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भद्रशाल विपिनाश्रय मिट, दिनुजतसपु जिन संदिष्टं ।
पंच के जिनावरा , जनाय मिलापनिवारं । २ ॥ एकीकृत्य सु विशति संख्य, केवलनेत्र विलोकित संख्यं ॥ पंचसु • ॥ ३ ॥ नन्दन वैश्व पिता दर्श सेयं, सौमन शेष्त्र पितादृश गेयं । पंचसु० ॥ ४ ॥ पाण्डुकारूम गहनेवधेयं, यवमशीति जिनालय मेवं ॥ पंचसु० ॥ ५ रस्न विनिर्मित बहु सोयानं, सोचित समतल कोमल मानं ॥ पंचसु६ ॥ दुर्गत्रय नाना विधि चित्रं, खात त्रय जल विम्बित चित्रं || पंचसु० ॥ कांचन मय दृढ़ भिति विशाल, नाना स्तंभ विचित्र विशालं पंचसु. ॥ = कांचन कुम विराजित भृग, बहुधा वृक्ष विकृजिस भृगं । पंचस ॥ ६ ॥ अंतरीक्षरि चूम्बित मागं, किनर तुम्बर गीत सुरागं । पंचसु. ॥ १० ॥ मव्यान्तर्गत मानस्थंभ, गोपुर मंडित मानस्थंभं । पंचसुः ॥ ११ ॥ वृक्षा शोक विराजित मध्य, कल्पवृक्ष कुसुमोच्चय सध्यं । पंचसु. ॥ १२ ॥ मेदुरनाद चतुर्विधनाद्य, वीणावेणु मृदंग खाद्य । पंचमु. ॥ १३ ॥ डिडिम झझर ताल कंसालं, मद्रतार ख मूर्छितमालं । पंचसु. ॥ १४ ॥ सुर खलना ललिता व नृत्यं, हाव भाव रख विनम कृत्यं । पंचसु. ॥ १५ ॥ नवरस नाटक नौवा खेलं, परिहित नवा नव कोमल चेलं । पंचसु. ॥ १६ :। नंद नंद जय जय बहुराणं, पुष्पसु पृष्टि गत परिमाणं । पंचसु. । १७ ॥
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