जस करु असोने सुर कुसुम वरसिणु,
घर चामर धूप द्वय पंसरू । दुदुहि पुरे इन हमणु, केसरि मासण दिव्य धुखि, अदुई पयह नाह । इह कुसुमांजलि दिन्नमई, मत्तिय अरहताह । जेहि दहई ग्रह कम्माई, परकाल विकलीमलई ॥ अपहि मुह आणि निम्मल बाई एकट बहुगुण पहिउ
अछि नाणु सु पसिद्ध, केबलु ताई शरीर विवज्जियई । सासय मुख वजुयाह, राय समुद्दय दिनमई ॥ कुसुमांजलि सिहाय जलीय जगणं मलाणम् । दसम्भाव छत्तीस गुण, परिवार संगम्य जलाह पारय ॥ सि आगम कुसल । नवययाछ सम्भावभावय ॥
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जिवय संगम निवमधर । पंचाचार समुन्नवहं आयरिग एह कुछमाजति २ई दीन ॥ ११ ॥ नेहिं वसि किउमाण, मायंगु अयंदुसार कोहजिन || कबड्डु घसा दुबार नठऊ सम्मतु मणुपिक कविहि लोहू " पसरंतु रूधन मषियह, भववणि मुल्लाह ॥
मुगदेसय दाई, दिमपनये, पाठ यह इय कुसुमांजलि ताह ॥ १२ ॥ जियपरिसह मोह परिविच, वारस विहित तवनिय रूपाय । भयसंग बज्जिय जिय इंदिय विसय, मुह काम फोह नियमणु विसज्निय जीव दयावर गुमा निलय, विणय समुज्जय चित्त ॥ एइ कुसुमांजलि समर यह, तेह साहुई मई खित्त ॥ १३ ॥ विमल कोमल अमनदा नयशी, कमला लय मुहि कमलहछ कमल किया समि, जाविषय संपयधरहं दुरिय दुरक दोहग नासथि, नाजिया वपण, वियाग्गाई सपल पयासई । लोहितहि देवीहि, सिरि सयही एह, समाजलि होई ॥ १४ ॥ बाह निम्मणु हियई सम्मतु सब्ब उवव हई जीव इसन कय विछद्र पर घरपी णिय अपने
रिक्ष
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॥२४२
समतिय समाणु पर दध्यु बिछाई जेखि सिमोपण वज्जिया दिति सुषत हंदाचं वह साचयहं सकरोमिहऊ कुसुमांजलि सम्माशु जेहि मनिनई धम्म दयामूल बिग्ाथ रिष्टि परमगुरु सुहफ्यास संतास वज्जिय जेसइइ देउ जि पऊ अट्ठारस दोस बज्जि व |
जे सामिया कि महिय न जाई, एहसम धुप दिनमई कुसुमांजलि भवियाह ॥ * ग्रंथ शांतिकम्
अथ चतुर्विशति का पूरत: शतपत्र स्तंदुलैः श्रीखंडादिभिः शांतिं कुर्यात् ॐ पुण्याहं ३ श्रीयंत भगवतोदक जगख शशिक पूज्याखिलोकोद्योत कराः ऋपमाइयो यद्धमानांतश्चतु विंशति अन्त: सर्वज्ञः सर्व दर्शिनः सभिन्न नमस्कारा देशधि देवता ऋषभाजित संभवाभिनंदनसुमतिपद्मप्रभ सुपार्श्व चंद्रप्रभ पुष्पदंत शीतल श्रेयांस वासु पूज्य विमला धर्म शांति कुन्थु भरदे मन्त्रि मुनिसु व्रत नमिनेमिनाथ पार्श्वनाथ वर्धमानां सशिष्य वर्गाः शान्ति कराः भवन्तु मुनयश्च दृढव्रतः शान्तिं प्रयच्छन्तु श्री ही धृति कीति बुद्धि लक्ष्मी वनदेपो विद्या साधन प्रस्थान करणादिषु स्वगृहीत नामानि सर्व कार्य साधनेविवान्यत्र सिद्धाः सिद्धिकरः भवन्त, सर्व देव रिपू जय दुर्ग कांवार विषमे षु जयन्ति जिनेन्द्र चंद्राः परम मांगन्य भूता । परम कल्याण दायिनो नित्यमाचार्यः साधवश्चातुर्वर्णा श्रमण संघ सहिताः शान्तिः प्र६च्छन्तु G
1
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21.
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THEKE
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२३.1
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अथ दिक्पालानां ग्राणां पुरतो वस्ति विधान पलिभिः कुर्वीत प्रहाः सूर्य चंद्रांगारक बुध वृहस्पति शुक्र शनि राहु केतु सहिताः साष्टाविंशति नक्षत्राः अश्विनी भरणी कृतिका रोहिणी मृगशिर आर्द्रा पुनसु पुष्य अश्लेषा मघा पूर्वा फागुनी उत्तरा फाल्गुनी इम्त चित्रा स्वाति विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूल पूर्वापादा उत्तर पादा श्रवण बनिष्ठा शतामपा पूर्वाभाद्र पद उत्तरा भाद्रपद रेवती अमिति सलोकशाला यात वरूणा कुवा बारावाद्या कन्द विनायक दक्षिण काश कोष्टा मारा दीनां आयुर्वद्धताम् धर्मो बद्ध तां पुण्यं वदनी कुलगोत्र चामिवधताम , पुर राष्ट्र ग्राम . च परचक्र' तस्कर दुर्भिक्षमारोति कला र देरी रोगाद्य पद्रव विकाश नाय नित्यमहन्तो मंगलं प्रयच्छंतु,
पुनः सदा दान पतीनों भावकाणांच भ्राद पुत्र मित्र कलन स्वजन संबंधी बन्धु वर्ग सहितानां धन धान्यैश्वर्य यशो विभूति कांति बल धुति कीर्तयो कन्ता, सर्वम्मिन् जिनायतन मंडले श्री कीत्यैश्वर्य महाभियेकोत्सवे पूजाभिवर्धये च यतीनांच तत्र निवासिमा रोग शोक व्याधि उपमर्ग दुःख दोघल्प पर हनानि विनाशयन्तु । पापानि नश्यतु घोराणि निघ्नंतु प्रति शत्रवः पराङ्गमुखाः संतु देशाश्च निरुपद्रवाः भवंतु सर्व कालमपी सर्व कल्याण संप्राप्तिस्तु भूयोभूयः श्रेय प्राप्तिरस्तुं सुखं हितैश्वर्यमेवास्तु शिवंच सत्वानों ऋषि ऋषभादयः सदादिशंतु स्वाहा ।। इति शांति मंत्रः पुनरपि जिनाये । ॐ महद्भयो स्वाहा, ॐ सिद्ध भ्यो स्वाहा, अपुरीभ्यो स्वाहा ॐ पाठकेभ्यो स्वाहा, ॐ सर्व साधुम्यो स्वाहा, अतीतानागत वर्तमान त्रिकाल गोचरानंत द्रव्य गुण पर्यायात्मक वस्तु परिच्छेदक सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राद्यनेक गुण गणाधार पंचपरमेष्ठिभ्यो नमः
॥२४३
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पुनरपि दिक्पालानां ग्रहाणां पुरता पुण्याहं ३ प्रीयंता ३ वृषमादि वर्धमानाताः परम तीर्थ कर देवाः स्वसमय पालिन्यो प्रतिहत चक्र श्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ती, बज्र श्रृंखला, पुरुष दसा मनो वेगा कालिका ज्वाला मालिनी जया विजया अपरामिता महरूपिणी पाटा अम्बिका पद्मावती सिद्धायिकाश्चतुर्विंशति शासन देवता गोमुख यक्ष प्रभृति चतुर्षि सति यक्षाः प्रादित्य चंद्र मंगल बुध वृहस्पति शुक्र शनिराहु केतु प्रभृत्यष्टाशीति ग्रहाः वासुको शेषपालक वैकर्कोटक पद्म कुलीया नंत तक्षक महापद्म जय विजय नागौ देवनाग यक्ष गंधर्व ब्रह्म राक्षस भूत घ्यंतर प्रभृतपश्च सयते जिन शासन धर्म पालकाः ऋष्यार्जिका भावक श्रावि का यन क्रिया याजक राजा मंत्री पुरोहित सामंत रक्षक प्रभृति समस्त लोक सहभ्य शाति पृद्धि पुष्टि तुष्टि क्षेम कन्यासोश्वर्य
आयुरारोग्य प्रदा भयंतु सर्ग सौख्य प्रदा मगंतु देशे राष्ट्र पुरे च सर्वदा एव चौरासीमारीति दुर्मिक्ष विग्रह विघ्नौष दुष्ट भूत शाकिनी प्रभृत्य शेषाग्निष्टानि विनयं प्रयान्तु राजा विजयी भवतु राजा सुखी मवतु सजा प्रभृति समस्त लोकाः सततं जिन धर्म शीला पूजा दान व्रत शील महा मोहना व प्रभृति प्रजाभवतु यस्थिताः भव्य प्राणिना संसार सागर लीलयोत्तीर्यानुश्ममं सिद्धि सौख्य मनंत कालमनुमनंति, तदा शेष प्राणीगा शरण भूता जिनशासनं दविति स्वाहा । वलि विधानमंत्रः इति शांति काणीया.
आयाताः यूयमेते, प्यमा परिधृताः, प्राप्तसन्मान दानाः ॥ स्थाने स्वस्मिन्समाःणं, प्रमुदितमनसो, लब्धरचा धिकाराः ॥ निघ्नंतो विघ्न वर्गान, परि नन सहिती, योगभूमि समन्तात् ॥
२४४॥
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२४
दिक्पाला पालयां, विरिधि श्रवणे, पतवां वर्धमानः ॥
इति दिक्पाल क्षमा पन मंत्रः । ... ( अथ लवणोत्तारणम् ) रयणायरितं लेवेसि, अंकिषि सिंघ हितणुछति ॥ कंपि सई भरी सुगन्धऊ, अपरिदि भागी बउ विवह स्सहं ॥ जममि बंगउंनि जगजियो सरसंति फर उत्तारहिं च. लूगा । उपावदी द्विपार चंपलीय, फीट्टई लवणि खणिणा जन्मोत्सबे जिनवरम्य सुमेरु अंगे ।
शांत सुरै लेवय तोब निधैगृहीमा । प्रारभ्यते सकल दोष निवारणार्थ ,
मुचारणं भव हरं लवणस्य सद्यः ॥
(अथ जलोत्तारणम्) स्वीर सायरनं जिसु पवितु, जान्नम्मल सुरमरहिं जजितु
कंपी अमियस्स तुन्ल उत श्राणीऊ अमराहिव इह छकल सऊ . खित्तभन्नऊ जोतिय लेहिं पुज सति
सुहु' करवीरु तिणिवार जिण सामिएई उतारीह बर नरू ।
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२४६
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दुग्धाम्बुधः सलिन मुन्दसतोरु गंधं ॥र पूर परिपांडुरितं जनस्य ।, उत्तार्यते निज करेण निवेदपामि ॥ शक्रेप भक्ति भरतो मक शोषणाय ।
जखोचारणम् ॥ धर्म सर्व प्रजानां प्रभातु बलवान्, धार्मिको भूमिपालः ।
काले कालेव मम्यक् वर्षतु मयना, व्यापयो यान्तु नाशम् ॥ दुमि पीर मा अणमपि अगता, मास्मभूज्जीव लोके ।
जैनेन्द्रं धर्म चक्र प्रभवतु सततं, सर्व सौख्य प्रदायी ॥ प्रथयतु मुदमंतः क्षेममारोग्य मायू,-वितातु शुम बुद्धि पाप बुद्धिं धुनोतु ।
सफलयतु शुभवाछा पूजकानां जनानां, जगदधिपति पूज्यः पूजितोयंजिनेन्द्रः ।। शिव मस्तु सर्व नगला, परदित निरतः भवंतु भूतगुणाः ॥
दोषाः प्रशान्त नाश, सर्वत्र सुखो भवंतु लोकार ॥ मंगलार्थ समासाः, विसाः किलदेवताः
विसर्जनाख्य मंण, वित्तीय समाजमिः ॥
॥ इति श्री महाभिषेक पाठ समाप्त ॥
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४७
अथ क्षेत्र पाला पूजा # श्रीमजिनेन्द्र यज्ञ स्मिन्, क्षेत्राधिपतये मदा ।
बलिं ददामि सौग्व्याप्त्यै, दुष्ट विघ्न विनाशिने ।। १ ।। ॐ ह्रीं श्रीं क्रौं ज्य विजय अपराजित मानभद्र क्षेत्रपाला; अत्र अवर २ रसंवौषट् । अत्र विष्ठ २ ठः ठः । अवमम समिहिताः भ३ २ वषट् ॥ शुद्ध नाऽति सुगंधेन, स्वच्छेन पहुलेन च ।
स्नपनं क्षेत्र पालस्य; तैनेन प्रकरोम्यहं ॥ तैल मपनं ॥ सिन्दालणाकारैः पीतवर्णसु संभवः ।
चर्चनं क्षेत्र पालस्य, सिन्दूरेण करोम्यहं ॥ सिन्दगचनं ॥ सद्यः पूतैर्महा स्निग्धैः, सुष्ट मिष्ट सुपिरही, ।
___ क्षेत्र पाल मुखे देयं, मोदकं दुःख हानये ॥ मोदक दण्यात् ।। तिल पिण्डस्य पिंडेन, माषादि बहुलेनच ।
ददामि क्षेत्र पालाय, विश्व विघ्नौष शांतये ।' तिल पिंडस्थापनं ॥ भो क्षेत्राला जिनमः प्रतिमांक माल,
. दंष्ट्रा करावा जिन शासन रक्षपाल । तैलादि जन्म गुड चन्दन पुष धूपैः
मोग प्रतिच्छ जगदीश्वर यज्ञ काले । अर्धम् ॥
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॥२४
॥
ॐ अथाष्टकम् खीर हीर गौर नौरपूर वारि धारया, .
मंद छन्द चन्दनादि सौरभेन सारया । भूत प्रेत रावसादि कष्ट दुष्ट नाशनं
शांति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपाल पर्चनं । जलम् ॥ अर्क तर्क वर्जितैरमयं चन्दन वैः कुंकुमादि मिभितैरनल्प पटपदाभितः ॥ भूतप्रे, । चन्दनम् ।
औषधेन सिन्धुफेन हारमा समुज्ज्वले:-- रक्षतैः सुलक्षणैरजात खंड बर्जितैः । भूत प्रे ।। अक्षतम् । पारि जात पावित्र कुन्द हेम केनकी, मालती सुचम्पकादि सार पुष्पमालया ॥ भूत प्रे. ॥ पुष्पम् ।। व्यंजनेन पायसादिभिः समंच पट रसः ।। मोदकोदनादभिः सुवर्ण मान स्थितैः ॥ भूत प्रे. नैवेद्यम् ।। रत्न सोम सर्पिषादि दोपकैः शिखोज्वलैः । वात घात ताप कोष कंपरुप वर्जित । भूत प्रे. ॥ दीपम् ।। सिन्हिकासितागुरू अधूपकरलिश्रितैः, वान मान व मान मानिनी ममोहरै : भूत प्रे. ॥ धूपम् ॥
॥२४॥
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२४॥
श्री साम्र ककटी सुदाहिमादिमि फलैः
वर्ण मिष्ट मौरभादि चक्षुगदि मोदनैः । भूत प्रे. ॥ फलम् ।। जीवनासिता गुरुद्रयाक्षत प्रसनकै, चारू चारू ३ प्रदीप धूपरूप सल्फलैः । सुवर्ण भाजन स्थितैः रमा रमा रमा भिदैः, श्री ज्ञान भूषणाय संमहामहेक विच्छिदैः । अयम्।।
ॐ जयमाला लक्ष्मीधामकरं जगत्सुखकर, संदीर्घ कायं वरं ।। रात्री जागर वाहनं, सुरवरं करवालया धारणं ॥
निर्विघ्नं ग्रह नाशनं भयहरं भूतादि त्रासोत्करं ।
__वंद श्री जिन सेवके श्ररिहरं, श्री क्षेत्र पालं सा ॥ १ ॥ सुरासुर खेचर पूनित पाद, गुणाकर सुन्दर हूंकृत नाद ।
मनोहर पन्ना कंठ विशाल, सदा पु महोदय क्षेत्र सुणल ॥२॥ सुडाकिनी शाकिनी नाभन वीर, मिनेश्वर पूनन सेवन धीर।।
अनूपम शोभित मक वाल, सदासु.. ......... ॥ ३ ॥ सुलाकिनी हाकिनी पन्नगत्रास, सुभूपति तस्कर दुर्भिक्षनाश । '
निशाकर शेखर मंडित भाल, सदासु.......... ॥ ४ ॥ सुमंगल शब्दित शूकर वृद, सुराक्षस भोक्षस दुर्भय कंद ।
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॥२५०
सदामन कोमल केलि विशाल, सदासु........ || सुचित्रक कुंजर सागर पार, सुदुर्जन शोषण शत्रु संहार ।
सुपित किन्नर भूत रसाल, सदासु........ ॥ ६ ॥ सु वृद्धि समृद्धि सुदापक शूर, सुपुत्रक मित्र कलन सुपूर।।
सुरंजित नागिनि कामिनि बाल, सदासु....... ॥ सुकेयूर कुण्डल हार सुशद, सुशेखर सुस्वर किंकिसी नाद ।
भयंकर मीषण वासुर काल, सदासु"....|| सुमन खेलत दिव्य शो, सुबाहन हासन मोहन धीर।
सुमाषण रंजिव विश्व रसाल, सदासु......... ॥ ६ ॥ सुथापित निर्मल जैन मुजाक्य, निकंदित दुमति दुर्मति वाक्य ।
प्रकाशित शासन जैन रसाल, सदाम............ १०॥ सुभाषित श्रेय सुभब्य सुहेस, महोदय जैन सरोवर वंश ।
महा सुख सागर केलि विशाल, सदाम........... असम सुरद सारं तीक्ष्ण दंष्ट्रा करालं,
सब्ल सुकृत जटिलं, जिह का दीर्घ करालं ।
।।२५०
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॥२५६||
सुघट चिवट वक्रं शांतिदास प्रशस्यं
J
भजतु भजतु जैनं भैरवं क्षेत्र ॥ ॥ १२ ॥ महार्घ्यम् " ॥ अथ भैरवाष्टक स्तोत्रं ॥
यं यं यं यक्षराजं, दश दिशधिगतं, भूमि कम्पाय मानं,
सं सं संहार मूर्ति, शिर मुकुट झटा शेखरं चन्द्र बिम्बम् ॥
दं ददं दीर्घ कार्य, विकृतिगत नखं, दर्ध्व रोमं करालम् पं पं पाप नाशं, प्रशमति सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ १ ॥
रं रं रं रक्त वर्ण, कर का
दिलं तीच्ण दंष्ट्रा फरालम् ।
घं वं वं हं घोषं
वट घट घटितं घर्घरा राव घोषं ।
के के कंकाल रूपं, बिग दिन धिगतं ज्वालितं उग्रतेनं, तं तं तं दिव्य देहं प्रणमति"
लं लं लं लभ्ब लम्बं लक्ष सल ललितं दीर्घ जिह्वाकरालम्,
धूं धूं धूं धूम्रवर्णं स्फुट विकट मुखं रुरुरु' रुण्डमालं रुधिर नं नं नं नग्म
भास्वरं भीम रूपम् ।
मय मर्य, साम्र नेत्रं विशालं, रूपं प्रणमति
*g-b.
॥ २ ॥
H2 N
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५२५
वं यं वायुवेग, प्रलए परिणतं ब्रह्मरूप वरूपं, खं खं खं खङ्ग हस्तं, त्रिभुवन निलयं काल रूपं प्रशस्तं ।
चं चं चं चंचलत्वं, चल चल चलितं चालितं भूतवृन्दं ।
___ मं मं में माय रूपं प्रसामति सततं ........"" ॥ शं शं शं शंख हस्त, शशिकर धवल यक्ष सम्पूर्ण तेज । में मं में माय मायं कुन सकुल कुलं, मंत्र मूर्ति सु सत्यम् ।
घं भून जहां मिटविहित श्वा, गृह गुणहा लुलवं,
अं चरीक्षं प्रणमति सततं """"॥ ५ ॥ खं खं खं खंग भेदं विषममृत करं, कालकीलान्धकारम् । क्ष्क्ष्क्ष क्षिप्रवेगं, दह दह दहनं नेत्र संदीप मानं ।
है हुँकार नाद, हरि हरि सहित एहि एहि प्रचंडं,
___ मं में में सिद्धनाथं प्रथमति .... ..... ॥ ६ ॥ सं सं सं सिद्ध योग, मकल गुण मयं देव देव प्रसन्न, यं यं यं यक्षनाथं हरि हर बाद चन्द्र सूर्याग्नि नेत्र ।
जंज जं जंख नादं, बस वरुण सुरा सिद्ध गंधर्व नागं,
___रूस रूद्र रूपं प्रणमति सततं ....."" !! ७ ॥
॥२४२॥
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॥२५३||
IF
है है है हर घोपं, इसित कुरा रावसे राज्ञ हंसं । यं यं यं यक्ष रूप सिर कनक महा बद्ध सट्टांग नाशं
रं रंग रंगं, प्रहसित वदनं पीग कस्म स्मशान, ।
सं सं सं सिद्ध नाथं प्रणमति सक्तं भैरचं क्षेत्रलं ॥ ८ ॥ इत्ये भाव युक्तं पठविच नियतं भैरवस्याष्टकं हि, ___ निर्विघ्नं दुःख नाशं, असुर कृत मयं शाकिनी डाकिनीनां
त्रासोन व्याघ्र सर्प धृति वहसि सदा राज त्रासोपि न स्यात् ।।
ज्ञानं प्राप्नोति दराः ग्रह गण विषमारिंचतिता बेष्ट सिद्धिः ।।
॥ इति क्षेत्र पाल स्तोत्रम् ॥
8 अथ पद्मावती देवी पूजा ॐ ॐ ह्रीं शक्ति रूपे भगवती बरदे, देवी आगच्छ पठे, पद्नामे पद्म नेत्रे सपरिजन युते, एहि एहि सुशस्ते । धूपं मंधाष्ट द्रव्यं परमफल प्रदं, मोग वस्त्रायनेकं,
भक्तानां देहि सिद्धिं मम सकल मयं देव पूरी करवम् ॥ १ ॥ ॐ आँ क्रौं ह्रीं श्रीपद्मावती देवी अत्रागच्छ आगच्छ ।
ॐ आँ क्रौं ह्रीं श्री पद्मावती की अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
||२:
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SEX
ॐ श्रओं को ही श्री पद्मावती देवी पत्र मम सन्निहिता भव २ वपट । अमल पद्म द्रहे समुद्भव कनक कुभ सुधारया । रिंद पाद समान शीतल कमल वासित वारया ।
नरवरा नृर खेचरा स्तुत विधन कोटि विनाशिनीम्,
पूजयेत्पद्मावतीपद रिद्धि सिद्धि निवासिनीम् ॥ १ ॥ जलम् ॥ हेम कुंकुम मिश्रीतैः मलयाख्य भूधर संभवः,
परम ताप निवार चंदन गंध गंधित दिइ.मुखैः ॥ नरवरा नृ. ॥ चन्दनम् ॥२॥ कुन्द हार तुपार सुन्दर गगन वारक संनिमी,
__ सिन्धु फेन समान उज्ज्वल खंड वर्जित तंदुलैः । नरवरा ॥ अहतम् ॥ ३ ॥ पदम जाति मनोज्ञ चंपक्ष मालती मच कुन्दकैः,
कनक फेतकी पारिजात सुगंध लुब्ध शिलीमुखैः । नरवरा. ॥ पुष्पम् ॥ ४ ॥ पायसान्न बरोदनादिक खज्ज मंडप घेवरैः;
सूप तुप मनोज मोदक व्यंजनाय रसायकैः। नरबरा० ॥ नैवेद्यम् ॥ ५ ॥ तिमिर पटल विकार वर्जित कोटि भानु प्रकाशने,
घृत मणि मय कनक भामन प्रगट दीप सुज्योतिफैः । नरवरा० ॥ दीपम् ॥ ६॥
२५४।।
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२५५ ॥
काक तुरंग गिरीन्द्र संभव निविड जलधर संनिभैः,
अप्रूप सुदीपकाष्ट मनोज्ञ घ्नाय प्रमोदकैः । नरवरा• ॥ धूपम् ॥ ७
कान नम्बीर फनसह पूरा चिट लिम्बुकैः ।
गोधनेकषि पाटि फलोचकैः । नश्वरा ॥ फलम् ॥ = ॥
चन्दन अक्षतान् चत्कटैर्वर दीपकः,
धूप पत्र फलोर्व संचय नैक भूषण संयुतैः ।
श्री लक्ष्मीसेन सुरेन्द्र संस्तुत विनिड खलु तिमिरापहं,
पाद पंकज वंद्य गोविन्द मणित मस्तक मोददैः ॥ अर्द्धम् ॥ ६ ॥
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ह्रीं पद्मायै नमः । इस मंत्र के जाप्य देवे ।
* जयमाला
श्री पद्मावत वन्दे वा खेचर नर पर चरणे, I विनशासन उद्धरणे, भी बिन पार्श्व
संस्नापय पद्मावतीचरणं, सेवक नरवर घसरण शरयस् |
बिम्ब धरणे ॥ १ ॥
दुःख दावानल दूरी कृत दलनं, संतत जन सुख सम्पतिकरणम् ॥ २ ॥
संकट विकट कोटि सब नाशे, तुझ नामे सुख सम्पत्ति वासे ।
ग्रह एकोन नदे तुझ नामे, विषम व्याधि दुख दुरे वामे ॥ ३ ॥
||२५५
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२५६१ •❤
जल निधी थल होने तुझ नामे, बैरी व्याघ्रसिंह दूरे बामे t
हय रथ मंगल लहे महमचा, तुझ नामे नव निधि सम्पदा । ४ ॥
कुष्ट रोगश्वासादिक नाशे, शाकियो सर्प न भवे पासे 1
जय जग में जगदम्बादेवी, सेवक तुझ चरणाम्बुज सेवी ५
त्रिभुवन में तुझ नाम विख्याता, नहीं को जननि तुझसमजाना
तुझ गुण तन लावे पारं, जय पद्मावती नाम विचारं ।। ६ ।।
सुरगुरु तुझ गुणा पार न जाणे मूख मानव केम बखाणे |
पाप फलै दुःख दारिद्र भावे, ते तुझ दर्शन दूर पलावे ॥ ७ ॥
अन्य बुद्धि हुँ कोई न जार, कण गति सति तुझ नाम बाण |
तू जिन शासन जन सुखकारी, दुःख दावानल दूरीकृत | हारी ॥ ८ ॥
मस्तक मूर्ति श्री जिन पाय, संवत जन मन पूरश आ
भाग्य कसे तुम दर्शन पामी, कहे गोविन्द नमो शिरनामी ॥ ६ ॥
पत्ता - इद वर जयमाला, भावविशाला जे पठंति निव भावधारी ।
ते अशुभ प्रणाशे, सुरतरू मासे, मनवांछित फल पूर्णकरी ।। १० ।
आरोग्यं धन धान्य सम्पदकरी, दारिद्र निर्नाशनी ।
मौली पर जिनेन्द्र विम्व धरणी, बालार्कवद्भासिनी
॥ २५६॥
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॥२५७॥
संक्लिष्टा भय नाशिनी परि रमा, मंमन्य सहायिनी श्रीधरन्द्र राचि पराक्रम युते, पद्मावती भारी
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॥ अथ पद्मावती की आरती ॥
श्री स्याद्वाद मतान् वर्धन करी, भन्पान्सुद्दीपनी । पद्म पद्मदले निवास यदिते दारिदु निनर्देशनी । मौली पार्श्व विनेन्द्र विभ्व धरणी, पद्मावती भारती
इस्पाशीर्वादः ॥
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से देवी नित पाद पंकज नमो वच्ये मुदा आरती ०१ ।।
प्रगट पीठ पद्मावती परतोपूरण हर
कलियुग में अतिशय घों, वांछित फलदातार । २ ।।
अष्टमे पूजा भनी, मिस करे नरवर चंग |
अमर कुमरी घरी आरती करती मन उगे रंग ॥ ३ ॥ चाल - मणिमुकता फल भरि हेम थालं, घृत करपूरा दीप विशालं ।
अमर कुमरी मन आनंद धरती, पद्मावती प्रति आरती करती ॥ ४ ॥ वस्त्रादिक बहू भूषण धरती, अमिय समान वाणी मुखे भरती । अमर कुरु ॥ ढाल चँवर ऊभी इन्द्राणी, भारती त्रिभुवन शिक्सुख दानी | अमर कु० ॥
५ ॥
६ ॥
२५
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॥२५Ek
धरणराय पद्मावती राणी, पार्श्वनाथ केरी पक्षाणी । अमर कु० ॥ ७ ॥ सेवकनी संभाल जु करजो, तुष्ट थई ने माता कष्ट जु हरजो। भमर कु०॥८॥
अर्घ भरी करू आरती मनधरी प्रेम अपार भी जिनका चरणे नमि कर भारती मनहार ।।
ॐ पंच परमेष्ठी की जयमाला * मणुय-ण।इन्द सुर धीरय उत्त तया, पंचक जाण सुक्खावली पत्ताया ॥
दसणं खाण झाणं अणंत चलं, तेजिणा दिंतु अम्हं वरं मंगलं ॥१॥ जेहिं झायरिंग वाणेहि अई थत्यं, जम्म अर मरण हाय रतयं दडपं ॥
जेहिं पतं सिपं सासयं ठसायं, ते महा दितु सिद्धा परं पाणयं ॥ २ ॥ पंच हाचार पंवग्गि संसाहया । बार संगाइ सुय जलाई अरगाहया ॥
मोक्ख लच्छी महंती महं ते सया । मरिणोदितु मोक्खं गया संगया ॥ ३ ॥ घोर संसार भी माडवी काणणे। तिख वियरालणह पाच पंचाणणे ॥
__णहमग्गाण जीवाण पह देसथा। वंदिमो ते उब ज्झाय अम्है सथा .. ४ ॥ उग्ग तब यरण करणेहि झीणं गया । धम्म वर झाणसुक के झाणं गया ।
णियभरं तबसिरी ये समा लिंगया। साह ओ ते महा मोक्ख यह मग्गया ॥५॥
२५८
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२५
एण व्यो तेण जो पंच गुरु बंदए । गुरुय संसार पण वेल्लि सोदिये ।।
बहर सो सिद्ध सुक्खाइ वर माणणं । कुणई कम्मि धणं पुज पज्जा लग ॥ ६॥ अरिहा सिद्धा इरिया । उवझाया साहु पंच परमेट्ठी ॥
एयाण मु काऐ । भवे भवे मम सुहं दितु ॥ ७ ॥ ___ॐ ह्रीं श्रहसिद्धा चार्यों मार सर्व सानु च गनिमोऽयं मा निर्वयामीति
स्वाहा । इच्छामि भंते पंच गुरु भक्ति साम्रोसग्गों को तरसा लोचे श्रो __ अट्ठ महापाडि हेर संजुनामां अरहताणं ।
अट्ट गुण संपण्माणं उहढ लोयम्मि पद्रि पाणं सिद्धार्थ ।
अपर पण माऊ सं जुत्ताणं आज्ञरियाणं । प्रायारादि सुद गाणो व देप याणं उबझायाणं । तिर यण गुण पालड़ा रयाणं सच साहुखं । णिच्च कालं अच्चमि पुज्जेमि दामि णमस्सामि
दुक्ख क्ख श्रो कम्मक्ख भो कोहि लाहो सुगइ मम समाहि मरण जिन गुरुए संपत्ति होउ मन्झ ।
॥ इत्याशीर्वाद ।
पुष्पांजलि क्षिपेत् ॥
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१२६०॥
9 अथ शांति पाठ शांति जिनं शशि निर्मल बक्त्रं, शील गुण ब्रत संयम पात्र ।
अष्ट सहस्र सुलक्षण गात्र नौमि जिनोत्तममम्बुज नेत्रं ॥ १ ॥ पंचम मीप्सित चक्रधराणा, प्रमित मिन्द्र नरेन्द्र गणैश्च
शांति कर गण शांतिमभीप्सु, षोडश तीर्थ करं प्रणमामि || २ ॥ दिव्य तरु: सुर पुष्प स. वृष्टि भिगसब योजन घोपी ।।
आतप वारण चामर युग्मे, यस्य विभाति च मंडल ते ॥ ३ ॥ तं जग दचित शासि जिनेन्द्र' शांति करं शिरसा प्रणमामि ।
सर्व गणातु यच्छतु शांति मह्मपरं परमांच ॥ ४ ॥ येभ्यचिंता मुकुट कुण्डल हार रनैः, शक्रादिभिः सुर गणैः स्तुत पार पद्माः ।
ते मे जिना प्रवर वंश जगत्प्रदीपा, तीर्थकराः सतत शांति कराः भवंतु ॥५॥ संपूजकानां प्रतिपाल कानां यतीन्द्र सामान्य तपोधनानां ।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राजः, करोतु शांति भगवान् जिनेन्द्रः ॥ ६॥ अशोक वृक्षः सुर पुष्प वृष्टिः, दिव्य ध्वनिश्चामामासनंच ।
भामंडलं दुदुभिरात पत्र सत्प्राप्तिहार्याणि जिनेश्वराणां ॥ ७ ॥
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॥२६॥
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शा
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क्षेमं सर्व प्रमानो प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः, काले काले च सम्बवर्षतु मघवा व्याधयो यातु नाशम् । . दुभिक्षं चौर मारीम् क्षणमपि जगतां मास्मभूज्जीव लोके,
जैनेन्द्रं धर्म चक्रं प्रभवतु सततं सर्व सौख्य प्रदायि ।। ८ ।। प्रध्वस्त धाति कर्माणः केवल धान भास्कराः ।
___ कुर्वन्तु जगतः शांति वृषभाद्याः जिनेश्वराः ॥ ६ ॥
अथेष्ट प्रार्थना प्रथम करणं चरणं द्रव्यं नमः, शास्त्राभ्यासो जिन पति नुतिः संगतिः सर्वदायैः ।
सवृत्तामा गुण गण कथा दोष वादे च मौनं, सर्वस्यापि प्रियहितं वचं भावना पात्मतत्वे ।
संपद्य गं मम भा भवे यावदेतेऽपपर्गः ॥१०॥ तब पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पद द्वये चीनम् ।
तिष्ठतु जिनेन्द्र तावत् यावनिर्माण सम्प्राप्तिः ॥११॥ अक्खर पयत् थ हीणं, मत्ता हीम च जं मए मणियं ।
तं नमउ साण देष दुक्ख खमो मयं दिन्तु ॥१२॥
२६॥
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२६
दुक्ख खत्रो कम्मरखो, समादि मरणं च बोहि लाहोय ।
मम होऊ जगत बघव, तब जिएयर चरण शरणेण ॥१३॥
- श्री ऋषभनाथ की आरती ॐ आज मेरे मन मंगल है, मैं तो भेट्या पभ जिनंद । परसत पाप पसाइये, प्रभु पूनों परमानन्द । आज मेरे म. ।। टेक ।। पिता धन्य नाभिनन्दजी, धन्य मरू देवी माताजी । नगरी अयोध्या धन्य भली, तहाँ जनम्या त्रिभुवनराया । आम मेरे म. ॥ १ ॥ समव शरण मध्य शोमता, प्रसुवार दिशामुख चार । प्रभु विश्वंभर जीव बोधिया है. तो जीव दया प्रतधार | आज मेरे म. ॥ २ ॥ दोष रहित गुण शोभता, प्रभु भतिशय के अधिकार । अष्ट मंगल छवि गोपुरा हॉजी मानस्थम विशाल । आजमेरे० ॥ ३ ॥ पंच कल्याणक सुरकरे प्रभु आप गये निवारण । हर्ष भयो त्रिभुवन में जय जयकार यखाण ॥ भाजमेरे ॥ ४ ॥ साटि चार को विनाद सुमातुं नेघ चटा गरजंत । निरत करे अति अपछरा: रूमजुम नाद ठम कत ॥ श्रान मेरे ॥ ५ ॥
२६॥
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६शा
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सुरनर तिरयंच नारकी, भारती ले मनमा रसन कपूर र मेली के सब अारती हरि जिनराय ॥ आज मेरे ॥६॥ चक्रवर्ति इन्द्र फणीन्द्रजी सुरनर मुनि सभासार अम्हेमी जिन प्रभुध्यावहिं शोमेसार सरोर तार || आज मेरे० ।। ७ ॥ मंगल गावे नरनारी, पुत्र कला सभी कोई ।
आनंद घन नव निधि पावदि शिव मुमति वधु पति होई ।। श्राज मेरे. ॥ ८ ॥ मंगल गायोरे म्हें तौ भावसुदुतो श्री जिन कागुस्पामु। मुनि शुभचंद्र प्रभुविनवे मुजने दौजो सुगति विसराम ॥ माजमेरे० ॥ ६ ॥
॥ अथ विसर्जन पाठ ॥ ज्ञानतो ज्ञानतो वाषि, शास्त्रोक्तं न कुमपा
____ तत्व पूर्ण मेवास्तु प्रसादा जिनेश्वरः ॥१॥ ग्रहाननं न जानामि नैव जानामि पूजनम् ।
विसर्जनं न जानामि चमस्व परमेश्वरः ॥ २ ॥ मंत्र हीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैवच ।
तत्सर्व सभ्यतां देव रच रक्ष जिनेवरः ॥ ३ ॥
||२६॥
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बाहूता ये पुरा देवाः लब्ध भागायथाक्रम ते भषाभ्यचिंता मक्त्या सर्वेयांतु यथास्थितिम् ॥ ४ ॥
॥ लघु होम ( यज्ञ) विधान ॥ बेदी-घर के किसी उत्तम भाग में या मंडप के अग्रभाग में आठ हाथ लम्बी, पाठ हाथ चौड़ी, और एक हाथ ऊँची तीन कटनी घाली वेदी बनावे । इस वेदी के ऊपर पश्चिम की
ओर तीन कटनी की एक हाथ लम्बी एक हाथ चौड़ी और एक हाथ ऊँची एक छोटी बेदी वनाने । इस छोटी वेदीपर श्री जिनेन्द्र देवको प्रतिमा स्थापन करे एवं दाहिनी तरफ यक्ष तथा बाई ओर यक्षिणी विराजमान करे। वे कच्ची ईट तथा गारे से ही बनवानी चाहिये फिर उसे खड़िया आदि से पोत कर विविध चित्र धना कर रंग देना चाहिये ।
नोट-इस विधान में जिस दिशा में भगवान का का मुह हो वह पूर्व दिश मानी जाती है। तदनुसार अन्य दिशाएं भी समझ लेनी चाहिये । मंडप या धान संकीर्ण हो तो ४ हाथ की वेदी से ही काम चला लिया जाय कदाचित वेदी बनाने की असुविधा होतो उतनी ही मीन लीपकर उसपर रंग द्वारा लाइनें करके घेदी की कल्पना करलेना चाहिये । वेदी को चंदोग, चित्र, तोरण, वन्दनवा, पुष्पमाला आदि से सुसज्जित धनादेना चाहिये चवं चारों कोनोंपर कदली स्तंभ (केल के थम्भे ) इनुदंड भी लगादेना चाहिपे ।
॥२६४॥
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२६५॥
* हवन कुण्ड *
उक्त छोटी वेदी के सामने एक हाथ जगह छोड़कर निम्न प्रकार तीन कुण्डों की रचना करनी चाहिये
1
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तीर्थंकर कुंड - मध्यभाग में एक अरनि चौड़ा एक रत्ती ऊँडा चतुष्कोण कुण्ड बनावे जिसे तीर्थंकर कुए कहते हैं कुंड की गहराई थी तो वेदी के मीटर ऊंडी हो एवं व्याधी की ऊपर तीन कटनी होवें । बद्ध मुष्टि करोरलि " मुट्टी बांधे हुवे एक हाथ को अरनि कहते हैं जो कि आधुनिक नाप के हिमाच करीब १० इंच होता है तदनुसार १८ इंच लम्बा चौड़ा एवं १८ इंच ऊँडा कूड बनाएं जिसमें से 8 इंच तो जमीन में ऊडा हो एवं इच में क्रम से || इंच, ३ इंच तथा २ इंच की ऊची व उतनी ही चौड़ी इस प्रकार ३ कटनी बनावे बड़े डों में भी मेखलाओं ( कटनियाँ ) की चौदाई ऊँचाई इस प्रकार प्रथम कटनी की ५ मात्रा द्वितीय मेखला की ४ मात्रा एवं तृतीय मेखला की ३ मात्रा के प्रमाण से इसकी अग्नि को गाईपत्य कहते हैं । सामान्य केली कुएड-कोर कुण्ड के उची नापका अर्थाच एक अरनि लम्बा एक सामान्य केरली कुण्ड कहते हैं इसकी तीनों अग्नि को आनीय कहते हैं ।
होना चाहिये ।
दाहिनी तरक चौडा व एक अरत्नि ऊँडा त्रिकोड कुंड बनाने इसे जाएँ एक एक अरत्नि लम्बी होवें । इसकी
गणधर कुण्ड - चौकोर कुण्डों के उत्तर की ओर गोल कुएट बनावे जिसे गणधर कुंड
।।६६।
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कहते । बिसका च्याट तथा गहराई एक-एक अरन्नि ही हों तथा मेखला भी उसी प्रमाण से ३ हों। इस कुएड की अग्नि दविणाग्नि कहलाती है तेनों कुण्डों के भीतरी भाग की दीवारों को बराबर रखना चाहिये । एवं कुंड को रोली (गुलान) से रंगदेना चाहिये । यद्यपि तीन कुण्ड बनाने की विधि लिखी है परंतु संक्षेप में करना हो तो एक ही चतुष्कोण कुण्ड बनाकर उसमें हम आहूतिये देनी चाहिएं। यदि वैसा की संभव न हो तो पृथ्वीपर ही रंगावली से चौकोर कुण्ड बना लेना चाहिये ।
सुक् और खुवा 8 अग्नि में बिस पात्र से स.कल्प ( होम द्रव्य ) डाला जाता है उसे सपा कहते हैं तथा जिससे धी होमा जापा है उसे मुक् क ते हैं। स्वक् बरगद को लकड़ी का तथा सवा चंदन का बनवाना चाहिये । दोनों पीपल की लकड़ी के बनावे पीपल की लकड़ी भी न मिले तो पीपल के पचे काम में लेवे ।
॥ समिधा ॥ होम में ओ लकड़ियां डाली जाती हैं उसे समिधा कहते हैं । भाक, हाक, प्राम, पीपल, शमी, बरगद, खदिर ( खैर, ) अपामार्ग प्रादि की सूखी धुन रहित सकड़ियां उमा रकाचंदन. सफेद चंदन यादि की पतली व सीधी लकड़िशें की समिधा बनानी चाहिये ।
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॥ साकल्प ।। बदाम पिस्ता खच मजा वै नारि केलकः ।।
___ दुग्धे प्रचुर सपिंश्च शर्कर द्राक्षयान्विततम् । लघम कपू सुमिश्रितानां, चूर्ण सिलादि सुगंधजाः ।
युक्तं जिनेन्द्रस्य मते प्रसस्त, होमाईकं द्रव्य कदंब कंच ।। शादाम, पिता, छुहारा, जायफल, नारियल, दध, घी, दाख, लौंग, कार, इलायची, धूप, शर्कर, नैवेद्य आदि वस्तुओं का साइल्य कहते हैं साकन्य यजमान की शक्त्यानुसार
और पी सब वस्तुओं से दुना होना चाहिऐ। हवन सामग्री में धान्य, जब, और तिल ये तीन वस्तुएं भी परम आवश्यक हैं । इनमें थोड़ा घा मिलाकर होमना चाहिये इसके अलावा खीर, मावा, लपती तथा और भी भक्ष्य पदार्थ एवं केले दाहिम, जामफल गना आदि पके. .ल भी टुकड़े करके साकल्य में मिलाये जाते हैं .
॥ होम के भेद ॥ होम तीन प्रकार से किया जाता है। जलहोम, बानुका दोम, कुण्डहोम । __ जल होम-धोये हुने शुद्ध चावलों के पुंज पर मिट्टी या ताम्बे का गोल कुण्डा जोकि उत्तम जल से भरा हो रखकर उसे चंदन, अवत, माला, सूत्र आदि से सुशोभित करे उस बल कुण्ड में सात धान्यों से दिक्पालों को तथा ३ धान्यों से नवग्रहों को आहुति देवे । अन्त में नारियल
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अथवा किसी पके फल से पूर्णाहुति देदे । साव धान्य-चना, उड़द, मूग, गेहूँ, धान (शालि, ) तिल, जौ तीन धान्य-तिल, धान्य, जौ, ।
॥ बालुका होम ॥ भूमि को गोबर से लीपकर उसपर गन्धोदक का बिडकाप देकर एक हाथ लम्बी व एक हाथ चौड़ी भूमि में नदी की बालू विछाकर उसपर पील: आदि की लकड़ियों को शिखर के श्राकार रखकर उसमें अग्नि प्रज्वलित कर नवग्रह, तथि देवता, दिपाल एवं शेप देवताभों को
आहुति देवे । कुण्ड होम-वेदीपर कुण्ड बनाकर उनमें समिधा जलाकर साकल्य तथा थी आदि होभना चाहिये ।
होम की श्राद्य विधि होम की सब सामग्री यथा स्थान रख कर होम कराने वाला प्रतिमा के सम्मुख मुख कर बैठे । होम की समाप्ति पयंच मौन व्रत धारण करे । पश्चात् चांदी पत्र पर मुगंधित द्रव्य से अग्नि मंडल लिखकर बोर के तीर्थकर कुंड में स्थापित करे ।
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4 ॥२६% . १.
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अग्नि मंडल ___ साथ ही हो कुण्ड की कट नियों पर सफेद तथा पंच रंग मूत्र पेष्ठित कर के कुण्ड में शिखाकार समिधा स्थापित करके कुण्ड की कटी पर पाठों दिशाओं में दिग्पालों की स्थापना करने के लिये आठ अक्षत और पुष्प के पुंज रखकर उन पर एक एक सुपारी या बादाम रखदेना चाहिये । कुण्ड के चारों किनारों पर चावल के युजरखकर एक एक लघु क्याश सुपित जप से गरार उस पर श्रीस रख कर केशरिया वस्त्र से श्रावृत कर विराज मान करना चाहिये कुण्ड के चारों किनारों पर दीपक तथा धूपदान भी रखना आवश्यक है । पश्चाव संध्या या सकलीकरणादि फियाकरके निम्न मंत्र पढ़कर सामग्री की शुद्धि करे।
ॐ ही पवित्रतर जलेन शुद्धि करोमि स्थाहा । इस मंत्र से सामग्री का शोधन करे पश्चाद निम्न मंत्र पढ़कर कपूर था डाम जलाकर कूड में अग्नि स्थापन करे । ॐ ॐ ॐ ॐ ररररंदर्भ निक्षिप्य अग्नि सन्धुक्षणं करोमि स्वाहा । भब नीचे लिखे अनुसार कुएर्डो की पूजा कर अग्नि का अाह वानन करे । थी तीर्थनाध परि निवृत्ति पूज्य काले, आगत्य बहिर सुरपा मुकुटोल्ल सद्भिः
बहिन बजैजिन पदेऽह मदार भक्त्या , देहुस्तदाग्नि महम-तु दधामि । ॐ ही प्रथमे चतुरस्र तीर्थकर कुगडे गाईपत्याग्नयेऽयम् निवामीति स्वाहा गणाधि पाना शिव प्राप्ति कालेऽग्नीन्द्रोत मांगस्फुरदग्निरेषः । ।
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२७०
संस्थाप्य पूज्यः सममाहवनीयो, सत्कार्य शांत विविना दुतीशः । ॐ ही द्वितीये वृत्त गणधर कुण्डे आहवनीयाग्येऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा श्री दक्षिणाग्नि पर केवल स्व शरीर निर्वाण नुताग्नि देव ।
तिरीट संस्फुर दसौमयापि, संस्थाप्य पूजामिसुकार्य शान्त्यै ॥ ॐ ह्रीं त्रिकोणे सामान्य केवलि कुपडे दक्षिणाग्नयेर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा । इसके बाद निराला से आचार्य उच्चारण करने वाला) प्रत्येक मंत्र के बाद स्वाहा शब्द का उच्चारण करते
करे एवं यजमान (होम हुए होम करे 1
॥ अथ पीठिका मंत्र ॥
१ ॥
ॐ सत्यजाताय नमः ॥ ॐ अनुपम जाताय नमः ॥ ४ ॥ ॐ अक्षयाय नमः ॥ ७ ।। ॐ अनंत दर्शनाय नमः ॥ १० ॐ नीरज से नमः । १३ ॐ श्रभेद्याय नमः । १६ ॥ ॐ अप्रमेयाय नमः ॥ १६ ॥ ॐ भविलीनाय नमः ।। २२ ।।
2
ॐ प्रज्जाताय नमः ॥ २ ॥ ॐ स्व प्रधानाय नमः ॥ ५ ॥ ॐ अव्यावाधाय नमः ||८|| ॐ अनंत वीर्याय नमः ॥ ११ ॥ ॐ निर्मलाय नमः ॥१४॥ ॐ अराय नमः ॥ १७ ॥ ॐ
ॐ परम जाताय नमः ॥ ३ ॥ ॐ अचलाय नमः ॥ ६ ॥ ॐ अनंत ज्ञानाय नमः ॥ ६ ॥ ॐ अनंत सुखाय नमः ||१२|| ॐ श्रच्छेद्याय नमः ॥ १५ ॥ ॐॐ अमराय नमः ॥ १८ ॥ गर्भवासाय नमः ||२०|| ॐॐ अक्षोभ्याय नमः ॥ २१ ॥ ॐ परमधनाय नमः ॥ २३॥ ॐ परम काष्टयोग रूपाय नमः | २४|
।।२७०११
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श
द
ॐ
ॐ लोक निवासिने नमः ॥२५॥ ॐ परम सिद्धो नमः ॥ २६ ॥ ॐ अर्हसि भ्यो नमः ॥२७॥ ॐ केवलि सिद्धेभ्यो नमः सिद्धभ्यो नमः १२६॥ ॐ परंपर सिद्धस्यो नमः | ३० ॥ ॐ अनादि परमसियो नमः ॥ ३१ ॥ ॐ अनायत सिद्धेभ्यो नमः ॥ ३२ ॥ ॐ सम्यग्दृष्टे आसन्न भव्य निर्वाण वृजाई अग्नीन्द्राय नमः स्वाहा ॥
३३ ॥
इस प्रकार ३३ आहुतियां देने के पश्चात् निम्न काम्य मंत्र पढ़कर घी की ३ आहुति देवे ।
सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भरतु B
फिर नीचे लिखे पांच मंत्रों
को
पढ़कर वर्पण करे ।
ॐ ह्री परमेष्टिस्त पयामि स्वाहा ॥
१ ॥
प्राचार्य परमेष्ठिनस्तर्पयामि स्वाहा ||३||
"%
ही सर्वसाधु परमेष्ठिनतर्पयामि स्वाहा ५ ॥
"
ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिन स्तर्पयामि स्वदा ॥ २ ॥
ह्रीं उपाध्याय परमेष्ठिनतर्पयामि स्वाहा ||४||
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( अवान्तरे पंच तर्पण नि )
इसके बाघ निम्न मंत्र पढ़कर कुण्ड के चारों कोनों में दूध, दही इक्षुरस और सुगंधित बल धारा देनी चाहिये । धारा घोड़ी २ और पतली ही देना चाहिये जिससे व्यग्निन
बुझने पादे | इस को पर्याय कहते हैं ।
ॐ ह्रीं अनि परिषेचयामि स्वाहा ( इति पर्यावणं )
इसके अनंतर नीचे लिखे मंत्रों से २ आहुतियां देवे ।
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ॐ ह्रीं अहंभयः स्वाहा ॥ १ ॥ ॐ ही सिम्यः पाहा ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं परिभ्यः स्वाहा ॥३॥ , ही पाठकेभ्यः स्वाहा || ४. , ही सर्व साधुभ्यः साहा ॥५it , ही जिन धर्मेभ्यः स्वाहा ।६। ., ह्रीं जिनागमेभ्यः स्वाहा ।। ७ ॥ , हां जिनालयेभ्यः स्वाहा ॥ ८॥ , हीं सम्यगदर्शनाय स्वाहा।। ,, हीं सम्यग्ज्ञानाय सदा ॥ १० ॥ , ही सम्यक्चारित्राय स्वाहा ॥११॥,, ही चतुर्विशति यतेभ्यः रबाहः ॥ १२ ॥ ,, ही चविंशति यतीभ्यः स्वाहा । १३ ॥ ॐ ह्रीं चतुदश भवनकासिमः स्वाहा. १६ ॐ हीं मष्ट विध व्यन्तरेभ्यः स्वाहा ॥ .. !! ॐ ही दुधि लोहिरिन्द्रायः साहा ॥१६॥ , द्वादश विध कल्पवासिभ्यः स्वाहा ॥ १७ ॥ ॥ अस्मद् गुरुभ्यः साहा ॥ १८ ॥ ,, अस्मद् विद्या गुरुभ्यः स्वाहा ॥ १६ ॥ स्वाहा । २० ॥ भूः स्वाहा ॥ २१ ॥ भुवः स्वः ॥ २२ ॥ स्वः स्वाहा ।। २३ ॥
इस प्रकार २३ आहुतियां देकर निम्न काम्य मंत्र से घी की ३ आहुतियां देवे ।
सेवा फलं पट परमस्थानं भवतु । अपमृत्यु विनाशनं भवतु । इसके पश्चात् ॐ ह्रीं महत्परमेष्ठिनस्तर्पयामि । इत्यादि पांच मंत्रो से तर्पण करे । और ॐ ह्रीं अग्नि परि से चयामि इसमंत्र से कुंड के चारों कोनों में दूध दही यादि की धारा देकर पयुचण करे ।
ग२७.
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- निसारक मंत्र ॐ षट कर्मणे स्वाहा ॥ १ ॥ ॐ ग्राम पतये सौदा ॥ २ ॥ ॐ अनादि भत्रियार राहा ॥३॥ , स्नात काब बराहा ॥ ४॥ ,, भावाय स्वाहा ॥ ५ ॥, देवब्राह्मणाय स्वाहा । ६ ॥ .., सुत्र मणाय स्वाहा ॥ ७॥ अनुपमाय स्वाहा ।। ८ .., सम्यग्दृष्टे । सम्यग्दृष्टे । निधिपते पण : वैश्रवण ! स्वाहा || ६ ||
पूर्ववत काभ्य मंत्र पढ़कर घी की ३ आतियां दे ए' तर्पण मंत्र से ५ बार तर्पण कर पर्युषण करे ।
शोडष विद्या देवी मंत्र ॐ ॐ ह्रीं रोहिण्यै नमः ॥ १ ॥ ॐ हीं प्रज्ञप्त्यै नमः ॥ २ ॥ ॐ हीं बज खलायै नमः ।। ३ ।। , बांकुशाय नमः ॥ ४ ॥ , जाम्बूनद्य नमः ॥ ५ ॥ , पुरूषदत्तायै नमः ॥ ६ ॥ " काली देव्यै नमः ॥७ , महाकाली देव्यै नमः ॥८॥ ,, गौरी देव्यै नमः ॥ ६ ॥ ,, गांधारी देव्यै नमः॥ १०॥ , बाला मालिनी देव्यै नमः । ११ । ,, मानवी देव्यै नमः ।१२।
वैराटी देव्यै नमः ॥ १३ ॥ ,, अच्युताय नमः ॥ १४ ॥ , मानसी देव्यै नमः । १५॥ ॥ महामानसी देव्यै नमः । १६ ॥
पूषवत् रम्ब मंत्र पढ़कर पी की तीन माहूतियां दे पश्चात् ५ चार तर्पक्ष और पचन करे।
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* जयादि अष्ट देवी मंत्र के ॐ जय नमः ॥ १॥ ॐ ह्रीं विजयायै नमः ।। २ ॥ ॐ हीं अजिताये नमः ॥ ३ ॥ , अप जितायै नमः। ४॥ , झुमायै नमः ॥ ५ ॥ , मोहाय नमः ॥ ६ ॥ , स्तंभायै नमः ॥ ७ , स्तमिन्यै नमः ॥ पर्यवत् काम्य मंत्र से पीसी न्याहूति देकर तर्पण व पर्युषण करे ।
॥ नवग्रह मंत्र ॥ ॐ हीं है: आदित्याय नमः॥१॥ ॐ ह्रीं हूँ : सोमाय नमः ॥२॥ ॐ ह्रीं हैं : भौमाय नमः १२।
, बुधाय नमः ॥ ४॥ वृहस्पतये नमः ॥ ५ ॥ शुक्राय नमः ॥ ६ ॥ ,, शनिश्चराय नमः । ७ ।। , राहवे नमः ॥ ८ ॥ , केतवे नमः ॥ ६ ॥
पश्चात् पूर्वत् काम्य मंत्र पढ़ कर घी की ३ माहतियां देवे । एवं ५ नर्पण कर पर्युषण परे ।
॥ दश दिपाल मंत्र ॥ भाँको ही इन्द्राय स्वाहा |१| ॐ आँ को ही अग्नये स्वाहा ॥२॥ माँ को ही यमाय स्वाहा ।।३।। *कोही नैपाय स्वाहा ॥ ॐ आं को ही रुवाय स्वाहा ।। ५ ओ को ही पवनाय स्वाहा ॥ ६ ॥ ॐ श्रां को ह्रीं कुरेराय स्वाहा ।। ७॥ ॐ श्रां क्रौं ह्रीं ईशानाय स्वाहा
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+4 ७५॥
ॐ ह्रीं रखीन्द्राय स्वाहा ॥ ॐ क्रोमा
१०
इस प्रकार ३३२२६१६-१६+६+कुल १०८ आहुतियां देकर पूर्ववत् काम्य मंत्र पदकर घी की ३ भादुतियां देकर तर्पण व पर्यावण करे ।
पूर्वाना मंत्र आरंभ करते ही इसके बाद निम्न मंत्र पढ़ कर पूर्णाहूति देवे । अन्तपर्यंत जब तक मंत्र पूरा न हो वा तक अग्नि में घी की धारा करते रहना चाहिये । पूर्णाहुति में इनके अष्ट द्रव्य पान श्रीफल या सुपारी अवश्य होना चाहिये ।
॥ पूण हति मंत्र ॥
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ॐ विधि देवाः पंच दशवा प्रसीदन्तु । नव ग्रहः प्रत्यवायहरा भवन्तु ।
मावनादयो द्वात्रिंशहवा इन्द्राः प्रषोदन्तु । इन्द्रादयो विश्वे दिक्पाला पालयंतु
अग्नीन्द्र मौन्युमवाप्यग्निदेवता प्रसन्ना भवतु ।
शेषाः सर्वेपिदेवा एते राजानं बिराजयंतु ।
दातारं तर्पयतु । संघ इलावयन्तु t वृष्टि वर्ष
तु
मारी विचारयन्तु ।
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विघ्न विचात यन्तु
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________________ - - 2761 ॐ हीं नमोहते भगवत पूर्ण चलित मानाय सम्पर्म कसा पूर्णाहुति विदध्महे / (प्रति परमाहुतिः) पूर्णाहुति देने के बाद हाथ जोड़ कर निम्न शांति प्रार्थना का मंत्र पढ़े ॐ दर्पयोद्योत ज्ञान प्रालित सर्वनेक प्रकाशक भगवनईन् श्रद्धा मेधां प्रज्ञा वृद्धि श्रियं रेलं म युप्यं तेजः आरोग्य सर्व सावि विडिया पश्चात् शांति धारा देकर भगवान के चरणों में पुष्पांजलि चढ़ाकर चतुर्विंशति तीर्थकरों का तान कर पंचाग नमस्का! करे तथा अग्नि कुन्ड में से उत्तम भस्म लेकर याजक (आचार्य) स्वयं अपने ललाट पर खगाये और अन्य सबको लगाने देवे। पश्चात् प्रतिमाजी व यंत्रादिको यथास्थान विराजित कर देवों को विसर्जन करे / ॐ समाप्त