________________
२३१॥
स्निग्ध शुचि विमल घृत धारया, भगवतमहन्त संस्नाप यामः ॥ धर्म स्निग्धमनोज्ञशाकं विदधातु भगवानिति साहा ॥
* इति धृतस्नपनम् ॐ पुण्यै चीभिरित्यादिन पुष्पांजलि * संग शारद शशांक मरीवि जाल, स्यन्दैरिवात्म यशपामि वसुप्रबाहै। ॥
क्षीरें जिनाः शुचि तरैभिपि च्यमानाः, संपादयतुमम चित्त समीहितानि
ॐ अध निष्कथित पलधौव द्रव्य समिमेन, सरसमयं प्रसन्न महत्पथ, प्रस्थित राजहंस श्रेणि सदृशेण, चन्द्रबिंबारितामृतरस प्रशहानुकारिणा, स्निग्धोपइसित, सरस्वतिहसितेन, परनान्दोलित दुग्ध सिंधु प्रराह लोल कन्लोश लीला दधानेन, जिन दर्शन कुतूहलेन, रसातल महायागतस्य शेषस्य शरीरेण, बद्दीधी भूतेन धवलितम्नायच, सर्वमेव जिनायतनं शंख दर्भादि वोत्कीणं पुण्य हृदयादिम्बाहनं, बुद्धि नांशु बिम्ब मिवोदितं, नीहार गिरि निदर प्रक्षालितमित्र, देवराज महंग जदंत मध्यमिव, चन्द्र शिलाइषित मित्र प्रकुर्वाणेन, शरदभ्र वृन्देनैव, दूर्वाभृतेन, यज्ञोपवीतेन, क्षीरोदधि सर्व स्वेनेय, शुचिना वीर पूरेण, भगवन्त अहंत स्नापयामा, निरवधि यशः अस्माकं करोतु भगवानिति स्वाहा ॥
इति दुग्धस्नपनं पुण्यै वाभिरित्यादिना अध्यम् दुग्धाब्धिीचि चय संचय फेनराशि, पांडुच कांविमव धीरयतामतीव ॥ दनांगवा जिनपतेः प्रतिमा सुधारा, संपद्यतां सपदि बारितसिद्धयेवः ।।
२३१