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ॐ पुंडरीक खंड केतकी प्रसुनदचारदातेन, स्फटिक मणि कुट मन लोनियतीव, चंद्रातप प्रकारेण, कनक महीधर तट विकट कोटि घटित नक्षत्र चौद विशदेन, कुसुम कुदा सित सिद्ध पार छायो पामितेन, अमृतफेन पिड इव पांडुरी छतेन, पारद रस धाराभिरिव धौतेन: परमपिध्यान संपद्विशे षेणेव, कृतमूर्ति परिग्रहन जिननाथ यशसेव भुक्ने मयमानेन, पिंडी भूतेन कास कुसुमविकास कांति कान्तेन, सत्र शुक्लैरिव विहित संविभागेन, कैलाशोपल पट लेनेच, कोमल तामापन्न, दना भगवन्तमर्हन्तं स्नापयामि, शुभ शीतल ध्याने नारमा संयोजयतु, भगवानिति स्वाहा ॥ दधि मपनं ॥
ॐ भक्त्या ललाट तट देश निवेशिवोच्चैः ॥ इस्तैः स्तुता: सुर वरा सुर मर्त्य नाथैः ॥ तत्काल पीलित महेतु रसत्य धाराः ॥
सपः पुनातु जिनविम्ब गतेय युष्माम् ॥ ॐ सकल मनोमिचित स्वादु भावेन राजा वर्तशिला पपिताः कल्याण रेखापि संगेन, विविध सुगन्धि द्रव्य संचय परिमला मौदरिस्कृत कब्बलयेन, नियवादेन, इक्षु रसेन, भगवन्तमहन्तं स्मापयामि स्वाहा निर्मलमज्ञानं अस्माकमुत्पादयतु भगवानिति स्वाहा ।
इति इक्षुर स स्लपनमा सुखादु ऋष्य गुरु कोमल नारि केल, स्थूल प्रभृत फलनिमल पारि पूरैः ॥ संसार सागर समुत्तरौक सेतु, भूतं जिनेन्द्रममितः परिषेचयामि ॥
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