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संयम ते भव पार तिरै नर, संयम मुक्ति सखा जग कहिये ।।
झान है यह संयम में अय कार्य लगाय कहो कि न रहिये ॥ ६ ॥ द्वादशं द्विविधं लोके, बाह्याभ्यंतर मेदतः । स्वयं शक्ति प्रमाणेन क्रियतेधर्म वेदिभिः ॥ ७ ।
ॐ ही उत्तम तो धर्मागाय अय॑म् । पत्ता-शर भव पावे प्पिणु, तच्चपुणेपिणु, खंडपि पंचेदिय समणु ।
णिबेउवि मंडिवि, संगइ छडिनि, तव किज्जब जाये विवणु ।। १ ।। तं तउ बहि परिगह डिजइ, तंतउ जहि मयणुजि खंडिज्जइ ।
तं तर यहि माग्नत्तणु दीसइ, ते तउ जाह गिरिकंदर णिवसइ ॥ २ ॥ तं तउ जहि उपसग्ग सहिज्जइ, तं तउ जहि राधाइ जिणिज्जइ ।
तं तउ जाहि मिक्खइ भुजिजइ, सावइ गेह बाल णिव सिज्जइ ॥ ३ ॥ तं तउ जत्थ समिदि परि पालणु, तं तउ गुत्ति त्तयह णिहालणु
तं तर जहि अप्पा पर वृझिउ, तं . उ जहि भव माणुजि उज्झिउ ॥४॥ तं तउ जाहि ससरूव मुसिज्जाद, ते खउ जहि कम्मद गण खिज्ज इ .
तं तउ जहि सुर भत्ति पयासहि, पक्यणस्थ मवि यणद भासहि ॥ ५ ॥
जेश तवे केवल उपवज्जइ, सासय सुक्स पिच्च संपन्ज इ । धत्ता-धारह विहु तउवरू, दुमाइ पपिहरू, तं पुजिज्जाइ थिर गणिणा ।
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