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आर.३||
ॐ निरुपमहत सुमहत जेरत मधुरत रस धृप्त प्रति गवा परिम्ला. स्निग्धमश्रुतण स्वगुण ग्राम समग्रता समधिक स्पृह मियानां निखिल भुवन जन नियह नयनसंदो हो। मानंददा व्यसनिना, केषाचित्संफुल सेफालि कोल्ल सुल्लोहित यांतीनां, अधरित विराग पचरा घट सौष्ठवाना; केपांचित्समुल्लसत्सीत शरीरीष पुष्प भरित द्य तीनो, न्यक्कृत विद्यो योतमान मरकत कलश विलासना, केचित्प्रषिकासित चंपक प्रसब प्रीति दीप्तीनां; अभिभूत शुभशात कुंभ कुंभि सौभाग्याना, प्रभूव भूरिगरि गंभीरोद्धर कुहराभ्यन्तरामानां, लनवा सिच्यमान परिनिर्मित रुचिर द्वार, प्रणाल सनाथ सुललित निजामाग, सर सदुरीस्पति त्यति नव तर नीर दुर्दिव्यनव्यति कराणां, नारि केलि फलोत्कराणां, कतु जन्माभिषेक विवुध परि वृदा संगता, यप कीर्ति लोंके कृष्णेऽपि चन्द्रा तपशिवद रुचा चेति ते, जात शंका । मून्ये यो तुग भाषा कनक शिखरिणं, पृष्ठ सौधर्मधाम्ना ।
दुग्धाब्धिः शंकयै वस्फुरतामविधुः, पंचमं चार्णवान ॥ प्रोद्य द्राका मृगांक प्रति नव किरण, श्रोणि संमेद भूरि ।
प्रश्च्योतश्चंद्रकांतोपतविमज जला, सार पूर प्रपन्नः ॥ प्रालेयाम्मृणाली मलयज कदली, हार कलहार शीतैः ।।
रेतैस्तोय प्रवाह, जग दधिपति, तजिनं स्नापयामः ॥ श्री मज्जैनेन्द्र गात्रतिति धरणि पत, भि जगंभा प्रवाहः ।
रच्योतत् पयूष राशी द्रव रस विभव, स्फडिं माधुर्य धुर्यः ।।