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* १ ब्रमजिनदास ब्रह्म जिनदास का समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का अंतिमभाग रहा है। आप मूल संधी भ. सकलकीर्ति के शिध्य भ० भुवनकीर्ति के शिष्य थे। इनकी हिन्दी भाषा की पद्यमय रचनाओं में उद्यापन पुराण, ब्रतकथा, तया, पूजाओं की कई कृतिसं विद्यमान हैं लेकिन उनमें से मामूली पूजाएं तथा ब्रत कथाए ही प्रकाश में भाई है। उन्होंने वि० सं० १५७५ में हरिवंश पुराण की पद्यमय रचना कीथी आपकी रचनाओं की संख्या करीब ५० से कम नहीं होगी। इस संग्रह में आपकी कृति ज्येष्ठ जिनवर पूजा, प्रकाशित की गई है।
॥२ ब्रहम कृष्णदास ॥ भट्टारक संस्थान में : भट्टारकों के शिष्यों में से सुयोग्य शिष्य अथवा भावी भट्टारक को प्राचार्य विशेषण से सम्बोधित करने की प्रथाथा एवं तत्पश्चात् के शिष्यों को ब्रह्म (ब्रह्मचारी) इस विशेषण से सयोधित किया जाताथा व कृष्णदासी काष्ठा संघी दशा नरसिंहपुरा समाज का गद्दी के भ. त्रिभुवय कीर्ति के पट्टस्थ न. रत्न भूषण के शिष्यों मैंसे एक थे श्राप लोहारिया के निवासी श्रेष्ठी हप के पत्र थे आपकी माता का नाम बीरिका देवी था विक्रम सं. १६८१ में मुनि सुखत पुराण की रचना की थी, आपका समर विक्रम सं० १६४८ से १६८५ के करीब है। आपने १० अभ्रराज (नेवराज) से शिक्षण प्राप्त किया था ऐसा ज्ञात होता है जैसाकि आपने अपनी ज्येष्ठ जिनवर जयमाला में उल्लेख किया है कि " पदित राज अभ्रवच कलिया. । ये पंडित श्रभ्रराज भी इन्हीं प्रा कृष्ण के सथियों में से थे और संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे इनकी रधिः। एक कथा संग्रह भ० सुरेन्ट्रकोर्तिजी सोजित्रा के सरस्वती भवन में है जोकि संस्कृत में उत्तम रचना है 5. कृष्ण को यह जयमाल गुजरात, बागड़, नेवाड़ मालवा प्रतिमें अत्यधिक प्रसिद्ध है। पूजय के अलावा अभिषेक के समय