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मच्छर मय छडि वि, करणइ दडिवि, तं पिघरिज्जइ गौरविणा ॥ ६ ॥
(भाषा संगा) दुद्धर कर्म गिरीन्द्र गिरावण, बज समान महा तप एलो ।
बारह भेद भगत जिणेमुर पाप पखालन पानीय जैसो । दुःख विहंडण सुख समर्पण, पंच इिन्द्रिय रक्षण तैसो ।
ज्ञान हे तपस्या बिन जीव जु मोक्ष पदारथ पावेगो कैसो ॥७॥
* ही ऊत्तम तपो भांगाय महाय॑म् ॥ ७ ॥ चतुर्विधाय संघाय, दानं देवं चतुर्विधम् । दाकव्यं सर्वथा सनिश्चितः पारलौकिकैः ॥ ८ ॥
ॐ हीं उत्तम त्याम धमोगाय अत्र्यम् ॥ घचा-चउहि धम्मंगो, करहु अभंगो, णियसनिइ मत्तिय जसाहु ।
पचह सुपवितह तब गुण जुनह परगइ संवलु तं मुण्ड् ॥ १॥ चाए आवागवणउ हर, चाए णिग्मल किति पविष्ट ।
चाए वरिय पणमिइ पाये, चाए भोग भूमि सह जाए ॥ २ ॥ चाउ विहिज्जइ बिच जिविणए, सुयव पणे मासेप्पिणु पणए ।
अभयदाण दिज्जइ पहिलारउ, जिमि णासइ पाभव दुह यारउ ॥ ३॥ सन्थ दाण चीजो पूण पिज्जइ, सिम्म शाण जेण गविन्जह ।