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________________ - - - -- - - - * समुच्चयाष्टकम् ॐ निर्मलेन पवित्रेण, वारिणा मल हारिणा, । पंच मेरूस्थ बिघाना, र्माभ्यां पूजये मुदा ॥ जलम् ।। मलया चल जातेन, चन्दनेन सुगन्धिना ॥ पंचमे० ॥ चन्दनम् ॥ धवलायत पुंजेन, खंड वर्जित शोभिना ॥ पंचमे० ॥ अक्षतम् ॥ जाति चम्पक पृष्पेन, केतकादिधनेन च ॥ पंचमे० ॥ पुष्पम् ।। वृत पाचीत पक्वान्नैः शाल्योदनेन श्रीमतः ॥ पंचमे० ॥ नैवेद्यम् ॥ तमौन्नरधि नाशाय, रत्न दीपेन द्योतिना ॥ पंचमे० ॥ दीपम् । सुगन्धी धूप धूत्रेण ना प्रियेण सतां सटा ॥ यंचमे० ॥ धृषम् ॥ श्री फलान कपित्यादि, फलेन फलदायकान् ॥ पंचने० ॥ फलम् । तयादि रभु द्रव्ये शिव सौख्य विधायकान् ॥ पंचमे० ॥ अर्थम् ॥ ॥ जयमाला ॥ जम्बू द्वीप परे सुदर्शन इति, पे तथा धातकी, खंडे श्री विजया चली निगदिती श्री पुष्कराद्धेद्वये । द्वीपे मन्दर विध दादि पदती मालाहयो मन्दरी , तेषु श्रीजिन मन्दराणि सततं सन्त्येव सवर्णयः ॥ १ ॥ -- १०६॥
SR No.090446
Book TitlePraching Poojan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Chandra Jain
PublisherSamast Digambar Jain Narsinhpura Samaj Gujarat
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size6 MB
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